अभिमन्यु कुमार साहा, बीबीसी संवाददाता
बेगूसराय में कौन जीतेगा? इस पर खूब चर्चा हो रही है, खासकर राष्ट्रीय मीडिया में। चुनावी लड़ाई भाजपा उम्मीदवार गिरिराज सिंह और सीपीआई उम्मीदवार कन्हैया कुमार के बीच दिखाई जा रही है, वहीं गठबंधन की तरफ से राजद उम्मीदवार तनवीर हसन पूरी तरह से मीडिया कवरेज से गायब हैं।
2014 के लोकसभा चुनावों में बेगूसराय की सीट भाजपा के खाते में गई थी। भाजपा के भोला सिंह को करीब 4.28 लाख वोट मिले थे, वहीं राजद के तनवीर हसन को 3.70 लाख वोट मिले थे। दोनों में करीब 58 हजार वोटों का अंतर था, वहीं सीपीआई के राजेंद्र प्रसाद सिंह को करीब 1.92 लाख वोट ही मिले थे। ये आंकड़े तब थे, जब कथित रूप से देश में चुनावों के दौरान मोदी लहर थी और तनवीर हसन विजयी उम्मीदवार से महज 58 हजार वोट पीछे थे।
मीडिया का प्रोपेगेंडा?
तो क्या कन्हैया कुमार के आ जाने से पिछले चुनावों में भाजपा को कड़ी टक्कर देने वाले तनवीर फाइट से बाहर हो गए हैं? इस सवाल पर बेगूसराय के वरिष्ठ पत्रकार कुमार भावेश कहते हैं कि इसे आप राष्ट्रीय मीडिया का प्रोपेगेंडा कह सकते हैं। कन्हैया को वोट कौन देगा, इस पर कोई बात नहीं कर रहा है। सिर्फ उन्हें फाइट में दिखाया जा रहा है।
जाहिर-सी बात है कि सीपीआई के कैडर उन्हें वोट करेंगे, उसके अलावा उनका जनाधार क्या है? जबकि भाजपा और गठबंधन का तय वोटबैंक है। वो कहते हैं कि कन्हैया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने भाषणों में घेरते हैं। वो अच्छा बोलते हैं। दूसरी तरफ गिरिराज सिंह के बयानों को भी मीडिया में जगह मिलती है, वहीं तनवीर हसन राष्ट्रीय फलक पर चर्चित चेहरा नहीं है। यही कारण है कि दिल्ली की मीडिया उन्हें देख नहीं पाती है।
कुमार भावेश कहते हैं कि राष्ट्रीय मीडिया चुनाव को 2 चर्चित चेहरों के बीच का मान रही है जबकि ऐसा नहीं है। जितनी संख्या में कन्हैया कुमार के रोड शो में भीड़ उमड़ी थी, उससे कम तनवीर हसन के नामांकन के वक्त भीड़ नहीं थी, लगभग बराबर कह सकते हैं। हां, कन्हैया के रोड शो में चर्चित चेहरे आए थे जिसने मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा।
राष्ट्रीय मीडिया में क्यों छाए हैं कन्हैया?
वहीं स्थानीय अखबार 'प्रभात खबर' के संपादक अजय कुमार भी गिरिराज बनाम कन्हैया की लड़ाई को मीडिया की उपज मानते हैं। वो कहते हैं कि कन्हैया फाइट में हैं या नहीं है, यह परिणाम से तय होगा। परेशानी यह है कि मीडिया ने अपना एक मिजाज बना लिया है कि बेगूसराय में अगर कन्हैया हैं, तो कन्हैया ही मुकाबले में हैं।
कन्हैया का पूरा एजेंडा मौजूदा सरकार और व्यवस्था के खिलाफ है। वो मुखर होकर सरकार पर हमला भी बोल रहे हैं इसलिए वो मीडिया के दिलोदिमाग पर छाए हैं। अजय कुमार कहते हैं कि बेगूसराय की लड़ाई वोट और सामाजिक व्यवस्था के आधार पर देखेंगे तो मुकाबला तिकोना होने जा रहा है।
जहां भी रिपोर्ट छप रही है, बात कन्हैया की हो रही है। कन्हैया चुनावी संग्राम में ताजे झोंके की तरह हैं, जो नई राजनीति की बात कर रहे हैं। वो मोदी को चुनौती देने की बात कर रहे हैं और यही वजह है कि यह राष्ट्रीय मीडिया को लुभा रही है।
पिछले रिकॉर्ड को देखेंगे तो तनवीर हसन का जनाधार मजबूत है। वो फाइट में भी हैं। 2014 के चुनाव भाजपा के भोला सिंह जीते थे और तनवीर हसन दूसरे नंबर पर रहे थे। वोटों का अंतर करीब 58 हजार था, ऐसे में उन्हें सीन से गायब समझना गलत है।
जमीनी पकड़
राजनीति पर नजर रखने वाले अभी तक की स्थितियों के मुताबिक लड़ाई को त्रिकोणीय बता रहे हैं- गिरिराज सिंह बनाम तनवीर हसन बनाम कन्हैया। वो यह भी मान रहे हैं कि अंतिम लड़ाई 'मोदी बनाम एंटीमोदी' की ही होगी। वरिष्ठ पत्रकार कुमार भावेश कहते हैं कि बेगूसराय की लड़ाई मोदी बनाम एंटीमोदी की होगी। ऐसे में जनता के पास मोदी के खिलाफ जाने के 2 विकल्प होंगे- पहला राजद उम्मीदवार और दूसरा कन्हैया।
राजनीति में तनवीर हसन की जमीनी पकड़ पुरानी है और कन्हैया अभी इस क्षेत्र में नए-नए हैं। बिहार में महागठबंधन के बनने के बाद जातीय समीकरण के मामले में तनवीर हसन कहीं आगे हैं। कन्हैया अपने भाषणों में सभी जातियों को लेकर चलने की बात करते हैं जिसमें अगड़े भी शामिल हैं और पिछड़े भी। वो जय भीम के नारे भी लगाते हैं। उन्होंने अपने रोड शो में मुस्लिम चेहरों को जगह दी थी।
ऐसे में क्या कन्हैया तनवीर हसन के वोट बैंक में सेंधमारी कर पाएंगे? इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार कहते हैं कि इस सप्ताह बिहार की 4 सीटों पर जो मतदान हुए हैं, उसमें जातिगत रुझान देखने को मिले हैं। बेगूसराय में भी ऐसा ही देखने को मिल सकता है। कन्हैया इसे बहुत तोड़ पाएंगे, यह कहना मुश्किल है।
वहीं कुमार भावेश भी मानते हैं कि बिहार में जाति के आधार पर वोट डाले जाते हैं। यहां के वोटर किसी की विचारधारा, किसी के भाषण या किसी के कहने से प्रभावित नहीं होते हैं। अगर होते भी हैं तो उनकी संख्या बहुत कम होती, जो जीत-हार को प्रभावित नहीं कर पाती।
मुस्लिम वोटर किसकी तरफ?
पिछले चुनाव में सीपीआई को 1.92 लाख वोट मिले थे। क्या कन्हैया के आने से यह आंकड़ा सीधे 5 लाख पार कर जाएगा और वो जीत दर्ज कर पाएंगे? इस सवाल पर कुमार भावेश कहते हैं कि ऐसा कभी संभव नहीं है। आखिर इतने वोट कहां से आएंगे? भूमिहार वोट बैंक केवल विचारधारा और विकास के मुद्दे पर बात करने से खिसक जाएगा, ऐसा भी नहीं है। बिहार में ऐसा ट्रेंड कभी नहीं रहा है और न ही बेगूसराय में।
अभी तक बेगूसराय से 16 सांसद रहे हैं और उसमें से 15 भूमिहार जाति से रहे हैं। केवल 1 सांसद मुस्लिम समुदाय से रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि कन्हैया मुस्लिम वोटरों को साधने में कामयाब होंगे, क्योंकि वो मोदी विरोध की सशक्त आवाज हैं।
इस पर कुमार भावेश कहते हैं कि इस पर संदेह है कि मुस्लिम वोटर कन्हैया के साथ जाएंगे या नहीं और यह तय होगा चुनाव से पहले आखिरी जुम्मे की नमाज को। लड़ाई मोदी बनाम एंटीमोदी की होगी, ऐसे में जिसका पलड़ा भारी होगा, मोदी विरोध वोट उधर ही जाएगा।