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अपोलो 11 की वो चार चीज़ें जो आप नहीं जानते हैं

हमें फॉलो करें अपोलो 11 की वो चार चीज़ें जो आप नहीं जानते हैं
, शुक्रवार, 19 जुलाई 2019 (11:57 IST)
इस घटना के 50 साल हो चुके हैं लेकिन अपोलो मून प्रोग्राम को अभी भी मानव सभ्यता की सबसे महान तकनीकी उपलब्धि माना जाता है। 16 जुलाई 1969 को अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग, बज़ एल्ड्रिन और माइकल कोलिंस विशाल सैटर्न वी रॉकेट के ऊपर अपने अपोलो अंतरिक्षयान में सवार थे और महज 11 मिनटों में ही कक्षा में प्रवेश कर गए।
 
इसके चार दिन बाद आर्मस्ट्रांग और एड्रिन चंद्रमा की सतह पर पैर रखने वाले पहले इंसान बने। यहां हम इस ऐतिहासिक मिशन की वो चार बातें बता रहे हैं, जो बहुत कम लोगों को पता है।
 
1.सैटर्न वी अब तक का सबसे बड़ा और सबसे ताक़तवर रॉकेट है
इसकी ऊंचाई 100 मीटर (363 फ़ुट) से भी ज़्यादा थी। सैटर्न वी के लॉन्च होने के समय एक सेकंड में 20 टन ईंधन जला। इसके कुल वज़न का 85% हिस्सा प्रोपेलेंट था।
 
2011 में अपोलो 8 अंतरिक्ष यात्री फ्रैंक बोरमैन ने कहा था, "मुझे लगता है कि इसकी मज़बूती को लेकर हम सभी हैरान थे।" अंतरिक्षयात्री चार्ली ड्यूक ने अंतरिक्षयान से मॉड्यूल के अलग होने को किसी 'ट्रेन टक्कर' जैसा बताया था।
 
सैटर्न वी का वज़न 2,800 टन था और इसने लॉन्च के समय 35.5 मी. न्यूटन बल पैदा किया। ये पृथ्वी की कक्षा में 130 टन वज़न को स्थापित करने और 43 टन वज़न को चंद्रमा पर ले जाने के लिए काफ़ी था। ये वज़न लंदन की लगभग चार बसों के बराबर है।
 
2. अपोलो का क्रू कम्पार्टमेंट एक बड़ी कार के बराबर
आर्मस्ट्रांग, एल्ड्रिन और कोलिन्स ने चाँद पर जाने और वापस अंतरिक्ष में आने के दौरान लगभग 10 लाख मील की दूरी एक बड़ी कार के बराबर के कम्पार्टमेंट में एक साथ रह कर बिताई। कमांड मॉड्यूल में लॉन्च और लैंडिंग के दौरान अंतरिक्ष यात्रियों को बेंच की तरह "काउच" में बांधा गया था, जिसका आकार 3.9 मीटर (12.8फ़ुट) था।
 
यहां छोटी जगह क़ैद होने के डर के लिए कोई जगह नहीं थी। कमांड मॉड्यूल के पीछे सर्विस मॉड्यूल था, जिसमें ईंधन टैंक और इंजन था। लूनर मॉड्यूल (एलएम या "लेम") को कमांड और सर्विस मॉड्यूल के पीछे एक कम्पार्टमेंट में रखा गया था। पृथ्वी छोड़ने के बाद, अपोलो ने लूनर मॉड्यूल के साथ डॉक करने के लिए उड़ान भरी, जिसे कमांड मॉड्यूल के पीछे अंतरिक्ष में ले जाया गया, जहां से ये चंद्रमा की तरफ मुड़ा।
 
3.गणित में कुशल अफ्रीकी-अमेरिकी महिलाओं ने चंद्रमा तक के रास्ते का खाका खींचने में मदद की
डिजिटल पूर्व दौर में, नासा ने बड़ी संख्या में महिला गणितज्ञों को 'मानव कंप्यूटर' के रूप में नियुक्त किया, जिनमें अधिकांश अफ्ऱीकी-अमरीकी महिलाएं थीं। उनका डेटा प्रोसेसिंग कार्य और जटिल गणना करना अंतरिक्ष कार्यक्रम की सफलता के लिए महत्वपूर्ण था।
 
जब पहली बार कंप्यूटर आए, तो नासा के कई शुरुआती प्रोग्रामर और कोडर ये महिलाएं ही थीं। 2016 में रिलीज़ हुई फ़िल्म 'हिडन फ़िगर्स' ने इन गणित के जादूगरों की कहानी को पहली बार बड़े पैमाने पर दर्शकों तक पहुंचाया।
 
ख़ासकर एक महिला कैथेरीन जॉन्स का नाम, पहली बार अंतरिक्ष में जाने वाले अमरीकियों एलन शेफ़र्ड और जॉन ग्लेन के प्रक्षेपण पथ की गणना के लिए काफ़ी चर्चित रहा। इसके बाद चंद्रमा को भेजे जाने वाले अपोलो लूनर मॉड्यूल और कमांड मॉड्यूल के लिए भी इन्होंने गणना की थी।
 
लॉन्च के 11 मिनट बाद अपोलो 11 का उड़ान पथ, अंतरिक्ष यान को पृथ्वी की कक्षा में ले गया। दो घंटे बाद ही दूसरी कक्षा में जाने के लिए रॉकेट के तीसरे चरण का ईंधन इस्तेमाल किया गया और जिससे अपोलो को चंद्रमा की दिशा में ले जाने में मदद मिली। इस प्रक्रिया को ट्रांस लूनर इंसर्शन या टीएलआई कहते हैं।
 
ये अंतरिक्ष पथ रॉकेट का बिना ईंधन का इस्तेमाल किए ही अंतरिक्षयान को चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण से बाहर पृथ्वी की ओर लौटने में सहायक होता है। हालांकि जब अपोलो 11 अपनी मंजिल के क़रीब पहुंचा तो अंतरिक्ष यात्रियों ने अंतरिक्ष यान को धीमा करने के लिए लूनर ऑर्बिट इंसर्शन नामक प्रक्रिया का अनुसरण किया ताकि यान चंद्रमा की कक्षा में चक्कर लगाए। यहीं से आर्मस्ट्रांग और एल्ड्रिन चंद्रमा की सतह की ओर चले।
 
4. कोई नहीं जानता कि अपोलो 11 मॉड्यूल अब कहां है
कुल 10 चंद्र मॉड्यूल अंतरिक्ष में भेजे गए और छह ने इंसानों को चंद्रमा पर उतारा। एक बार इस्तेमाल होने के बाद, कैप्सूल को छोड़ दिया गया था और वे या तो चंद्रमा की सतह पर गिर गए, पृथ्वी के वायुमंडल में जल कर ख़त्म हो गए या एक मामले में ये सूरज की कक्षा में चक्कर लगाने लगा।
 
लेकिन वास्तव उनके साथ क्या हुआ, किसी का नहीं पता। पहले दो लूनर मॉड्यूल का इस्तेमाल परीक्षण उड़ानों में किया गया और वे पृथ्वी के वायुमंडल में जल कर ख़त्म हो गए। अपोलो 10 का चंद्र मॉड्यूल, जो चंद्रमा पर गया था, लेकिन सतह पर नहीं उतरा। इसे अंतरिक्ष में ही छोड़ दिया गया था, जो सूर्य की कक्ष में चला गया।
 
इसे आखरी बार देखे जाने के लगभग 50 साल बाद खगोलविदों ने हाल ही में जानकारी दी कि उन्होंने इस कैप्सूल को ढूंढ निकाला और उन्हें 98% भरोसा है कि ये वही है। उन्होंने इसका नाम स्नूपी रखा है।
 
जब अपोलो 13 के लूनर मॉड्यूल ने उस मिशन में लाइफ़ बोट की भूमिका निभाई, लेकिन विस्फोट के बाद उसे बीच में ही ख़त्म करना पड़ा। अन्य अधिकांश मॉड्यूल को सतह पर वापस क्रैश-लैंड करने के लिए भेज दिया गया।
 
अधिकांश के क्रैश साइट ज्ञात हैं- लेकिन कोई भी यक़ीनी तौर पर नहीं कह सकता है कि अपोलो 11 के मॉड्यूल ईगल या अपोलो 16 के मॉड्यूल ओरियन कहां समाप्त हुए।

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