प्रियंका दुबे (शाहजहाँपुर से)
हवा में घुल रही चीनी मिलों की गंध बता देती है कि मैं दिल्ली से 360 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर पहुँच गई हूँ। काकोरी कांड के महानायक राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला ख़ान जैसे क्रांतिकारियों के इस शहर शाहजहाँपुर की मिट्टी में ही मानो निडरता और साहस घुला हुआ है।
यहीं पली-बढ़ी पीड़िता और उनके परिवार ने आसाराम के ख़िलाफ़ अपनी पाँच साल लंबी इस लड़ाई के दौरान इसी साहस और निडरता का परिचय दिया है।
वो परिवार जिसने लड़ी लंबी लड़ाई
ट्रांसपोर्ट का कारोबार करने वाले पीड़िता के परिवार से यह मेरी तीसरी मुलाक़ात थी। मुकदमे की शुरुआत के बाद से उनके घर के बाहर एक पुलिस चौकी बना दी गई है और इस चौकी में रखे रजिस्टर पर नाम और पता लिखकर मैं घर के बरामदे में दाख़िल हुई। घर के बाहर तीन ट्रक खड़े थे।
पीड़िता के बड़े भाई ने बताया कि ट्रकों पर साड़ियाँ लादकर माल सूरत भेजा जा रहा है। उन्होंने बताया, "यह सीज़न का टाइम है इसलिए यह काम मिला है। वर्ना पहले से तो बहुत कम हो गया है बिज़नेस।"
घर के बरामदे में ही बने दफ़्तर में कुर्ता-पायजामा पहनकर बैठे पीड़िता के पिता तेज़ी से सामान के डिस्पैच से जुड़े काग़ज़ों पर दस्तख़त कर रहे थे। मेरे भीतर आते ही उन्होंने कुछ मीडिया वालों के रवैए पर नाराज़गी ज़ाहिर की।
मीडिया से ख़फ़ा पीड़िता का परिवार
उन्होंने कहा,"जब हम जोधपुर में पड़े हुए थे तब तो कोई नहीं आया। पूरी सुनवाई हो गई और किसी मीडिया ने नहीं पूछा। कई अख़बार वाले आसाराम के समर्थकों के बयान छापते और जब हम कहते कि उनके साथ-साथ हमारी भी बात लिखो, तब कोई नहीं लिखता। अब फ़ैसले के बाद सब आ गए हैं।"
लगातार आते-जाते पत्रकारों से बचने के लिए उन्होंने मुझे बड़े बेटे के साथ पहली मंज़िल पर बने कमरे में इंतज़ार करने के लिए भेज दिया। पीड़िता के भाई ने बताया कि नए सख़्त क़ानूनों के बावजूद कई मीडिया संस्थानों ने उनके घर की पूरी तस्वीरें टीवी पर दिखा दीं।
चिंता ज़ाहिर करते हुए उन्होंने कहा, "इससे हमें ख़तरा बढ़ता है। आज पूरे शहर को मालूम है कि आसाराम पर केस करने वाला परिवार कहाँ रहता है। आप शहर के बाज़ार में जाकर किसी भी बच्चे से पूछ लीजिए, वो आपको हमारे घर तक छोड़ जाएगा। हमारी आम ज़िंदगियाँ तो कब की ख़त्म हो चुकी हैं।"
पांच साल लंबी लड़ाई के जख़्म
लगभग 40 मिनट बाद पीड़िता के पिता हाथ में ठंडा और बिस्किट लेकर कमरे में आए। तेज़ गर्मी का ज़िक्र करते हुए मुझसे ठंडा पीने का आग्रह किया, पीड़िता के पिता को देखकर मुझे पाँच साल पुरानी छवि याद आ गई। वह पहले से बहुत कमज़ोर दिख रहे थे। उनके सिर के बाल झड़ गए थे और ऐसा लग रहा था जैसे इस लंबी लड़ाई ने उनका वज़न आधा कर दिया है।
मुक़दमे के वक़्त को याद करते हुए उन्होंने कहा, "बीते पाँच साल तो हमारे ऐसे गुज़रे कि क्या बताऊँ। शब्द कम पड़ जाएँगे। इतना मानसिक और शारीरिक कष्ट कि मैं बता नहीं पाऊँगा। बीच में मेरा व्यापार भी ठप पड़ गया था। पाँच साल में याद नहीं कब भर पेट खाना खाया। भूख लगनी ही बंद हो गई थी। नींद नहीं आती थी। बीच रात में उठ-उठकर बैठ जाता था।"
"जान का ख़तरा इतना रहा कि पिछले पाँच साल से अपने हाथ का ख़रीदा कोई कपड़ा नहीं पहना। अपने हाथ से बाज़ार से फल-सब्जी खरीदकर नहीं खाई। घूमना-फिरना तो दूर, बीमार पड़े तो इलाज के लिए नहीं निकले। डॉक्टर को ही घर पर बुलवाया। अपने ही घर में क़ैदी होकर रह गए थे।"
फ़ैसले के बाद ली लंबी सांस
वे आगे जोड़ते हैं, "जिस दिन हमने आसाराम के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर किया था, उस दिन हमारे घर पर दुख में किसी ने कुछ नहीं खाया। और फिर 25 अप्रैल को जब हम मुक़दमा जीत गए, उस दिन हम सबने ख़ुशी से कुछ नहीं खाया। खाया ही नहीं जा रहा था। फिर अगले दिन हमने सालों बाद अच्छे से खाना खाया। फ़ैसले के बाद से हम सबको नींद भी आने लगी है। कल मैं न जाने कितने साल बाद सूरज उगने के बाद उठा।"
अगस्त 2013 में आसाराम के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर करते वक़्त पीड़िता सिर्फ 16 साल की थीं। इस सुनवाई के दौरान पीड़िता के जीवन पर पड़े प्रभाव का ज़िक्र करते ही पिता की आँखें नम हो जाती हैं।
वह बताते हैं, "मेरी बच्ची के सारे सपने चकनाचूर हो गए। वह पढ़-लिखकर आईएएस बनना चाहती थी पर बीच में पढ़ाई रुक गई। 2013 में मुक़दमा हुआ तो उसका पूरा साल ऐसे ही खराब हो गया। 2014 पूरा गवाही में लग गया। दो साल तो ऐसे ही ख़राब हो गए"।
अब उसकी ज़िंदगी को किसी तरह संभालने की कोशिश जारी है, वह कहते हैं, "अभी बीए में एडमिशन दिलवाया है। सेकेंड इयर की परीक्षा दी है। इतनी आफ़त आई, ऐसे पहाड़ टूटे हम पर, ऐसे में कौन सा बच्चा पढ़ पाएगा? पर मेरी बेटी अभी भी परीक्षाओं में फर्स्ट आई है। 85 प्रतिशत नंबर आए हैं उसके। अभी भी अगर मैं उसके पास जाऊं तो पढ़ती हुई ही मिलेगी वह।"
आसाराम की धमकियों से भरा जीवन
पीड़िता के पिता का कहना है कि आसाराम ने उन्हें केस वापस लेने के लिए पैसों के साथ-साथ जान से मारने की धमकियाँ भी खुलेआम भिजवाईं। वह बताते हैं, "जब सुनवाई चल रही थी तब छिकारा नाम का आसाराम का एक गुंडा हमारे दफ़्तर आया। दरवाज़े पर बैठी पुलिस को उसने बताया था कि वह हमारे ट्रक से माल बुक करवाने आया है। उसके साथ एक और हथियारबंद आदमी भी था। मैं बैठा काम कर रहा था पर उसे देखते ही मैं उसे पहचान गया।
"मैंने उसको पहले भी आसाराम के सत्संगों में देखा था इसलिए। उस वक़्त तक गवाहों की हत्याएं शुरू हो गई थीं इसलिए मैं सतर्क था। उसने मुझसे कहा कि मैं केस वापस ले लूं तो मुँह मांगे पैसे मिलेंगे वर्ना जान से जाऊँगा"। उस दिन जान बचाने के लिए उन्होंने कह दिया कि वे मुकदमा वापस ले लेंगे, ये बात आसाराम तक पहुँच गई होगी।
वे बताते हैं, "सुनवाई वाले दिन मैंने अपने सच्चे बयान कोर्ट में दिए तो आसाराम चौंक गया। अदालत से बाहर निकलते वक़्त अपने दोनों हाथों की उंगलियां हिलाता हुआ जा रहा था। उसकी तरफ़ के एक जूनियर वकील ने मुझसे कहा कि बाबा के इस इशारे का मतलब है कि इस आदमी को ख़त्म करना है। गवाह तो मारे ही जा रहे थे। देखिए, इस तरह वह हमें खुलेआम धमकियां देता रहा और हम चुपचाप सहते रहे।"
अब तक तीन गवाहों की हत्या
ग़ौरतलब है कि इस मामले में अब तक नौ गवाहों पर हमले हो चुके हैं। इनमें से तीन की हत्या हो चुकी है जबकि एक गवाह आज भी गुमशुदा है। पिता के साथ-साथ बेटी को भी अदालत में धमकाया जाता था।
पीड़िता के पिता याद करते हैं, "जब मेरी बेटी अदालत में गवाही देती थी तो सामने बैठा आसाराम गुर्राता था और अजीब-अजीब आवाज़ें निकालकर बेटी को डराने की कोशिश करता था। हमारे वकील दौड़कर जज साहब से कहते। तब इसको चुप कराने के लिए जज साहब को पुलिस वालों से तक कहना पड़ जाता था। और यह सब चलती अदालत में होता था।"
सुनवाई के दौरान शाहजहांपुर से लगभग हज़ार किलोमीटर दूर जोधपुर जाना भी पीड़ित परिवार के लिए चुनौती था।
गवाही के दिनों की यातना
पिता बताते हैं कि मामले में उनकी बेटी की गवाही लगभग साढ़े तीन महीने चली जबकी उनकी पत्नी और पीड़िता की माँ की गवाही डेढ़ महीने।
वह बताते हैं, "इस बीच हमें जब जैसा साधन मिलता हम उससे जोधपुर के लिए निकल जाते। कभी बस से, कभी ट्रेन से, कभी स्लीपर में टिकट मिल जाता तो कभी जनरल में ही बैठकर जाना पड़ता। अदालत में कभी गवाही सारा दिन चली तो कभी 10 मिनट में ही ख़त्म हो जाती।"
"फिर सारा दिन क्या करते हम? होटल में ही पड़े रहते। इतने लम्बे दिन होते थे, इतनी लम्बी रातें, वक़्त कटता ही नहीं था। बीच में अदालत की छुट्टियाँ पड़ जाती थीं। समझ नहीं आता था कि इस दूर देश में हम अपना सामान उठाये क्यों चले आते हैं। न कोई पहचान का, न अपना घर यहाँ।"
सुनवाई के लिए पीड़िता अपने माता-पिता के साथ जोधपुर जाती थीं और उनके दोनों भाई शाहजहांपुर में ही रहते थे। लंबे वक़्त तक घर पर न रहने की वजह से पीड़िता के पिता का कारोबार भी मंदा पड़ने लगा।
जब बेचने पड़े अपने ट्रक
वह बताते हैं कि बीच में उन्हें काम मिलना एकदम बंद हो गया था। सुनवाई और घर के ख़र्चे पूरे करने के लिए उन्हें अपने ट्रक बेचने पड़ गए थे।
"जब हम जोधपुर में होते तो हमें बेटों की चिंता लगी रहती और उन्हें हमारी। बड़ा बेटा कारोबार संभालता था, पढ़ता भी और छोटे को भी देखता। बीच में छोटे बेटे को टाइफाइड हो गया था। हम तीनों तब गवाही के लिए जोधपुर में थे और बहुत परेशान हुए। बड़ा कष्ट का समय था।"
इतनी मुश्किलों में भी पीड़िता का परिवार चट्टान की तरह एक साथ खड़ा रहा। पिता बताते हैं कि परिवार में सबको एक दूसरे की चिंता रहती थी। अभिभावकों को इस बात की चिंता थी कि बच्चों पर कोई हमला न करवा दे और बच्चों को इस बात की फ़िक्र की माता-पिता को कुछ न हो जाए।
लेकिन डर के साए में जी रहे इस परिवार का एक ही लक्ष्य था। आसाराम को उसकी करनी की सज़ा दिलाना। इतनी लंबी लड़ाई लड़कर आसाराम जैसे प्रभावशाली व्यक्ति को जेल की सलाख़ों के पीछे पहुंचाने वाले इस परिवार को आख़िरकार समाज ने हरा दिया। पीड़िता के पिता बताते हैं कि उनके बच्चों से कोई शादी करने को राज़ी नहीं हो रहा है।
वह कहते हैं, "बड़ा बेटा 25 का है और बिटिया भी 21 की हो गई है। दोनों की शादी के लिए मैं कोशिश कर रहा हूं पर कोई राज़ी नहीं होता। बिटिया के लिए भी तीन-चार घरों में प्रस्ताव लेकर गया था। मैंने कहा कि मेरी बेटी बहुत होनहार है, हमारे यहां रिश्ता कर लीजिए लेकिन मुक़दमे का पता चलते ही कुछ लोगों ने डर के मारे अपने दरवाज़े बंद कर लिए और कुछ ने तो मुझसे कहा कि आपकी बेटी में दाग़ है।"
आंखों में पानी और चेहरे पर पत्थर जैसी कठोरता के साथ उन्होंने कहा, "आप चाहें तो इसे ऐसे ही लिख दीजिएगा। उन्होंने कहा मुझसे कि मेरी बेटी में दाग़ है इसलिए उससे शादी नहीं करेंगे। बेटे की भी उम्र निकली जा रही है। कोई राज़ी नहीं होता उसके लिए भी।"
"लोग मिलने आते हैं तो बाहर पुलिस की चौकी देखकर ही डर जाते हैं। एक परिवार ने कहा की आपके बेटे पर तो कभी भी हमला हो सकता है, फिर हमारी लड़की का क्या होगा? मेरी बेटी के लिए भी जो रिश्ते आते हैं वो बड़ी उम्र के आदमियों या विधुर पुरुषों के हैं। उनसे क्यों करूँगा मैं अपनी बच्ची की शादी?"
पहले हज़ार किलोमीटर दूर चल रहा मुक़दमा, फिर ठप्प पड़ते व्यापार, गवाहों की हत्या, पीड़िता के परिवार को जान से मार दिए जाने की धमकियां और अब बच्चों के भविष्य की चिंताएं। मेरे जाने से पहले पीड़िता के पिता कहते हैं, "आसाराम ने जाल बुना हमारे चारों तरफ और हमें हर तरफ़ से घेरकर लगातर तोड़ने को कोशिशें की गई हैं। हमने यह सब कैसे सहा है, यह सिर्फ़ हम ही जानते हैं। इन्हीं चिंताओं के चलते तो मेरा वज़न कम होता रहा है।"