-अभिजीत कांबले (बीबीसी संवाददाता)
बीते 40 वर्षों में देवेन्द्र फडणवीस महाराष्ट्र के ऐसे पहले मुख्यमंत्री रहे जिन्होंने अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया है और अब वो एक बार फिर प्रदेश की कमान अपने हाथ में ले चुके हैं। देवेन्द्र फडणवीस कैसे महाराष्ट्र की राजनीति के शिखर तक पहुंचे? कैसी रही है उनकी राजनीति? क्या उन्होंने पार्टी के भीतर मुख्यमंत्री के पद को लेकर प्रतिद्वंद्विता को खत्म कर दिया है? अगले 5 सालों में उनके सामने कौन-कौन-सी चुनौतियां होंगी? चलिए इन्हीं सभी सवालों का जवाब जानने की कोशिश करते हैं।
बात 29 जुलाई 2014 की है। एनसीपी प्रमुख शरद पवार के बरामती चुनाव क्षेत्र में धनगर समुदाय के लोगों ने खुद को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग को लेकर धरना दिया। तब बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे देवेन्द्र फडणवीस वहां पहुंचे और इस मसले को हल किया।
उन्होंने वादा किया कि जब बीजेपी सत्ता में आएगी तब कैबिनेट की पहली ही बैठक में धनगर समुदाय के आरक्षण का मुद्दा लिया जाएगा। 5 साल बीत गए लेकिन न केवल धनगर समुदाय के आरक्षण का मुद्दा आज भी लंबित है बल्कि विधानसभा में इसे प्रमुखता से भी नहीं उठाया गया। इस दौरान धनगर समुदाय के एक प्रमुख नेता गोपीनाथ पडलकर बीजेपी में शामिल हो गए और बारामती में अजित पवार के ख़िलाफ़ चुनाव लड़े।
यह उन उदाहरणों में से एक है जिसके बूते बीते 5 वर्षों के दौरान देवेन्द्र फडणवीस ने कुछ इस तरह की कूटनीतिक महारथ से राज्य की राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत बनाई है।
90 के दशक में राजनीति में प्रवेश करने वाले फडणवीस का परिवार पहले से ही राजनीति में था। उनके पिता जनसंघ के नेता थे और उनकी चाची शोभा फडणवीस बीजेपी-शिवसेना की पहली सरकार में मंत्री थीं। 90 के दशक में वे नागपुर के मेयर थे और पहली बार 1999 में राज्य विधानसभा के लिए चुने गए। दिलचस्प यह है कि मुख्यमंत्री बनने से पहले उनका प्रशासनिक अनुभव मेयर के पद तक ही सीमित था। इससे पहले वे कभी किसी मंत्री के पद पर भी नहीं रहे।
जब देवेन्द्र फडणवीस ने नागपुर से अपनी राजनीतिक पारी शुरू की, तब पूरे विदर्भ और नागपुर में अकेले बीजेपी नेता नितिन गडकरी ही थे। फडणवीस ने गडकरी के मार्गदर्शन में ही अपना राजनीतिक सफ़र शुरू किया। बाद में जैसे-जैसे बीजेपी के अंदरुनी समीकरण बदलने लगे, वैसे-वैसे फडणवीस ने गडकरी से खुद को दूर कर लिया और पार्टी में उनके विरोधी माने जाने वाले गोपीनाथ मुंडे का हाथ थाम लिया। इस नजदीकी की बदौलत फडणवीस राज्य में पार्टी के प्रमुख के पद तक पहुंचने में कामयाब हुए।
फडणवीस मुख्यमंत्री कैसे बने?
मुख्यमंत्री का पद पाने में फडणवीस के लिए पार्टी प्रमुख का पद बहुत अहम साबित हुआ। उनके ही नेतृत्व में बीजेपी राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनी लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं रहा। संघ की विचारधारा में ढले फडणवीस में आरएसएस बहुत विश्वास रखता है। इसके अलावा लोकसभा चुनाव 2014 में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी की केंद्र में सरकार बनी, जो गडकरी के माकूल नहीं था।
अन्य राज्यों में बीजेपी की रणनीति अल्पसंख्यक समुदाय से मुख्यमंत्री बनाने की रही न कि बहुसंख्यक वर्ग से। हरियाणा में गैर जाट मनोहरलाल खट्टर, झारखंड में गैरआदिवासी रघुबर दास और महाराष्ट्र में गैरमराठा देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया गया। इसका फायदा यह हुआ कि महाराष्ट्र में बीजेपी को गैर मराठाओं का समर्थन मिला।
मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद देवेन्द्र फडणवीस ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली को अपनाया। महाराष्ट्र के राजनीतिक इतिहास में बहुत कम ही राजनेता ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपना मुख्यमंत्री का कार्यकाल पूरा किया हो। फडणवीस के सामने भी ऐसी संकट की स्थिति पैदा हुई लेकिन उन्होंने न केवल अंदरुनी प्रतिद्वंद्विता को काबू किया बल्कि गठबंधन की सहयोगी शिवसेना से उपजी प्रतिकूल परिस्थितियों का भी बखूबी सामना किया।
कैसे पार्टी के अंदर प्रतिद्वंद्वियों पर काबू पाया?
फडणवीस को अपनी पार्टी के अंदर ही प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ा। नितिन गडकरी, एकनाथ खड़से, पंकजा मुंडे, विनोद तावड़े और चंद्रकांत पाटिल सरीखे नेताओं को फडणवीस का मुख्य प्रतिद्वंद्वी माना गया। इनमें से गडकरी को केंद्र में अहम पद दिया गया ताकि स्वभाविक रूप से राज्य की राजनीति में उनका कद कम हो जाए।
दूसरी तरफ, एकनाथ खड़से, पंकजा मुंडे और विनोद तावड़े जैसे नेताओं को राज्य में मंत्री का पद तो दिया गया लेकिन समय-समय पर उनके सामने परेशानियां आती रहीं और वे विवादों में घिरते गए। खड़से पर भ्रष्टाचार का आरोप था, लिहाजा उन्हें अपना मंत्री पद खोना पड़ा। बाद में न तो उन्हें कभी कैबिनेट में लिया गया और न ही इस चुनाव में उन्हें टिकट ही दी गई।
विनोद तावड़े फर्जी डिग्री और स्कूल के लिए सामानों की ख़रीद में अनियमितता की वजह से मुश्किलों में पड़ गए, वहीं पंकजा मुंडे पर भी चिक्की ख़रीद मामले में आरोप लगा। इन सभी मामलों का सीधा राजनीतिक लाभ फडणवीस को मिला।
उन्होंने कुछ वैकल्पिक नेताओं को मजबूत बनाया ताकि ऊपर बताए गए सभी नेताओं के लिए अब आगे आना मुश्किल हो। वे खड़से की जगह गिरीश महाजन को तो विनोद तावड़े की जगह वे आशीष शेलार को लाए।
लेकिन फडणवीस को अब भी चंद्रकांत पाटिल से चुनौती मिलती रही। पाटिल राज्य की कैबिनेट में नंबर 2 पर रहे हैं और केंद्रीय नेतृत्व से भी उनके अच्छे संबंध हैं। उन्हें अमित शाह के वफादार के रूप में जाना जाता है। उनके पास मराठा होने का लाभ भी है, लिहाजा आने वाले वक्त में चंद्रकांत पाटिल फडणवीस के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी हो सकते हैं। दूसरी ओर खड़से और तावड़े के साथ जो हुआ, उसे देखते हुए पार्टी के अंदर अन्य विरोधी एकजुट होकर फडणवीस के ख़िलाफ़ सामने आ सकते हैं।
शिवसेना की चुनौती
चुनाव नतीजों के बाद शिवसेना के साथ बीजेपी के संबंध खट्टे हो गए, मगर फडणवीस ने अपने पहले कार्यकाल में शिवसेना को साथ रखा था। हालांकि उन्होंने शिवसेना को मंत्रिमंडल में कोई ख़ास महत्वपूर्ण विभाग नहीं दिया लेकिन वे गठबंधन में उसे बनाए रखने में कामयाब रहे। मुंबई नगरपालिका चुनावों में बीजेपी को मिली भारी सफलता इसका परिचायक है। कई ऐसी वजहें हैं जिससे वे शिवसेना को गठबंधन में बनाए रखने में कामयाब हुए और कम सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए राजी भी कर सके।
मराठा समुदाय की चुनौतियों का सामना कैसे किया?
फडणवीस के सामने एक और बड़ी चुनौती महाराष्ट्र की राजनीति में मराठा वर्चस्व का सामना और इस समुदाय का समर्थन प्राप्त करना था। मराठा आरक्षण की मांग को लेकर वे सड़कों पर उतर गए और राज्यभर में बड़ी-बड़ी रैलियों का आयोजन किया। इससे फडणवीस को परेशानियों का सामना करना पड़ सकता था लेकिन फडणवीस ने मराठा समुदाय को आरक्षण देने की घोषणा करके इस चुनौती को भी सफलतापूर्वक पार कर लिया।
'कारवां' मैग्जीन में देवेन्द्र फडणवीस पर एक लेख लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अनोश मालेकर मराठा समुदाय से फडणवीस के रिश्तों का आकलन करते हुए कहते हैं कि मराठा वोटों में 1995 में ही विभाजन हो गया था। देवेन्द्र फडणवीस सूझबूझ से सफलतापूर्वक अपने हक़ में इसका इस्तेमाल करते हुए मुख्यमंत्री के पद तक पहुंच गए।
वे कहते हैं कि जब पृथ्वीराज चव्हाण ने मुख्यमंत्री का पद संभाला तो मराठा समुदाय के बीच दरार ने राजनीतिक रुख ले लिया और समुदाय के सदस्य कांग्रेस और एनसीपी के बीच विभाजित हो गए। 2014 में सत्ता में आने के बाद इस फडणवीस को इस विभाजन से लाभ मिला। 2010 और 2014 के दरमियान कुछ मराठा नेताओं को वे अपने पक्ष में करने में कामयाब रहे।
मालेकर इसके बाद कहते हैं कि बीजेपी नेता टीवी के जरिए लोगों के सामने अपनी छवि बनाने में मामले में बहुत चतुर हैं। इसी रणनीति को अपनाते हुए 2016 में छत्रपति संभाजीराजे को बीजेपी में लाया गया। नतीजतन, मराठा समुदाय के सदस्य जो अब तक सरकार के विरोध में खड़े थे, असमंजस में पड़ गए। इसके बाद भी कई मराठा नेताओं को बीजेपी के पाले में लाकर उनके गुस्से को शांत किया गया।
वे कहते हैं कि 'फडणवीस का ख़ुफ़िया तंत्र भी बहुत मजबूत है। उन्हें इस बात की सही-सही जानकारी मिल जाती है कि कौन उनका विरोध कर रहा है और पार्टी में दरार पैदा करने की कोशिश कर रहा है? वे किसान आंदोलन और मराठा आंदोलनों से ऐसे ही निबटे। लिहाजा अब तक कोई भी उनके ख़िलाफ़ पूरी तन्मयता से बड़े पैमाने पर खड़ा नहीं हो सका है।'
मालेकर कहते हैं कि कि भले ही फडणवीस ने मराठा आंदोलन या पार्टी की अंदरुनी समस्याओं से निबट लिया हो लेकिन पश्चिम महाराष्ट्र के मराठा नेताओं में असंतोष है। पार्टी को उसे निपटाना है। आमतौर पर चीनी और शिक्षा क्षेत्र के ये बड़े उद्योपति किसी की नहीं सुनते, लिहाजा यह फडणवीस के सामने एक बड़ी चुनौती की तरह है।
इसके अलावा फडणवीस के सामने अगले 5 वर्षों के दौरान नौकरियों के सृजन की समस्या भी विकराल होगी। मराठा आरक्षण पर तो मुहर लगा दी गई है लेकिन अब उनकी महत्वकांक्षा को पूरा करना फडणवीस के लिए बड़ी चुनौती होगी।
मीडिया-प्रेमी या मीडिया-नियंत्रक?
माना जाता है कि फडणवीस को मीडिया की अच्छी समझ है लेकिन अब यह भी सवाल उठा है कि क्या वे मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं?
'हफिंगटन पोस्ट' के पवन दहात कहते हैं कि देवेन्द्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री बनने से पहले और उसके बाद मीडिया का बहुत ही चतुराई से इस्तेमाल किया। सबसे महत्वपूर्ण बात, उन्होंने पत्रकारों के बीच अपने हमदर्द पैदा कर लिए हैं। उन्हें मुंबई में 'लश्कर-ए-देवेन्द्र' कहा जाता है। वे एक तरह से बीजेपी के प्रवक्ताओं की तरह काम करते हैं। वे बहुत बेहतरीन तरीके से सरकार का समर्थन करते हैं। मीडिया के जरिए सरकार की सकारात्मक छवि कैसे बनाई जाए और नकारात्मक कवरेज से कैसे बचा जाए, इसमें फडणवीस को महारथ हासिल है। हालांकि मीडिया के लिए यह अच्छा नहीं है।
वे कहते हैं कि मीडियाकर्मियों के इस्तेमाल की यह रणनीति उन्हें राजनीति में बहुत मदद पहुंचाती है। अगर मीडिया पर नियंत्रण है तो सही ख़बरें लोगों तक कभी नहीं पहुंच सकतीं। उदाहरण के लिए सरकार कहती है कि उनके कार्यकाल में कोई घोटाला नहीं हुआ, भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं लगे। लेकिन बीते 5 वर्षों के दौरान सरकार पर कई आरोप लगे हैं। एकनाथ खडसे, प्रकाश मेहता को इन्हीं वजहों से मंत्री पद छोड़ना पड़ा, लेकिन मीडिया के प्रबंधन से सरकार की गैर-भ्रष्ट छवि बनाई गई।
हालांकि राज्य में बीजेपी के प्रवक्ता केशव उपाध्ये ने बताया कि मुख्यमंत्री बेहद क्षमतावान हैं। दिन में 17-18 घंटे काम करते हैं। ऐसे मुख्यमंत्री की छवि तो पॉजीटिव ही रहेगी, इसलिए ये कहना गलत होगा कि मुख्यमंत्री मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं।
वहीं 'लोकमत' समूह के वरिष्ठ पत्रकार यदु जोशी मानते हैं कि मुख्यमंत्री के तौर पर देवेन्द्र फडणवीस कुशल प्रशासक बनकर उभरे हैं और इसकी वजह उनकी पारदर्शिता रही है। लेकिन यदु जोशी यह भी कहते हैं कि देवेन्द्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री बनने के बाद छवि को दुरुस्त रखने में सोशल मीडिया का भी बहुत सोच-समझकर बखूबी इस्तेमाल किया है।
अब आगे कौन-कौन-सी चुनौतियां हैं?
भले ही देवेन्द्र फडणवीस अगले 5 वर्षों के लिए एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे जाएं लेकिन इस बार चुनौतियां और भी गंभीर हो सकती हैं। सबसे पहली चुनौती तो होगी मराठा युवाओं को रोज़गार देना, फिर राज्य में बेरोज़गारी की समस्या से निबटना होगा। सरकार को राज्य में आर्थिक सुस्ती से भी जूझना होगा, वहीं धनगर समुदाय को आरक्षण को लेकर भी कुछ फ़ैसले करने होंगे। किसानों के बीच विश्वास पैदा करने के लिए उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी और इन सब पर अगले 5 वर्षों में नतीजे देने होंगे।
इसके अलावा कई अधूरी परियोजनाएं पूरी करनी होंगी और इन सभी चुनौतियों से पार पाने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। इन सबके साथ उन्हें बढ़ी हुई ताक़त वाली शिवसेना के दबाव और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के विरोध का सामना भी करना पड़ेगा।