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कोरोना वायरसः दबाव में सही फ़ैसले कैसे करें?

हमें फॉलो करें कोरोना वायरसः दबाव में सही फ़ैसले कैसे करें?

BBC Hindi

, रविवार, 10 मई 2020 (08:19 IST)
इयान लेस्ली, बीबीसी वर्कलाइफ़
जब आप इसे पढ़ रहे हैं तब दुनिया भर के लोग कोविड-19 कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ जंग में ज़िंदगी और मौत के फ़ैसले कर रहे हैं। अस्पतालों में मरीजों की बाढ़ आने पर डॉक्टर और नर्स तय कर रहे हैं कि किसका इलाज करना है और कैसे करना है। अधिकारी ये फ़ैसले कर रहे हैं कि संसाधन कहां लगाने हैं क्योंकि मांग ज़्यादा है और स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा रही है।
 
वैज्ञानिक फ़ैसले कर रहे हैं कि सरकार को कैसे सलाह देनी है और शोध के किस रास्ते पर बढ़ना है। राजनेता फ़ैसले कर रहे हैं कि जनता पर कौन सी पाबंदियां लगानी हैं और उसके आर्थिक नतीजों का सामना कैसे करना है।
 
अनिश्चितता के हालात
यह वायरस नया है और तेज़ी से फैलता है। बड़े से बड़े फ़ैसले अनिश्चितता की स्थिति में किए जा रहे हैं और उनके लिए पर्याप्त समय भी नहीं मिल रहा। कोविड-19 से निपटने के लिए कोई गाडइबुक नहीं है, कोई जांचा-परखा नियम नहीं है।
 
हालांकि किसी भी बाहरी व्यक्ति को विश्वासपूर्वक यह सलाह नहीं देना चाहिए कि कौन सा फ़ैसला करना है, फिर भी फ़ैसले कैसे लिए जाएं इसके कुछ तयशुदा तरीके हैं।
 
इस बारे में और अधिक जानने के लिए मैंने कुछ मनोवैज्ञानिकों से बात की जिन्होंने अप्रत्याशित और ख़तरनाक हालात में काम करने वाले पुलिस अधिकारियों, सेना के कमांडरों, ध्रुवीय अन्वेषकों और पर्वतारोहियों के साथ काम किया है।
 
लिवरपूल यूनिवर्सिटी में फॉरेंसिक साइकोलॉजी के प्रोफेसर लॉरेंस एलिसन तीन दशक तक पुलिस और आपातकालीन सेवा से जुड़े रहे हैं।
 
उतावलेपन का जोखिम
इस वैश्विक महामारी के अगले मोर्चे पर फ़ैसले ले रहे लोगों को वह क्या सलाह देंगे? एलिसन कहते हैं, "पहली बात मैं उनसे कहूंगा कि मुमकिन है कि वे निराशा का अनुभव कर सकते हैं, जहां पता न हो कि कहां से शुरुआत करनी है।"
 
नई और चरम परिस्थितियों में फ़ैसले करने वालों को इस बात से चिढ़ हो सकती है कि उनसे नामुमकिन काम करने को कहा जा रहा है। "उनकी ऐसी भावनाएं सामान्य हैं- इसे समझने से उनका तनाव कम हो सकता है।"
 
ठहरिए, फिर सोचिए, फ़ैसले करने वालों के सामने शायद सबसे बड़ी चुनौती यह रहती है कि फ़ैसला कब किया जाए। फ़ैसले की रफ़्तार सुस्त हो तो घटनाएं आगे बढ़ जाती हैं। फ़ैसला बहुत तेज़ हो तो उतावलेपन का जोखिम रहता है।
 
तनाव भरे माहौल में
मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर एम्मा बैरेट कहती हैं, "तनाव भरे माहौल में लोग अक्सर ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उनके पास समय कम हो, जबकि ऐसा नहीं होता।" प्रोफ़ेसर बैरेट चरम स्थितियों के मनोविज्ञान की विशेषज्ञ हैं। उनके सहयोगी डॉ. नैथन स्मिथ इससे सहमति जताते हैं।
 
"हमने उन लोगों का इंटरव्यू किया है जिन्होंने सभी तरह की चरम स्थितियों का सामना किया है।" "हमने उनसे पूछा कि जब कोई सैन्य अभियान नाकाम हो जाए या बहुत ऊंची चोटी पर हिम स्खलन हो जाए तो वे किस तरह फ़ैसले करते हैं।" उनमें से लगभग सभी लोगों ने कहा कि अक्सर आप जितना सोचते हैं उससे ज़्यादा समय होता है। "आपके पास एक कदम पीछे खींचने का और कुछ पलों के लिए सोचने का मौका होता है ताकि आपके फ़ैसले भावनाओं से नियंत्रित न हों।
 
कॉग्निटिव टनेलिंग
बैरेट 1989 के केगवर्थ हादसे की याद दिलाती हैं जब एक यात्री विमान ब्रिटेन के लीसेस्टरशायर में मोटरवे के किनारे क्रैश हो गया था। विमान के दो इंजनों में से एक में ख़राबी आ गई थी। पायलट को जब इसका पता चला तो उन्होंने हड़बड़ी में उसे बंद करने की कोशिश की, मगर ग़लती से जो इंजन काम कर रहा था वही बंद हो गया।
 
बैरेट कहती हैं, "उन्होंने ख़तरे को देखकर तुरंत फ़ैसला किया जबकि उनके पास यह देखने का वक़्त था कि कौन सा इंजन ख़राब है जिसे बंद करने की ज़रूरत है।"
 
इसी से जुड़ी एक और प्रवृत्ति है। तनाव के हालात में फ़ैसले लेने वाले अपना ध्यान इतना केंद्रित कर लेते हैं कि अहम और नई जानकारियां उनसे छूट जाती हैं। इसे "कॉग्निटिव टनेलिंग" कहा जाता है।
 
2009 में एयर फ्रांस 447 अटलांटिक महासागर में क्रैश कर गया। गड़बड़ी के समय पायलट विमान के डैनों को बराबर करने में इतना खो गया कि वह नोटिस ही नहीं कर पाया कि जहाज ख़तरनाक कोण पर ऊपर जा रहा था। विमान हवा में रुक गया और गोते खाने लगा। विमान के अलार्म सिस्टम ने भी चेतावनी दी थी लेकिन पायलट समझ नहीं पाया कि क्या हो रहा था।
 
सबसे "कम ख़राब फ़ैसला"
इससे उल्टी स्थिति भी होती है जब फ़ैसला करने वाला इतनी गहराई से सोचता विचारता है कि उस पर अमल नहीं कर पाता। एलिसन इस स्थिति को "निर्णय जड़ता" कहते हैं जिसमें हर विकल्प ग़लत ही लगता है।
 
वो कहते हैं, "जब चीज़ें बुरी तरह बिगड़ जाती हैं तो आम तौर पर मसला यह नहीं होता कि फ़ैसला ख़राब था बल्कि होता यह है कि फ़ैसला लिया ही नहीं गया था। पुलिस और सेना अक्सर ऐसी स्थिति में पड़ती है जब उनके सामने उपलब्ध सारे विकल्प भयानक लगते हैं जिसमें वे कोई एक विकल्प नहीं चुनना चाहते।" फ़ैसला करने वाले पंगु हो सकते हैं। वे फ़ैसला ग़लत होने पर होने वाले अफसोस के बारे में सोचने लगते हैं।
 
एक सामान्य प्रतिक्रिया होती है कि वे बार-बार अधिक सूचना के लिए अनुरोध करते हैं, लेकिन इसमें समय गंवा देते हैं। वे उस बिंदु के पार चले जाते हैं जहां तक अतिरिक्त सूचना उन्हें सही फ़ैसला करने में मदद कर सकती है।
 
एलिसन का कहना है कि अच्छे लीडर को पता होता है कि अधिक देर करेंगे तो ज़्यादा नुकसान होगा, इसलिए वे "कम ख़राब फ़ैसला" करते हैं और यह मानकर चलते हैं कि "जो भी करेंगे वह ग़लत ही होने वाला है।"
 
नैथन स्मिथ पर्वतारोही सिमॉन येट्स के दर्दनाक फ़ैसले का हवाला देते हैं, जिसे फ़िल्म "टचिंग दि वॉयड" में दिखाया गया है। वह अपने घायल पर्वतारोही साथी जो सिम्पसन की रस्सी काट देते हैं, यह जानते हुए भी इससे सिम्पसन की जान जा सकती है। येट्स इस नतीजे पर पहुंचे थे कि अगर उन्होंने फ़ैसला नहीं लिया तो तय है कि दोनों की जान जाएगी (सिम्पसन आख़िर में बच जाते हैं)।
 
अपनी टीम की सुरक्षा
फ़ैसले लेने वाले वरिष्ठ लोगों को अपनी टीम के लिए मिसाल बनना होता है। बैरेट का कहना है कि नकारात्मक भावनाएं वायरस की तरह संक्रामक होती हैं। "भले ही आप चिंतित हों लेकिन नेता के रूप में आपको निश्चिंत व्यक्ति के रोल-मॉडल में रहना पड़ सकता है।" दबाव के क्षणों में नेताओं को टीम के सदस्यों की भावनात्मक स्थिति पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
 
ध्रुवीय अन्वेषक अर्नेस्ट शेकल्टन ने अंटार्कटिका में आपदा आने पर देखा कि टीम के कुछ लोगों की निराशा दल के दूसरों लोगों में फैल रही थी। उन्होंने टीम का मनोबल बनाए रखने के लिए निराश लोगों को अलग टेंट में रखने का फ़ैसला किया। इस तरह प्रभावी रूप से उनको सबसे अलग कर दिया। दबाव में निजी संबंधों में तनाव आ सकता है और इससे लोगों के बीच के टकराव पूरी तरह ख़त्म भी हो सकते हैं।
 
संकट की घड़ी में, कई बार सारे विकल्पों पर विचार किए बिना भी किसी एक फ़ैसले पर आम सहमति बन जाती है। ऐसी स्थिति में नेताओं को अपने साथियों को प्रोत्साहित करना चाहिए कि अगर वे ग़लत राह पर हों तो लोग बताएं और ज़रूरत होने पर बुरी ख़बर भी दें।
 
स्मिथ एनएचएस के नीति-निर्धारकों के साथ काम कर रहे हैं। उनका कहना है कि दबाव ज़्यादा होने पर संचार संक्षिप्त और स्पष्ट होना चाहिए। कम अनुभवी कर्मचारी, जैसे जूनियर डॉक्टरों को इसमें मुश्किल हो सकती है। वरिष्ठ कर्मचारियों को उन्हें इसके लिए तैयार करना चाहिए।
 
"लक्ष्य पर ध्यान दें"
योजना, अभ्यास और दिशानिर्देश ज़रूरी हैं, साथ में अनुकूलन की क्षमता भी। एलिसन की सलाह है कि फ़ैसले करने वालों को लक्ष्य पर ध्यान रखना चाहिए, न कि फ़ैसले पर। वह अमरीकी पुलिस अधिकारी स्टीफन रेडफर्न की मिसाल देते हैं। रेडफर्न 2012 में कोलोरेडो के ऑरोरा में सिनेमा के दौरान हुई गोलीबारी की जगह सबसे पहले पहुंचने वालों में से थे।
 
उन्होंने सिनेमा जाने वाले कई लोगों को बुरी तरह जख़्मी हालत में देखा। उनमें से कई बच्चे थे। घायलों को पुलिस की गाड़ी से भेजना नियमों के मुताबिक नहीं था, लेकिन एंबुलेंस को घटनास्थल तक पहुंचने में परेशानी हो रही थी।
 
रेडफर्न को पता था कि अगर उन्होंने कुछ नहीं किया तो कुछ घायलों की मौत हो जाएगी। उन्होंने घायल बच्चों को अपनी कार से स्थानीय अस्पतालों तक पहुंचाया।
 
एलिसन का कहना है कि रेडफर्न ने जो किया वह साहसी और सही फ़ैसला था। उन्होंने ज़िंदगियों को बचाने का लक्ष्य रखा।
 
एलिसन के मुताबिक अक्सर मौके पर मौजूद कर्मचारियों को अपने वरिष्ठों के मुकाबले हालात की बेहतर जानकारी होती है। उनको हालात संभालने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
 
रेडफर्न अब आपातकालीन सेवा के लोगों को प्रशिक्षित करते हैं। ऑरोरा की घटना के बाद वे लंबे समय तक भावनात्मक बोझ में रहे। उस रात उन्होंने जो फ़ैसले किए कि किसे बचाना है और किसे छोड़ देना है- इसे उनके मन से निकलने में कई साल लग गए।
 
जब कोरोना संकट ख़त्म हो जाएगा तो हम याद रखें कि जो लोग हमारी ओर से अहम फ़ैसले कर रहे हैं उनको इसका बोझ लंबे समय तक उठाना पड़ेगा।
 

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