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'संविधान बचाने' की मुहिम में उतरी कांग्रेस का ट्रैक रिकॉर्ड भी बेदाग नहीं

हमें फॉलो करें 'संविधान बचाने' की मुहिम में उतरी कांग्रेस का ट्रैक रिकॉर्ड भी बेदाग नहीं
, सोमवार, 23 अप्रैल 2018 (12:41 IST)
- अभिजीत श्रीवास्तव
 
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने आज से दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम से राष्ट्रव्यापी 'संविधान बचाओ अभियान' की शुरुआत की है। इसका लक्ष्य भाजपा शासन के दौरान संविधान और दलितों के ऊपर हो रहे कथित हमले पर लोगों का ध्यान खींचना है। यह अभियान सभी राज्यों के सभी ज़िलों में चलाया जाएगा।
 
कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने बताया, "29 अप्रैल को दिल्ली में एक बहुत बड़ी रैली होगी। उसमें देशभर के तमाम कार्यकर्ता और नेता जुटेंगे। हम इस दौरान संविधान पर हो जो हमले हो रहे हैं और प्रजातंत्र पर जो ख़तरा दिख रहा है, उससे लोगों को अवगत कराएंगे।"
 
वो कहती हैं, "देश चलाने के लिए संविधान को सबसे पवित्र ग्रंथ माना जाता है। लेकिन जब से केंद्र में बीजेपी की सरकार आई है तब से जो भी संवैधानिक तौर तरीके हैं और सरकार चलाने का जो दायित्व है, न्यायपालिका, कार्यपालिका को सम्मान देने का जो दायित्व बनता है, वो नहीं निभाया जा रहा है।"
 
'कांग्रेस ने अपनी ग़लतियों से सीखा'
 
कांग्रेस संविधान बचाने की बात तो करती है, लेकिन उसके शासनकाल में भी संविधान की आत्मा को नकारते हुए कई काम किए गए हैं- यह पूछने पर प्रियंका चतुर्वेदी ने बीबीसी संवाददाता अनंत प्रकाश से कहा, "संविधान सबसे ऊपर होना चाहिए। जब-जब संविधान पर हमला हुआ है, जिसने भी ऐसा किया है उसे देश की जनता ने नकारा है। हम दूध के धुले नहीं हैं। लेकिन हम यह कहना चाहते हैं कि हमने अपनी ग़लतियों से सीखा है।"
 
वो कहती हैं, "वरिष्ठ जज बाहर आकर मीडिया में हमें बताते हैं कि क्या हो रहा है। आज जो माहौल बन रहा है अगर हम चुप रहे तो देश की जनता हमें माफ़ नहीं करेगी।"
 
'आज विपक्ष के पास मुद्दे हैं'
 
क्या आज संविधान के मुताबिक देश नहीं चल रहा? क्या देश की संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता आज सवालों के घेरे में है?
 
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं, "जहां तक संविधान बचाने की बात है तो ये बात सही है कि कांग्रेस ने जब देश में आपातकाल लगाया था तो उसने संविधान की आत्मा को ही नकार दिया था। इस पर देश में व्यापक बहस हो चुकी है। लेकिन आज के संदर्भ में इस विरोध को देखें तो इसका संदर्भ ये है कि भारतीय जनता पार्टी क़ानून निर्माताओं के इरादे के मुताबिक नहीं चल रही है। लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर समिति के गठन पर कांग्रेस के नुमाइंदे को बुलाया जा रहा है और वो नहीं जा रहे हैं जिसके चलते लोकायुक्त नहीं बन पा रहा है।"
 
वो कहते हैं, "संसद में जिस तरह से विपक्ष को अपनी बात कहने का मौका दिया जाना चाहिए वो नहीं दिया जा रहा है। पिछले सत्र में विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाया। इस पर स्पीकर ने कहा कि जब तक सदन में पूरी तरह से शांति नहीं होगी वो इसे नहीं लेंगी, लेकिन उसी सदन में उससे कुछ दिन पहले शोर शराबे के बीच वित्त विधेयक केवल 30 मिनट में पास हो गया। आज के दिन विपक्ष के पास मुद्दे हैं जिस पर देश को विचार करना होगा।"
 
भाजपा पर सवालिया निशान
 
गुजरात हिंसा से जुड़े मामले, समझौता एक्सप्रेस, हैदराबाद के मक्का मस्जिद और मालेगांव बम धमाके में सबूतों के अभाव में कोर्ट ने एक-एक कर कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा, स्वामी असीमानंद और गुजरात की पूर्व मंत्री माया कोडनानी को दोषमुक्त कर दिया है।
 
विनोद शर्मा कहते हैं, "आज के दिन हमारे देश में यह बहस चल रही है कि क्या अदालतों को स्वतंत्रता से काम करने दिया जा रहा है। पूरे सम्मान के साथ मैं यह कहना चाहता हूं कि अगर ऐसा है तो फिर दोषमुक्ति का मेला क्यों लगा हुआ है। जो एक विचार से सम्बंध रखते हैं और उनके ख़िलाफ़ केस हैं वो बरी हो रहे हैं और जो विपक्ष के विचार से जुड़े हुए हैं उनके ख़िलाफ़ केस बन रहे हैं।
 
कांग्रेस ने संविधान को बदलना चाहा
 
आखिर आज़ादी के बाद कांग्रेस ने अपने शासनकाल के दौरान कब-कब संविधानिक मूल्यों को दरकिनार करते हुए सत्ता में बने रहने का प्रयास किया। 1975 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक याचिका के तहत इंदिरा गांधी को छह साल के लिए चुनाव लड़ने से रोक दिया था। इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ कोर्ट ने ग़लत तरीके से चुनाव जीतने के मामले में फ़ैसला सुनाया था।
 
इंदिरा को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए 14 दिन का वक़्त दिया गया था। लेकिन इंदिरा गांधी ने अपने पद से इस्तीफ़ा देने के बजाय आपातकाल की घोषणा करवा दी और सत्ता की बागडोर सीधे अपने हाथों में ले ली थी। बिना किसी अदालती कार्यवाही के संसद से विपक्षी सदस्यों को हिरासत में ले लिया गया। एक लाख से ज़्यादा लोगों को जेल में डाल दिया गया था।
 
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, "जब कोई राजनीतिक दल सत्ता में होता है तो उसकी सोच अलग होती है और जब वो विपक्ष में होता है तो उसकी भूमिका अलग हो जाती है। कांग्रेस के सत्ताकाल में भारत के संविधान में तरह-तरह के छेड़छाड़ किए गए, कुछ में वो कामयाब रही कुछ में नाकामयाब। इसमें सबसे बड़ा संदर्भ इमरजेंसी यानी आपातकाल का है। इसमें इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर टिप्पणी की थी और उन्हें हटने को कहा था। कांग्रेस ने संसद की अवधि भी पांच से बढ़ा कर छह साल कर दी और संविधान में बदलाव का प्रस्ताव लाया गया था जिसमें इंदिरा गांधी को ताउम्र प्रधानमंत्री बनाने और न्यायपालिका को सरकार की नीतियों के साथ चलने का प्रस्ताव लाया गया था। कांग्रेस ने बहुत-सी ऐसी चीज़ें की जो सत्ता में रहते हुए संविधान के अनुकूल नहीं थीं और बाद में उसे अपने कदम खींचने पड़े थे।"
 
राष्ट्रपति शासन का दुरुपयोग
 
धारा 356 के तहत राष्ट्रपति शासन संवैधानिक अधिकारों के दायरे में आता है, लेकिन कांग्रेस का राष्ट्रपति शासन लगाने का लंबा इतिहास रहा है। देश में अब तक 124 बार राष्ट्रपति शासन लगाए गए हैं, इनमें से आठ बार जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री काल में लगाया गया तो इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 50 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया। 1980 में केवल तीन दिनों के भीतर ही नौ राज्यों में बहुमत वाली सरकारों को बर्खास्त किया गया था।
 
रशीद किदवई कहते हैं, "कांग्रेस ने राष्ट्रपति शासन लगाने की धारा 356 को खिलौना बना लिया। जब भी उनको मुख्यमंत्री पसंद नहीं आता तो उन्होंने उसे हटा दिया। फारुक अब्दुल्ला सरकार हटाई गई। एन। टी। रामाराव सरकार को बर्खास्त किया गया। उस दौरान कांग्रेस ने संविधान का कोई ख्याल नहीं रखा। कांग्रेस ने अपने शासनकाल में संविधान की भावना के ख़िलाफ़ बहुत बार काम किया।"
 
विनोद शर्मा कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी का संविधान को बचाने का अपना ट्रैक रिकॉर्ड बेदाग नहीं है।
 
वो कहते हैं, "1957 में कम्युनिस्टों ने पहली बार केरल में विधानसभा चुनाव जीता था। ये पहला मौक़ा था जब दुनिया में कोई भी कम्युनिस्ट सरकार मतदान से चुनकर सत्ता में आई थीं। ईएमएस नंबूदरीपाद वहाँ के मुख्यमंत्री बने। लेकिन केवल दो साल बाद ही केंद्र की सत्ता में बैठी कांग्रेस ने उन्हें बर्ख़ास्त कर दिया। लेकिन ये बात पचास के दशक की है। राष्ट्रपति शासन लगाना असंवैधानिक नहीं, लेकिन लोकतंत्र की आस्था के ख़िलाफ़ है।"
 
महाभियोग का मसला
चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव के लिए नोटिस देने वाली कांग्रेस ने 25 साल पहले सत्ता में रहते हुए ऐसी ही कार्यवाही का विरोध किया था।
 
कांग्रेस के शासन काल के दौरान ऐसे तीन मौके आए जब महाभियोग प्रस्ताव लाए गए थे। जब पहली बार सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति वी रामास्वामी पर मई 1993 में महाभियोग चलाया गया था तो वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में कपिल सिब्बल ने ही लोकसभा में बनाई गई विशेष बार से उनका बचाव किया था। तब केंद्र में पी। वी। नरसिंह राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार सत्तारूढ़ थी।
 
इसी तरह जब 2009 में कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस पी डी दिनाकरन पर महाभियोग चलाने को लेकर राज्‍यसभा के 75 सांसदों ने सभापति हामिद अंसारी को पत्र सौंपा तो केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी।
 
इसके अलावा जब 2011 में कोलकाता हाई कोर्ट के जज सौमित्र सेन के ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था तब भी केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस की ही सरकार थी। हालांकि पद से हटाने के लिए संसद में कार्यवाही शुरू होने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया था।
 
कांग्रेस के पास तथ्य क्या हैं?
रशीद किदवई कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के महाभियोग के मामले में क़ानूनी और राजनीतिक पहलू होता है। संविधान सरकारों से बड़ा है, उसकी मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए। कांग्रेस के भीतर जो वकील हैं वो अपनी प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रहे हैं। चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट को लेकर उनका अपना आकलन है। दूसरे कांग्रेस की राजनीतिक रणनीति को पूरी तरह ध्यान में नहीं लिया जा रहा है।"
 
वो कहते हैं, "राहुल गांधी में अनुभव की कमी है। अच्छा होता यदि वो पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बातचीत करके कांग्रेस का स्टैंड तय करते। कांग्रेस को तथ्यों के आधार पर यह बताना होगा कि उसकी इस राजनीतिक पहल के पीछे क्या तर्क है, क्या सोच है। क्या उसके पास महाभियोग के लिए पर्याप्त संख्याबल है। इसका उसे जवाब देना होगा।"
 
हालांकि वो कहते हैं कि, "कांग्रेस ने संविधान के साथ छेड़छाड़ की तो उसे उसके परिणाम भुगतने पड़े। इंदिरा गांधी चुनाव हारीं और उसके बाद भी कांग्रेस चुनाव हारती रही है। कांग्रेस ने ग़लत किया था इसका मतलब ये नहीं है कि आज की सरकार भी ग़लत करे।"

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