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रूस-यूक्रेन युद्ध के 30 दिन पूरे, लोगों के दर्द और तकलीफ़ की आंखों देखी

हमें फॉलो करें रूस-यूक्रेन युद्ध के 30 दिन पूरे, लोगों के दर्द और तकलीफ़ की आंखों देखी

BBC Hindi

, गुरुवार, 24 मार्च 2022 (08:13 IST)
सारा रेंसफ़ोर्ड, बीबीसी संवाददाता
मैं ये सब एक ऐसे शहर में बैठकर लिखकर रही हूं जहां बमबारी नहीं हो रही है। रूसी मिसाइलें घरों से नहीं टकरा रही हैं। हवाई हमलों की चेतावनियों के साथ बेहाल करने वाली विलाप की आवाज़ें नहीं आ रही हैं।
 
मैं सोचती हूं कि काश, यूक्रेन वाले भी ये कह पाते। एक महीने तक यूक्रेन से रिपोर्टिंग करने के बाद मैं उनके देश को एक बर्बर हमले के बीच छोड़ आई हूं और मुझे नहीं पता कि ये सब कब ख़त्म होगा।
 
ऐसा नहीं है कि मुझे ये नहीं पता था कि व्लादिमीर पुतिन क्या करने में सक्षम हैं। मैंने 2014 में क्राइमिया पर क़ब्ज़े के दौरान रिपोर्टिंग की है। इसके बाद रूस की छद्म ताक़तों और दुष्प्रचार की मार झेलने वाले पूर्वी यूक्रेन में हुए युद्ध पर रिपोर्टिंग की है।
 
मैंने कई सालों तक रूस से रिपोर्टिंग की है और इस दौरान विपक्षी दलों के नेताओं की हत्याओं और उन्हें ज़हर दिए जाने की घटनाओं पर ख़बरें लिखी हैं। चेचन्या और जॉर्जिया में हुए युद्ध एवं बेसलान स्कूल की घेराबंदी जैसी भयानक घटनाओं पर भी ख़बरें लिखी हैं।
 
लेकिन हाल ही में मुझे 'सुरक्षा के लिए ख़तरा' बताकर रूस से बाहर निकाल दिया गया।
 
जब मैं कीएव पहुंची...
इसके बाद भी मैं पिछले महीने यूक्रेन की राजधानी कीएव पहुंची। मैं आश्वस्त थी कि रूसी राष्ट्रपति यूक्रेन पर हमला नहीं करेंगे। ये बात अपने आप में बड़ी बेतुकी, तर्कहीन और भयानक लगी और दोनों देशों में मैंने जिससे भी इस बारे में बात की, वह इस बात पर सहमत था।
 
लेकिन 24 फ़रवरी को मैं एक धमाके की आवाज़ के साथ जगी जिसने हम सभी को ग़लत साबित कर दिया।
 
जब युद्ध शुरू हुआ तो 15 वर्षीय नीका काफ़ी डरी हुई थी। अपने पियानो के पास बैठी नीका ने बेहद तेज़ गति के साथ पियानो बजाना शुरू किया ताकि काफ़ी तेज़ आवाज़ हो। उसने पूरी ताक़त से चिल्लाना भी शुरू कर दिया। लेकिन पियानो और नीका की तेज़ आवाज़ के बावजूद बमबारी की आवाज़ें मद्धम नहीं हुईं।
 
नीका यूक्रेन के दूसरे सबसे बड़े शहर खारकीएव की रहने वाली हैं। लेकिन उनसे मेरी मुलाक़ात एक छोटे से होटल में हुई जहां तमाम भागे हुए परिवार घुप्प अंधेरे में शरण लिए हुए थे। ये लोग डरे हुए थे कि कहीं रूस के लड़ाकू विमानों की नज़र उन पर न पड़ जाए।
 
जब हम इस होटल में पहुंचे तो यहां की रिसेप्शनिस्ट ने हमसे कहा कि हम तुरंत कैंटीन में खाना खा लें क्योंकि उन्हें कर्फ़्यू लगने से पहले घर पहुंचना है और रात में निकलने वालों को गोलीबारी का शिकार होने का ख़तरा था।
 
'कोई लाइट न जलाएं'
रिशेप्सनिस्ट ने हमसे कहा, "कोई लाइट न जलाएं और गर्म पानी ज़्यादा इस्तेमाल न करें।" जब हमने पूछा कि नज़दीकी बम शेल्टर कहां है तो उसने किचन के पीछे की ओर इशारा किया।
 
नीका वहां कुछ रातों से मौजूद थी लेकिन उसके लिए सोना मुश्किल था। नीका ने बताया कि हर सुबह उसका पहला ख़्याल ये होता है कि "भगवान का शुक्र है कि मैं ज़िंदा हूं।"
 
उसने अंग्रेज़ी में बात की और इतने सीधे सपाट ढंग से बात की कि सुनने वाला निरुत्तर हो जाए।
 
नीका ने युद्ध का पहला हफ़्ता अपने एक रिश्तेदार के घर में तहख़ाने में बिताया था। ये अनुभव साझा करते हुए उसने कहा, "हम लोग घबराए हुए थे क्योंकि हमारी ज़िंदगी पर ख़तरा मंडरा रहा था और हमें छिपना था।
 
ये जगह काफ़ी ठंडी और छोटी थी। हमारे पास खाने का ज़्यादा सामान नहीं था। ये काफ़ी त्रासदी भरा समय था। अब मैं हर आवाज़ से डरती हूं। अगर कोई ताली भी बजाता है तो मुझे लगता है कि मैं रो दूंगी। मैं कांपने लगती हूं।"
 
टॉर्च की रोशनी में नीका अपने फ़ोन पर युद्ध से पहले की ज़िंदगी की तस्वीरें देख रही थीं। इन तस्वीरों में वह मुस्कराती हुई, अपने दोस्तों के साथ, पार्क में या अपने घर में नज़र आती हैं।
 
नीका कहती हैं, "हम बस पुराने दिनों में लौटना चाहते हैं। हम इस बात को लेकर आश्वस्त होना चाहते हैं कि हमारे परिवार कल भी ज़िंदा रहेंगे। हम शांति चाहते हैं।"
 
पुतिन से हुई चूक?
खारकीएव शहर रूसी सीमा से सिर्फ़ 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां पर ज़्यादातर लोग आपसी बातचीत में रूसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। कई लोगों के दोस्त और रिश्तेदार सीमा के उस पार भी हैं। शायद यही वजह रही होगी जिसके चलते व्लादिमीर पुतिन ने सोचा कि उनकी फौज़ खारकीएव, मारियुपोल, सूमी या खेरसोन में जाकर क़ब्ज़ा कर सकती है।
 
लेकिन लोगों के रुख़ का आकलन करने में उनसे ग़लती हुई। रूस ने साल 2014 के बाद पूर्वी यूक्रेन में जिस तरह युद्ध को बढ़ावा दिया, उसकी वजह से यूक्रेन एक देश के रूप में पहले ही बदल चुका था। यूक्रेन के लोगों, यहां तक कि रूसी भाषा बोलने वालों के बीच भी, एक मज़बूत राष्ट्रीय पहचान विकसित हुई।
 
लेकिन अब जबकि 2014 का युद्ध एक रूसी आक्रमण में बदल चुका है तो भाइचारे के संबंधों की रही-सही कसर भी ख़त्म हो चुकी है। इस युद्ध में वो लोग मारे जा रहे हैं जिन्हें बचाने का दावा व्लादिमीर पुतिन कर रहे हैं।
 
युद्धग्रस्त इलाकों से गुज़रते हुए हमने कई चेकप्वॉइंट देखे। गेहूं के खेतों में की गई मोर्चेबंदी देखी। हमने कई विशाल बिलबोर्ड देखे जिनमें रूस और पुतिन के लिए लिखा गया था - 'यहां से चले जाएं'।
 
रूसी सैनिकों के लिए दूसरे संदेशों में लिखा गया: "अपने परिवारों के बारे में सोचें" "आत्मसमर्पण करें और ज़िंदा रहें"
 
युद्ध के पहले तीन हफ़्तों में हमने ज़्यादातर समय खारकीएव से 200 किलोमीटर दक्षिण में स्थित निपरो शहर में बिताया। ये शहर यूक्रेन की एक विशाल नदी के तट पर स्थित है जो पूर्वी और पश्चिमी यूक्रेन को विभाजित करती है।
 
निपरो अपेक्षाकृत काफ़ी सुरक्षित क्षेत्र था क्योंकि रूस दूसरे शहरों पर बमबारी करके उन्हें झुकाना चाहता था। लेकिन 11 मार्च को हम रातभर हवाई हमलों की चेतावनी सुनते हुए सिटी सेंटर पर हमले की ख़बरों के साथ उठे।
 
कुछ देर बाद हम एक सुलगती हुई जूते बनाने की फ़ैक्ट्री के पास खड़े हुए थे जिस पर रूसी मिसाइल से हमला हुआ था। इस हमले में सिक्योरिटी गार्ड के रूप में काम करने वाले एक वृद्ध व्यक्ति की मौत हो गई।
 
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अफ़रातफ़री मच गई
अपने घर की सीढ़ियों पर बिखरे कांच के टुकड़े साफ करते हुए नताशा अपने बेटे की चीख़ों को बयां करती हैं और ऐसा करते-करते वह बिलख-बिलख कर रोने लगती हैं। अपने चेहरे को हाथों से ढके हुए नताशा कहती हैं, "वे हमें किन चीज़ों से मार रहे हैं।"
 
रूसी भाषा बोलने वाली एक महिला ने रूसी आक्रमण पर सवाल उठाते हुए कहा कि "हमने नहीं कहा था कि हमें बचाया जाए।"
 
ये वो बात थी जो मैं इससे पहले भी कई बार सुन चुकी थी। लेकिन इस समय तक लोगों ने निपरो छोड़ना शुरू कर दिया था।
 
केंद्रीय खारकीएव में स्थित यूनिवर्सिटी पर हमला होने के बाद लोगों ने शहर छोड़ना शुरू किया। अचानक लोगों को लगने लगा कि कोई भी सुरक्षित नहीं है, युद्ध के मैदान से दूर रहने वाले लोग भी।
 
फिर लोगों ने बचाव अभियान में लगाई गई ट्रेनों में सवार होने की जद्दोजहद शुरू कर दी। ये मंज़र कुछ ऐसा था जिसमें महिलाएं रोती-चिल्लाती दिख रही थीं, पालतू पशु भीड़ में दबते दिख रहे थे और पुरुष परिवार से अपने आँसू छिपाते हुए दिख रहे थे।
 
मैंने एक व्यक्ति को देखा जो एक जाती हुई ट्रेन की खिड़की पर हाथ रखे हुए बार-बार कह रहा था कि कुछ नहीं होगा-कुछ नहीं होगा।
 
खिड़की के उस पार इस व्यक्ति की पत्नी और बेटी थी जो उसे उससे दूर ले जा रही थी, न जाने कितने वक़्त के लिए। 
 
दूसरे तमाम पुरुषों की तरह उसे भी रुककर युद्ध में भाग लेने के लिए बुलाए जाने का इंतज़ार करना था।
 
खारकीएव से निकलना मुश्किल
खारकीएव से निकलना काफ़ी मुश्किल था, हमें इसका एहसास तब हुआ जब हमें पोलिना नाम की बच्ची के बारे में पता चला।
 
तीन साल की ये बच्ची कैंसर से जूझ रही थी और उसकी दवाइयां ख़त्म हो रही थीं। परिवार को जल्द से जल्द खारकीएव से बाहर निकलना था, लेकिन ये शहर भारी रूसी गोलीबारी की चपेट में था और पोलिना के माता-पिता घर से बाहर क़दम रखने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे।
 
जब मैं इस बच्ची की माँ केसीनिया से बात कर रही थी तभी अचानक ये बच्ची वीडियो कॉल पर आ गई। ये बच्ची तकियों से भरे बाथटब में खेल रही थी क्योंकि केसीनिया को लगा कि अगर उनकी इमारत पर हमला हुआ तो इन तकियों के बीच बच्ची सुरक्षित रहेगी।
 
बमबारी रुक नहीं रही थी, ऐसे में पोलिना के घरवालों ने किसी तरह हिम्मत करते हुए ट्रेन स्टेशन जाने तक की जोख़िम भरी यात्रा की।
 
कुछ दिनों बाद केसीनिया ने मुझे अपनी बच्ची के वीडियो भेजे जिसमें वह ग्रामीण पोलैंड में उन्हें शरण देने वाले परिवार के बगीचे में खेल रही थी। बच्ची की माँ ने कहा कि जब उसे सीमा पर वॉलंटियर मिले तो उसकी आंखों में आँसू आ गए।
 
केसीनिया बताती हैं, "चार दिनों तक भागने के बाद हम अचानक से रुक गए। मैं काफ़ी दुखी थी। मुझे इस बात की तसल्ली है कि मेरे बच्चे सुरक्षित हैं, लेकिन हमारी पूरी ज़िंदगी खारकीएव में पीछे छूट गई है। पोलिना पूछती रहती है कि उसके पिता कहां हैं लेकिन मुझे समझ नहीं आता कि मैं क्या कहूं।"
 
गाड़ियों की खिड़कियों पर लिखा था - 'देती'
हम जल्द ही खारकीएव की ओर रवाना हुए। उत्तर की ओर बढ़ते हुए हमने छह किलोमीटर लंबी कारों की कतार देखी जो उल्टी दिशा में जा रही थीं। कई लोगों की गाड़ियों पर हाथ से लिखे हुए साइनबोर्ड चिपके देखे जिनमें लिखा था "देती"। रूसी भाषा में इस शब्द का मतलब बच्चे होता है।
 
लोगों ने ये साइनबोर्ड इस उम्मीद के साथ अपनी कारों पर लिखे थे कि शायद ये उन्हें हमले से बचाएंगे।
 
खारकीएव के पास चेकप्वॉइंट पर हमने धमाकों की आवाज़ें सुनी जिसके बाद हमें तबाही का मंज़र नज़र आया।
 
हमें एक अपार्टमेंट बिल्डिंग नज़र आई जिसका आधा हिस्सा ध्वस्त हो चुका था, एक शॉपिंग सेंटर का मलबा दिखा और कई लोग दिखे जो पिघलती बर्फ में इस इलाके से बाहर जाने के लिए बस का इंतज़ार कर रहे थे। लेकिन बस आने का कोई वक़्त तय नहीं था। सिर्फ़ एक अफवाह भर थी।
 
एक फ़िटनेस इंस्ट्रक्टर स्वेतलाना ने मुझे बताया कि एक दिन पहले उनके फ़्लैट से पचास मीटर दूर एक मिसाइल आकर गिरी और वह एक पल भी अपनी ज़िंदगी जोख़िम में नहीं डालना चाहती थीं।
 
अपने कोट में एक कांपते से कुत्ते को छिपाए, वह कहती हैं, "हम एक हफ़्ते से सोए नहीं हैं, वे हमारे घरों पर हमले कर रहे हैं।" और इस महिला से बात करते हुए मैं बम के धमाके सुन सकती थी।
 
अधर में लटकी ज़िंदगियां
कुछ दूरी पर हज़ारों लोगों ने तलघरों में शरण ली हुई थी। कई परिवार नज़दीकी मेट्रो स्टेशनों की सीढ़ियों, प्लेटफ़ॉर्म और ट्रेनों में शरण लिए हुए थे। वॉलंटियर उनके लिए साबुन और ब्रेड लेकर आए थे लेकिन कई नौनिहालों, बच्चों और वृद्ध लोगों ने अपने दिन जमीन पर कंबलों में सोते हुए काटे।
 
ये लोग ज़िंदा थे लेकिन इनकी ज़िंदगियां अधर में लटकी हुई थीं क्योंकि सामान्य ज़िंदगी रुक-सी गई थी।
 
घर आते हुए फ़्लाइट में मेरे साथ एक पति-पत्नी बैठे हुए थे जो कि कीएव से भागे हुए थे और लंदन में अपनी बेटी के साथ रहने वाले थे।
 
इन्होंने यूक्रेन से होते हुए मॉल्डोवा और रोमानिया तक की यात्रा सड़क मार्ग से की थी और अब ये बहुत थके हुए थे।
 
लेकिन ये काफ़ी गुस्से में भी थे। रूसी भाषा में बात करते हुए इन लोगों ने कहा कि रूस में रहने वाले उनके रिश्तेदार, जो कुछ उनके साथ हुआ है, उस पर यक़ीन करने के लिए तैयार नहीं हैं।
 
निकोलाई ने उन्हें रूसी मिसाइलों से ध्वस्त हुए कीएव के अपार्टमेंट, मारियुपोल की घेरेबंदी, भूख से जूझते लोगों और सड़कों पर होती हत्याओं की तस्वीरें भेजीं।
 
लेकिन उनके रिश्तेदारों ने कहा कि ये तस्वीरें फ़र्ज़ी हैं और उन्होंने इसके लिए कीएव की "नाज़ी" सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि यूक्रेन वाले ख़ुद पर बम बरसा रहे हैं।
 
मैं कई बहादुर रूसी लोगों को जानती हूं जो इस युद्ध का विरोध करते हुए गिरफ़्तार हुए हैं और कई लोगों ने देश छोड़ दिया है।
 
लेकिन अपनी फ़्लाइट से कुछ घंटे पहले मैंने व्लादिमीर पुतिन का एक वीडियो देखा जिसमें वह मॉस्को स्टेडियम में मौजूद भीड़ को संबोधित कर रहे हैं। इस भीड़ में मौजूद लोगों के सीने पर अंग्रेज़ी भाषा के अक्षर ज़ेड का पिन लगा हुआ था जो कि पुतिन के इस युद्ध का भयावह-सा प्रतीक है।
 
रूसी राष्ट्रपति ने अपनी फ़ौज की तारीफ़ की जिसे उन्होंने रूसी भाषा बोलने वाले लोगों को नरसंहार से बचाने के लिए भेजा था।
 
मेरे ज़हन में नीका, नताशा और पोलिनो का नाम आया और मेरी आँखों के आगे वो सब दौड़ गया जो सब कुछ मैंने उस पहले धमाके के बाद देखा है जिसने 24 फ़रवरी को मुझे जगा दिया था और मैं असहज हो गई थी।

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