बीए की छात्रा अनु तालुकदार पिछले हफ़्ते तक पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना की सरकार के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शनों में शामिल थीं। उस वक़्त अनु को महसूस नहीं हो रहा था कि वो दूसरे छात्रों से अलग हैं लेकिन अब उनका कहना है कि आज उन्हें अपने अलग होने का अहसास हो रहा है।
राजधानी ढाका के मशहूर ढाकेश्वरी मंदिर में बीबीसी से अनु तालुकदार ने कहा कि हम बहुत असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। हमें पहले ऐसा नहीं लगा था, न ही विरोध प्रदर्शनों के दौरान हमें डर का अहसास हो रहा था। हम सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों और जनता की नाराज़गी के इज़हार में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे मगर अचानक अब हम ख़ुद शिकार बन गए हैं।
अनु उस हिंसा की बात कर रही हैं जो शेख़ हसीना के सत्ता छोड़ने के बाद हिंदुओं और दूसरे अल्पसंख्यकों के साथ हुई। अनु ने मुझे बताया कि अगर आज देश में सत्ता परिवर्तन हुआ है तो वो उन विरोध प्रदर्शनों की बदौलत ही हो सका है जिसमें उन्होंने और उन जैसे लोगों ने हिस्सा लिया था। अनु को लगता है कि अंतरिम सरकार की ये ज़िम्मेदारी बनती है कि वो उन जैसे लोगों की हिफ़ाज़त करे।
अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए काम करने वालों का कहना है कि शेख़ हसीना के देश छोड़कर जाने के बाद से देश के 52 ज़िलों में अल्पसंख्यकों के ऊपर 200 से ज़्यादा हमले हुए हैं।
मंगलवार को बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख सलाहकार मुहम्मद यूनुस ने ढाकेश्वरी मंदिर का दौरा किया और कहा कि देश में सबके लिए अधिकार एक बराबर हैं।
क्या बता रहे हैं हिंसा के शिकार लोग?
हिंदुओं और दूसरे अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ कितने बड़े पैमाने पर हिंसा हुई है इसको समझने के लिए हम ढाका शहर से बाहर निकले और हमने कोमिला क़स्बे तक का सफ़र किया। कोमिला पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा राज्य की सीमा के पास स्थित है। इस इलाक़े में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास रहा है। कोमिला में हम बाइक के एक शोरूम गए जिसके मालिक बिमल चंद्र डे हैं।
बिमल ने हमें बताया कि पांच अगस्त के पहले से ही वो इलाज के लिए भारत में हैं। वो कहते हैं कि जैसे ही उन्हें शेख़ हसीना के देश छोड़ने की ख़बर मिली उन्होंने अपने कर्मचारियों को शोरूम का शटर गिराने के लिए कहा क्योंकि उन्हें पहले से हिंसा होने की आशंका थी।
बिमल चंद्र डे की ये आशंका बिल्कुल सही साबित हुई। चश्मदीदों ने हमें बताया कि दोपहर में उपद्रवियों की भीड़ शेख़ हसीना के ख़िलाफ़ नारे लगाते हुए आई और उसने बिमल के शोरूम पर धावा बोल दिया। कुछ लोग बाइकें चुरा ले गए और फिर शोरूम को आग लगा दी। उपद्रवियों ने बिमल चंद्र डे के शोरूम के आस-पास की किसी दूसरी दुकान को हाथ तक नहीं लगाया।
बिमल का कहना है कि भीड़ ने शोरूम पर हमलाकर बाइकें चुरा लीं और शोरूम में आग लगा दी। वीडियो कॉल पर बीबीसी से बात करते हुए बिमल चंद्र डे ने बताया, हम पर हमला इसलिए हुआ क्योंकि हम इस देश में अल्पसंख्यक हैं। बांग्लादेश में एक हिंदू के तौर पर पैदा होना मेरी सबसे बड़ी ग़लती थी। हमला करने वालों को पता है कि हम पलटवार नहीं करेंगे। इसलिए वो कुछ भी कर सकते हैं।
हमने बिमल से पूछा कि क्या उन्हें इसलिए निशाना बनाया गया क्योंकि वो शेख़ हसीना सरकार के समर्थक थे? उन्होंने जवाब दिया, बांग्लादेश में व्यवहारिक रूप से अगर हम (हिंदू) ये कहें कि हम अवामी लीग को नहीं, बल्कि किसी दूसरी पार्टी को समर्थन देते हैं, तो कोई यक़ीन नहीं करेगा।
अपने कारोबार की वजह से मैं अवामी लीग और दूसरे दलों के नेताओं से मिलता-जुलता रहता था। ये कोई ग़लत बात तो नहीं है?
बिमल डे ने कहा कि अब उनकी प्राथमिकता अपने देश लौटने की है और अंतरिम सरकार से उनकी सिर्फ़ एक मांग है। वो कहते हैं, मैं इंसाफ़ चाहता हूं। मैंने जो भारी नुक़सान सहा है, जिन लोगों ने मेरे साथ ऐसा किया है उनको सज़ा मिलनी चाहिए।
ढाका से बमुश्किल तीस किलोमीटर दूर स्थित है मदनपुर
मदनपुर की संकरी गलियों से गुज़रते हुए हम लोहे के एक विशाल फाटक के सामने रुके। जब ये दरवाज़ा खुला तो हमारे सामने एक दफ़्तर का ख़ौफ़नाक मंज़र था। जले हुए दस्तावेज़ और फर्नीचर जहां-तहां बिखरे हुए थे, खिड़कियां टूटी हुई थीं।
ये क्रिश्चियन को-ऑपरेटिव क्रेडिट यूनियन का दफ़्तर था। ये छोटे-छोटे क़र्ज़ देने वाली एक संस्था है, जहां पर कभी-कभी प्रार्थना सभा भी आयोजित की जाती थी। जिस वक़्त हम इस दफ़्तर का वीडियो बना रहे थे, एक घबराए हुए गार्ड ने हमें आगाह किया कि "यहां ज़्यादा देर तक मत रुकिए। वो लोग हम पर नज़र रख रहे हैं और कभी भी वापस आ सकते हैं।"
वो गार्ड उन लोगों की तरफ़ इशारा कर रहा था जिन्होंने इस जगह को कुछ दिनों पहले जला दिया था। उसका कहना था कि वो अब भी आज़ाद घूम रहे थे। हालांकि गार्ड ने ये भी कहा कि ये हमलावर बार-बार यहां आते रहते थे और जो भी सामान मिलता था उसे लूट ले जाते थे। गार्ड ने दबी आवाज़ में बताया, "आपके यहां आने से कुछ मिनटों पहले ही वो यहां से गए हैं।"
और हमले होने की आशंका के कारण अल्पसंख्यक समुदाय के लोग इस जगह को पूरी तरह छोड़कर चले गए हैं। लेकिन इस पुराने दफ़्तर के मैनेजर हाईवे के पास हमसे मिलने के लिए तैयार हो गए।
उन्होंने उस घटना के बारे में बताया, "पाँच अगस्त की रात 10 बजकर 40 मिनट पर सुरक्षा गार्ड ने हमें फ़ोन करके ख़बर दी और हम तुरंत वहां पहुंच गए। मैंने देखा कि सब कुछ जलाकर राख कर दिया गया था, सारी चीज़ें यानी पैसे, दस्तावेज़, हमारे धार्मिक ग्रंथ।"
"इसके बाद तीसरे दिन जब मैं सुबह नौ बजे के क़रीब दफ़्तर पहुंचा, तो कुछ लोग ज़बरदस्ती मेरे दफ़्तर में घुस आए और मुझसे पूछने लगे कि मैं वहां क्यों आया हूं? मैंने कहा कि ये मेरा ऑफ़िस है।"
उन्होंने कहा, "2020 से ही हमने इसी इमारत से एक चर्च और सामुदायिक सेवा शुरू की थी लेकिन इससे पहले हम पर इस तरह का हमला नहीं हुआ था। हमें कई बार धमकियां ज़रूर दी गई थीं।"
क्रिश्चियन कम्युनिटी सर्विस सेंटर के मैनेजर ने हमें बताया कि बार-बार कोशिश करने के बाद भी उन्हें कोई पुलिसवाला नहीं मिला, जिससे वो हमलावरों के ख़िलाफ़ अपनी शिकायत दर्ज करा सकें।
अल्पसंख्यकों में डर का माहौल
कोमिला और आसपास के गांवों में रहने वाले हिंदू समुदाय के दूसरे लोगों ने हमें बताया कि उनके साथ हिंसा की कोई वारदात तो नहीं हुई लेकिन वो डर महसूस कर रहे हैं।
गांव में रहने वाले एक हिंदू व्यक्ति ने कहा कि बांग्लादेश में हिंदुओं के यहां डकैती और आग़ज़नी की कई घटनाएं हुई हैं। सरकार को अब इस पर लगाम लगाने की ज़रूरत है। उनकी इस फ़िक्र की जड़ें इतिहास की डरावनी यादों से जुड़ी हैं।
साल 2021 में कोमिला से शुरू हुई हिंदुओं के ख़िलाफ़ हिंसा पूरे देश में भड़क उठी थी जिसमें कई लोग मारे गए थे और मुसलमानों की भीड़ ने कई मंदिरों को तबाह कर दिया था।
वैसे तो बांग्लादेश में हिंदू और मुसलमान कई पीढ़ियों से साथ रहते आए हैं और उन्होंने बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई भी कंधे से कंधा मिलाकर लड़ी थी लेकिन बांग्लादेश में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास भी उतना ही पुराना है।
कोमिला के पड़ोस में नोआखली का इलाक़ा आज़ादी के बाद भड़की सांप्रदायिक हिंसा के लिए आज भी याद किया जाता है, जब हज़ारों लोगों को मार डाला गया था और महिलाओं से सामूहिक बलात्कार हुआ था।
नोआखाली का नाम इतिहास में दर्ज है। यहां हो रही सांप्रदायिक हिंसा को रोकने की कोशिश में महात्मा गांधी ने कई दिनों तक अनशन किया था। वो नवंबर 1946 से मार्च 1947 तक यहां रहे थे।
अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया कैसा है?
बांग्लादेश एक इस्लामी देश है या धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र - इस बुनियादी सवाल को लेकर काफ़ी भ्रम रहा है। दिलचस्प बात ये है कि बांग्लादेश की स्थापना एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में हुई थी लेकिन 1980 में इसे इस्लामी राष्ट्र घोषित कर दिया गया।
इसके तीस साल बाद 2010 में देश की सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1972 के संविधान में लिखी धर्मनिरपेक्षता की बात क़ायम है।
बांग्लादेश के आज के संविधान में इन दोनों बातों का ज़िक्र मिलता है लेकिन धर्मनिरपेक्षता को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता पर सवाल भी उठते रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय संस्था फ्रीडम हाउस ने पिछले साल शेख़ हसीना के शासन में बांग्लादेश को आंशिक रूप से स्वतंत्र देश के दर्जे में रखा था।
फ्रीडम हाउस ने अपनी पिछले साल की रिपोर्ट में कहा था, "अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों को ज़ोर, ज़ुल्म और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है जिनमें हिंदू, ईसाई, बौद्धों के साथ शिया और अहमदिया मुसलमान भी शामिल हैं।"
"कई बार उनके ख़िलाफ़ उपद्रवियों की भीड़ हिंसा करती है, उनके पूजास्थलों को निशाना बनाती है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा को सोशल मीडिया पर जानबूझकर भड़काया जाता है।"
"हाल के वर्षों में हिंदुओं के घरों, कारोबारों और मंदिरों में तोड़-फोड़ की गई है। उन्हें आग लगाकर तबाह किया गया है और ऐसे हमले 2023 में भी जारी रहे हैं।"
माहौल ठीक करने की कोशिशें
राजधानी के ढाकेश्वरी मंदिर में हमारी मुलाक़ात हिंदू समुदाय के कई नेताओं से हुई। उनमें से एक गोपाल चंद्र देबनाथ भी थे।
गोपाल देबनाथ ने हमें बताया, "कल गृह मंत्री ने हमें भरोसा दिलाया कि आप ही नहीं, आपके समुदाय का कोई भी सदस्य किसी भी वक़्त मदद के लिए मुझसे संपर्क कर सकता है।"
"यहां के हिंदू समुदाय के लोग बहुत शांति से रहते हैं। यहाँ कुछ लोगों का एक छोटा-सा तबक़ा है जिसको ये लगता है कि अगर हम ये देश छोड़कर चले जाते हैं तो वो हमारी ज़मीनों और हमारी संपत्तियों पर क़ब्ज़ा कर सकते हैं। वो सियासी वजहों से भी हमें डराने की कोशिश करते हैं।"
हिंदुओं के बड़े पैमाने पर बांग्लादेश छोड़कर जाने की आशंका पर गोपाल देबनाथ ने कहा कि वो दूसरे लोगों की तरह बांग्लादेश में ही रहना चाहेंगे।
मुस्लिम समुदाय के लोग कर रहे मंदिर की रक्षा
कोमिला के मुख्य मंदिर में हमारी मुलाक़ात अनिर्बान सेनगुप्ता से हुई। उन्होंने हमें बताया कि वो रोज़ इस मंदिर में प्रार्थना करते आते हैं।
अनिर्बान सेनगुप्ता ने हमें बताया, "छात्रों की क्रांति के बाद पुलिस तो लापता है लेकिन आम लोग समाज में सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं। सच्चाई तो ये है कि मुस्लिम समुदाय के पांच से दस लोग हर रात हमारे मंदिर की हिफ़ाज़त करने आते हैं।"
जब हम राजधानी के ढाकेश्वरी मंदिर से बाहर निकल रहे थे तो मंदिर के गेट के बाहर हमने दो लोगों को हाथों में डंडे लेकर बैठे हुए देखा। उनमें से जो कम उम्र के थे, उनका नाम मुहम्मद सैफ़ुज़्ज़मां था। वो पेशे से एक मौलवी हैं। मैंने उनसे पूछा कि आख़िर वो मंदिर के बाहर क्या कर रहे हैं?
सैफ़ुज़्ज़मां ने कहा, "जब से पुलिस लापता हुई है तब से यहां लोग असुरक्षित महसूस कर रहे थे। मुझे ये पता है इसलिए मैं यहां आया हूँ ताकि ये सुनिश्चित कर सकूं कि उन्हें कोई दिक़्क़त न हो।"
"मैं पूरी दुनिया को ये बताना चाहता हूं कि बांग्लादेश धर्म के आधार पर नहीं बंटा हुआ है। ये ख़याल सिर्फ़ मेरा नहीं, बहुत से मुस्लिम संगठन बारी-बारी से इस मंदिर की सुरक्षा का ध्यान रख रहे हैं।"
ख़ौफ़ के इस माहौल में ग़लत जानकारियों और अफ़वाहों ने आग में घी डालने जैसा काम किया। सोशल मीडिया पर निगरानी रखने वाले टूल ब्रैंडवाच के मुताबिक, झूठे नैरेटिव एक ख़ास हैशटैग से पोस्ट किए जा रहे थे। ब्रैंडवाच के आंकड़े बताते हैं कि चार अगस्त से नौ अगस्त के बीच उस हैशटैग का सात लाख बार मेंशन हुआ। एक्स पर किए गए ज्यादातर पोस्ट भारत में जियोलोकेट किए गए।
एक वायरल पोस्ट में ये झूठा दावा किया गया था कि हिंदू क्रिकेटर लिटन दास का घर जला दिया गया है। दूसरे सोशल मीडिया अकाउंट में ये दावा किया गया कि उनके घर को इस्लामिक कट्टरपंथियों ने आग लगाई थी।
बीबीसी वेरिफ़ाई ने स्थानीय ख़बरों के साथ इस दावे का मिलान किया तो पता चला कि सोशल मीडिया पोस्ट की तस्वीरों में जिस घर को लिटन दास का घर बताया गया था वो असल में बांग्लादेश क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान मशरफ़े मुर्तज़ा का था। वो सत्ताधारी अवामी लीग पार्टी से जुड़े हैं और बांग्लादेश की संसद के सदस्य थे।
एक और वायरल पोस्ट में दावा किया गया कि "बांग्लादेश में इस्लामी उग्रवादियों की भीड़ ने एक मंदिर पर हमला किया" था। ये आग चटगांव के नवग्रह मंदिर के पास लगी थी, लेकिन मंदिर इस आग की चपेट में नहीं आया था।
उथल पुथल भरी राजनीति
ढाका के गुलशन इलाक़े में मेरी मुलाक़ात एक राजनीतिक विश्लेषक अशरफ़ कैसर से हुई। अशरफ़ ने कहा, "अल्पसंख्यकों पर हमले हो रहे हैं। हमें इसका बहुत अफ़सोस है और हमें लगता है कि ऐसे हमले नहीं होने चाहिए। लेकिन इसका एक अलग पहलू भी है- मुझे लगता है कि ये नैरेटिव सत्ता में रही पार्टी की व्यापक रणनीति का हिस्सा है ताकि पड़ोसी देश भारत को बांग्लादेश के मामलों में लाया जा सके।"
"ऐसी बातें पूरी दुनिया में फैलती हैं और इनसे ये माहौल बनाने में मदद मिलती है कि बांग्लादेश पर इस्लामी कट्टरपंथियों का क़ब्ज़ा हो गया है और अब मुल्क सुरक्षित हाथों में नहीं है।"
अशरफ़ कैसर ने कहा कि हिंदुओं के बीच असुरक्षा का भाव बीजेपी और अवामी लीग को आपस में जोड़ता है। वे कहते हैं, "बांग्लादेश के हिंदुओं की रक्षा करना भी बीजेपी की राजनीति का एक अहम पहलू है। एक तरह से ये अवामी लीग को सियासी मदद देना भी है क्योंकि आठ या नौ प्रतिशत हिंदू आबादी अवामी लीग के लिए एक बड़ा वोट बैंक भी है।"
धीरे-धीरे सामान्य होते हालात
बांग्लादेश के शहरों में हर गुज़रते दिन के साथ ही हालात सामान्य होने के संकेत दिख रहे हैं। विरोध प्रदर्शन करने वाले छात्र अब दीवारों पर नया पेंट कर रहे हैं। वो सोशल मीडिया के ज़रिए अपने लिए फंड जुटाने की कोशिश कर रहे हैं। दफ़्तर, दुकानें और बाज़ार खुलने लगे हैं और उनमें ग्राहकों की भीड़ दिख रही है।
सड़कों पर यातायात का प्रबंधन जो पहले लगभग पूरी तरह छात्रों और स्वयंसेवकों के भरोसे था, अब धीरे-धीरे ट्रैफिक पुलिस वो ज़िम्मेदारी दोबारा संभाल रही है। स्थानीय लोग कहते हैं कि ज़रूरी सामानों की आपूर्ति और क़ीमतें भी स्थिर बनी हुई हैं।
पुलिसवालों को शेख़ हसीना के देश छोड़ने तक सैकड़ों छात्रों की मौत का ज़िम्मेदार माना जा रहा था और उनके ख़िलाफ़ गुस्से का माहौल था। वो भी अब अपने-अपने पुलिस थानों में काम पर लौट रहे हैं। शहरों में अब भी पुलिस कम ही नज़र आ रही है। वहीं ग्रामीण इलाक़ों में असुरक्षा का माहौल शहरों से ज़्यादा है।
लेकिन बांग्लादेश के हिंदुओं और दूसरे अल्पसंख्यकों का भरोसा बहाल करने के लिए अंतरिम सरकार को और कोशिशें करनी होंगी और उसमें अभी समय लगेगा।
(बीबीसी ग्लोबल डिसइन्फॉर्मेशन टीम और बीबीसी वेरिफ़ाई के इनपुट के साथ)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित