- हर्ष पंत (प्रोफ़ेसर, किंग्स कॉलेज लंदन)
चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) को अफ़ग़ानिस्तान तक बढ़ाने चीन ने प्रस्ताव दिया है। सवाल उठता है कि क्या भारत का क़रीबी अफ़ग़ानिस्तान इस प्रस्ताव को स्वीकार करेगा। और अगर ऐसा होता है तो अमरीका का क्या रुख़ होगा जिसका इस क्षेत्र में बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है।
चीन का तर्क है सीपेक में शामिल होने से अफ़ग़ानिस्तान में ढांचागत निर्माण में फ़ायदा पहुंचेगा और ये पूरे इलाक़े के लिए आर्थिक रूप से काफ़ी फ़ायदेमंद रहेगा। लेकिन असल बात ये है कि भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बिना चीन की महत्वाकांक्षी सीपेक परियोजना का भविष्य आगे नहीं बढ़ पाएगा और चीन को इस बात का अच्छी तरह आभास है।
चीन का दोहरा तर्क है- आर्थिक और रणनीतिक। वो चाहता है कि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच संबंध सुधरे, जोकि हाल के दिनों में काफ़ी तनावपूर्ण हो गया है और इससे उसकी परियोजनाओं को लाभ मिले।
अलग थलग करने की कोशिश
हाल के दिनों में भारत, अफ़ग़ानिस्तान और अमेरिका के बीच संबंध काफ़ी मजबूत हुए हैं और पाकिस्तान अलग थलग पड़ गया है। चीन नहीं चाहता कि पाकिस्तान जिस तरह अफ़ग़ानिस्तान में भूमिका अदा करता आ रहा था, उसमें किसी तरह का नुकसान हो।
इसलिए वो अपनी तरफ़ से दोनों देशों के बीच संबंध को सामान्य करने कोशिश कर रहा है। अमेरिका के क़रीब चले जाने के कारण पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत की भूमिका अहम हो जाए। भारत के प्रति चीन की अलग थलग करने की नीति रही है। अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान को साथ लेकर वो इस इलाक़े में अमरीका और भारत को अलग थलग करना चाह रहा है।
भारत ने पहले ही सीपेक का विरोध करते हुए इस परियोजना से खुद को अलग कर लिया था। इसकी वजह ये है कि सीपेक में पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर को भी शामिल किया गया है। भारत इस क्षेत्र पर दावा करता रहा है। और सीपेक के दायरे में लाने का मतलब ये हुआ कि चीन भारत की संप्रभुता पर सवालिया निशान लगा रहा है।
ज़मीनी हालात अलग
पहले चीन का पक्ष किसी भी विवादित क्षेत्र में किसी का पक्ष न लेने का था। लेकिन अब उसकी नीति में बदलाव हुआ है और अब उसका कहना है कि पाकिस्तान के हिस्से के कश्मीर पर पाकिस्तान का अधिकार है।
अगर सीपेक में अफ़ग़ानिस्तान शामिल होता है तो इसका ये संदेश जाएगा कि भारत ने जो वहां निवेश किए हैं उसका लाभ उसे नहीं मिल पा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि क़ाबुल में जो सरकार है उसके लिए भारत की चिंताओं को नज़रअंदाज़ कर पाना आसान होगा।
इसके अलावा अमेरिका की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके बिना क़ाबुल में कुछ और नहीं हो सकता। जहां तक लगता है, ये मानना थोड़ा मुश्किल है कि क़ाबुल बीजिंग के प्रस्ताव पर हामी भरेगा।
ज़मीनी हालात भी कुछ ऐसे ही संकेत देते हैं क्योंकि इस्लामाबाद के साथ क़ाबुल के रिश्ते इस समय सबसे अधिक तनावपूर्ण हैं। इस इलाक़े में चीन की ये पहली त्रिपक्षीय कोशिश है और इसलिए थोड़ी बढ़ाचढ़ा कर बातें हो रही हैं, लेकिन ज़मीनी हालात बिल्कुल अलग हैं।
(बीबीसी संवाददाता आदर्श राठौर से बातचीत पर आधारित।)