निखिल इनामदार, बीबीसी न्यूज़
कोविड-19 से दुनिया भर में अब तक लाखों लोग संक्रमित हो चुके हैं। चीन को ये जंग दोहरे मोर्चे पर लड़नी पड़ रही है। एक तरफ तो कोरोना के खिलाफ़ जंग है, वहीं दूसरी तरफ़ उसे पूरी दुनिया के गुस्से से भी निबटना पड़ रहा है।
इस नाराज़गी की कीमत क्या उसे 'दुनिया की फैक्ट्री' का अपना दर्जा गंवाकर चुकानी पड़ेगी? चीन के खिलाफ दुनिया का खड़ा होना क्या भारत के लिए एक अवसर है?
चीन के पड़ोस में मौजूद भारत दुनिया के इस गुस्से को एक मौके की तरह देख रहा है। भारत को उम्मीद है कि चीन को जल्द ही दुनिया के मैन्युफैक्चरिंग हब की अपनी हैसियत से हाथ धोना पड़ेगा।
उत्तर प्रदेश की मुहिम
ऐसे में भारत दुनियाभर की कंपनियों को चीन से हटकर अपने यहां फैक्ट्रियां खोलने के लिए हर तरह से लुभाने की कोशिश कर रहा है।
एक हालिया इंटरव्यू में केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी कहा था कि चीन की कमजोर ग्लोबल हैसियत भारत के लिए एक आशीर्वाद की तरह से है जिसके जरिए भारत और ज्यादा निवेश हासिल कर सकता है।
उत्तर प्रदेश ने तो एक मुहिम जैसी छेड़ दी है। राज्य ने एक टास्क फ़ोर्स का गठन किया है जो कि चीन छोड़ने का मन बना रही कंपनियों को अपने यहां लाने की कोशिशें करेगा। उत्तर प्रदेश की आबादी ब्राज़ील जैसे एक मुल्क के बराबर है।
कंपनियों से संपर्क साध चुकी है सरकार
ब्लूमबर्ग के मुताबिक, चीन से अपनी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स हटाकर दूसरी जगह लगाने के बारे में सोच रही कंपनियों के लिए भारत लग्ज़मबर्ग के दोगुने आकार जिनता बड़ा लैंड पूल भी तैयार कर रहा है।
भारत अब तक 1,000 से ज्यादा अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से इस बाबत संपर्क भी कर चुका है।
भारत सरकार की राष्ट्रीय निवेश प्रोत्साहन एजेंसी इनवेस्ट इंडिया के चीफ़ एग्ज़िक्यूटिव (सीईओ) दीपक बागला ने बीबीसी को बताया, "कंपनियों से संपर्क करना, उनसे बातचीत और मुलाकात एक सतत प्रक्रिया है। कोविड ने केवल इस प्रक्रिया की रफ्तार को तेज कर दिया है क्योंकि इनमें से कई कंपनियां चीन में अपने जोखिम को कम करना चाहती हैं।"
यूएस-इंडिया बिजनेस काउंसिल (यूएसआईबीसी) एक ताकतवर लॉबी समूह है जो कि भारत और अमरीका के बीच आपसी निवेश को बढ़ाने के लिए काम करता है।
इस समूह ने भी कहा है कि भारत ने बड़े पैमाने पर चीन को बेदखल करने की मुहिम शुरू कर दी है।
रातों-रात शिफ्ट होना मुमकिन नहीं
यूएसआईबीसी की प्रेसिडेंट और अमरीकी विदेश विभाग में दक्षिण और मध्य एशिया मामलों की सहायक मंत्री रह चुकीं निशा बिश्वाल ने बीबीसी को बताया, "हम देख रहे हैं कि भारत केंद्र और राज्य सरकारों दोनों के स्तर पर सप्लाई चेन हासिल करने की कोशिशों को प्राथमिकता दे रहा है।"
उन्होंने कहा, "जिन कंपनियों की भारत में पहले से कुछ मैन्युफैक्चरिंग गतिविधियां मौजूद हैं वे चीन में अपने उत्पादन को कम करने और भारत में अपना कामकाज बढ़ाने की दिशा में पहले कदम उठा सकती हैं।"
वह कहती हैं कि लेकिन, इस मामले में चीजें अभी भी आकलन के स्तर पर ही हैं और हड़बड़ी में शायद ही कोई फैसले लिए जाएं।
ऐसे माहौल में जबकि ग्लोबल लेवल पर कंपनियों के कारोबार बुरी तरह से चरमरा गए हैं, उसमें पूरी सप्लाई चेन्स को एक जगह से उठाकर दूसरी जगह ले जाना इतना आसान काम नहीं है।
केवल लैंड बैंक खड़ा करने से नहीं चलेगा काम
अर्थशास्त्री रूपा सुब्रह्मण्या कहती हैं, "इनमें से कई कंपनियां महामारी के चलते नकदी और दूसरी पूंजीगत मुश्किलों का सामना कर रही हैं। इस वजह से ये कंपनियां जल्दबाजी में कोई भी फैसला लेने से पहले सतर्कता से विचार करेंगी।"
चीन मामलों पर नजर रखने वाले और हांगकांग में फ़ाइनेंशियल टाइम्स के पूर्व ब्यूरो चीफ़ राहुल जैकब के मुताबिक, भारत सरकार का लैंड बैंक तैयार करना सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन, बड़ी कंपनियां महज ज़मीन की उपलब्धता देखकर अपने कामकाज चीन से ले जाकर भारत शिफ़्ट नहीं करेंगी।
उन्होंने कहा, "प्रोडक्शन लाइंस और सप्लाई चेन्स ज्यादातर लोगों की समझ के मुकाबले कहीं जटिल चीजें हैं। रातों-रात इन्हें एक जगह से उठाकर दूसरी जगह मुमकिन नहीं है।"
वह कहते हैं, "चीन बड़े पोर्ट्स और हाइवे जैसे इंटीग्रेटेड इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराता है। इसके अलावा, वहां उच्च दर्जे की लेबर और अत्याधुनिक लॉजिस्टिक्स भी उपलब्ध है। अंतरराष्ट्रीय कंपनियां जिस तरह की सख्त समयसीमा वाले माहौल में काम करती हैं उसमें ये सुविधाएं अहम फैक्टर साबित होती हैं।"
स्वाभाविक कारोबारी ठिकाना
ग्लोबल मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए भारत के एक स्वाभाविक कारोबारी ठिकाना नहीं होने की एक वजह शायद भारत के बड़ी ग्लोबल सप्लाई चेन्स के साथ अच्छी तरह से जुड़े न होने की भी है।
पिछले साल भारत 12 अन्य एशियाई देशों के साथ एक अहम बहुपक्षीय व्यापार समझौते से बाहर निकल गया था। इसे क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) कहा जाता है। इस समझौते के लिए सात साल तक बातचीत जारी रही थी।
इस तरह के फ़ैसले भारतीय निर्यातकों को बिना टैरिफ़ वाले दूसरे बाज़ारों तक पहुंचने का फायदा उठाने या अपने कारोबारी सहयोगियों को इसी तरह के फ़ायदे ऑफर करने से रोकते हैं।
द फ़्यूचर इज एशियन के लेखक पराग खन्ना ने बीबीसी को बताया, "मैं कोई ऐसी चीज भारत में क्यों बनाऊंगा जिसे मैं सिंगापुर में बेचना चाहता हूं? संस्थानिक तौर पर व्यापार समझौतों से जुड़ा होना अच्छी कीमत पर माल ऑफर करने जितना ही अहम होता है।"
नियमों में स्थिरता का अभाव
पराग खन्ना मानते हैं कि क्षेत्रीय तौर पर जुड़ा होना खासतौर पर बेहद अहम होता है क्योंकि वैश्विक व्यापार अब 'जहां बनाएं, वहीं बेचें' वाले ट्रेंड पर चलना शुरू हो गया है। इस मॉडल में कंपनियां उत्पादन को 'आउटसोर्स' करने के बजाय 'नियर-सोर्स' करने लगी हैं। इस तरह से कंपनियां जहां मांग है वहीं चीजों के उत्पादन करने को तरजीह दे रही हैं।
भारत के उतार-चढ़ाव भर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ़डीआई) नियमों और असमान रेगुलेशंस की वजह से भी कंपनियां अपनी इकाइयां भारत लाने में हिचक रही हैं।
ई-कॉमर्स कंपनियों को गैर-जरूरी सामानों को बेचने से रोकने और एफ़डीआई नियमों में बदलाव कर पड़ोसी देशों से आने वाली आसान पूंजी पर पाबंदियां लगाने जैसे कदमों के साथ ऐसा माना जाने लगा है कि भारत इस महामारी का इस्तेमाल अपने इर्दगिर्द एक सुरक्षात्मक दीवार बनाने में कर रहा है।
देशवासियों के नाम अपने हालिया संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'बी वोकल फ़ॉर लोकल' का जोशीला नारा दिया।
तो अगर भारत नहीं तो कौन?
इसका मतलब है कि स्थानीय रूप से बनाए गए उत्पादों पर जोर दिया जाए। दूसरी ओर नए राहत पैकेज के प्रस्तावों में भारतीय ठेकों (कॉन्ट्रैक्ट्स या निविदाओं) के लिए बोली लगाने वाली विदेशी कंपनियों के लिए न्यूनतम सीमा को बढ़ा दिया गया है।
बिश्वाल कहती हैं, "भारत अपनी रेगुलेटरी स्थिरता में जितना ज्यादा सुधार करेगा, वैश्विक कंपनियों को अपने यहां कारोबार लगाने के लिए उत्साहित करने में उसके आसार उतने ही बढ़ जाएंगे।"
फिलहाल वियतनाम, बांग्लादेश, दक्षिण कोरिया और ताइवान को चीन के खिलाफ गुस्से का फ़ायदा मिलता दिख रहा है। जैकब बताते हैं कि दक्षिण कोरिया और ताइवान आधुनिक तकनीक के लिहाज से और वियतनाम और बांग्लादेश कम तकनीक में सबसे पसंदीदा हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन से हटाकर इन देशों में उत्पादन इकाइयां लगाना करीब एक दशक पहले शुरू कर दिया था। इसकी वजह बढ़ती लेबर और पर्यावरणीय लागत थी।
लेबर कानूनों में बदलाव क्या होंगे फायदेमंद?
कंपनियों के चीन से धीरे-धीरे हो रहे विस्थापन में हालिया सालों में यूएस-चीन व्यापार को लेकर पैदा हुए तनाव ने रफ़्तार पैदा कर दी है।
ट्रेड वॉर शुरू होने के एक महीने पहले यानी जून 2018 से ही वियतमान से अमरीका को सामानों का आयात 50 फीसदी से ज्यादा बढ़ गया है।
ताइवान से यूएस होने वाले इंपोर्ट में इसी दौरान 30 फीसदी इजाफा हुआ है। साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट न्यूजपेपर के आकलन से इसका पता चलता है।
भारत इस खेल में पिछड़ता दिख रहा है क्योंकि वह ऐसी स्थितियां पैदा करने में नाकाम रहा है जिनमें बहुराष्ट्रीय कंपनियां न केवल स्थानीय मार्केट में अपने माल की खपत कर सकें, बल्कि वे अपने माल को पूरी दुनिया में भेजने के लिए इसे एक प्रोडक्शन हब के तौर पर भी इस्तेमाल कर सकें।
हालिया हफ्तों में कई राज्यों ने ईज़ ऑफ़ डूइंग बिजनेस (कारोबार को आसान बनाने) के नियमों से जुड़ी चिंताओं को दूर करने की दिशा में कदम उठाने शुरू किए हैं।
कानूनों के जरिए
इनमें सबसे अहम भारत के पुराने वक्त के लेबर कानूनों में विवादित बदलाव शामिल हैं। इन कानूनों के जरिए मजदूरों के शोषण को रोकने के लिए प्रावधान किए गए थे।
मिसाल के तौर पर, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों ने मज़दूरों को सुरक्षा देने वाले कई अहम नियम निलंबित कर दिए हैं।
इन बदलावों में फैक्टरियों को साफ़-सफ़ाई, वेंटीलेशन, लाइटिंग और शौचालयों जैसी बेसिक जरूरतों को पूरा करने तक से छूट दे दी गई है।
इन बदलावों का मकसद निवेश के माहौल को बेहतर बनाना और विदेशी पूंजी को हासिल करना है। लेकिन, इस तरह के फैसले उलटे भी साबित हो सकते हैं और ये मदद करने की बजाय नुकसानदेह हो सकते हैं।
सेफ्टी स्टैंडर्ड को लेकर बेहद सख्त नियम
जैकब कहते हैं, "अंतरराष्ट्रीय कंपनियां इसे लेकर बेहद चिंतित हो सकती हैं। इनके सप्लायरों के लिए श्रम, पर्यावरण और सेफ्टी स्टैंडर्ड को लेकर बेहद सख्त नियम होते हैं।"
वह कहते हैं कि 2013 में बांग्लादेश की राणा प्लाज़ा गारमेंट फैक्टरी का जमींदोज होना इस दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ। इसकी वजह से बांग्लादेश ने फैक्टरी इंफ्रास्ट्रक्चर और सेफ्टी के लिए बड़े कदम उठाए ताकि वह विदेशी निवेश हासिल कर सके।
जैकब कहते हैं, "भारत को भी बेहतर स्टैंडर्ड अपनाने होंगे। ये ऐसे नौकरशाहों के पावरपॉइंट्स पर दिए जाने वाले खोखले आइडियाज होते हैं जिनका वैश्विक व्यापार की जमीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं है।"
भारत के सामने यही है मौका
लेकिन, अमरीका के चीन के ख़िलाफ़ सख्त रवैये को देखते हुए और जापान जिस तरह से अपनी कंपनियों को चीन से निकलने के लिए पैसे दे रहा है और जिस तरह से ब्रितानी सांसदों को चीनी टेलीकॉम दिग्गज हुआवेई को देश के नए 5जी डेटा नेटवर्क खड़ा करने की मंजूरी देने के लिए विरोध झेलना पड़ रहा है और उन पर इस फैसले पर दोबारा विचार करने का दबाव पड़ रहा है, उसके चलते पूरी दुनिया में चीन के विरोध में पैदा हुआ माहौल और मजबूत हो रहा है।
एक्सपर्ट्स का कहना है कि अब वह वक्त आ चुका है कि जबकि भारत को बड़े और व्यापक स्ट्रक्चरल रिफॉर्म करने चाहिए ताकि वह नई पैदा हुई भूराजनीतिक परिस्थितियों का इस्तेमाल दुनिया के साथ अपने कारोबारी रिश्ते में एक बड़ा बदलाव लाने में कर सके।