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26/11: चरमपंथियों का डटकर सामना करने वाले पुलिसकर्मी की कहानी

हमें फॉलो करें 26/11: चरमपंथियों का डटकर सामना करने वाले पुलिसकर्मी की कहानी
, सोमवार, 26 नवंबर 2018 (11:43 IST)
- सौतिक बिस्वास
 
टोयोटा एसयूवी गनपाउडर और ख़ून की बदबू से भर गई थी। कॉन्स्टेबल अरुण जाधव गाड़ी के ​पिछले हिस्से में छुपे हुए थे। वहां बहुत कम जगह थी। जाधव के दाएं हाथ और कंधे में गोली लगी थी और ख़ून निकल रहा था। सड़क पर हुई फ़ायरिंग में घायल हुए तीन कॉन्स्टेबल उनके ऊपर पड़े थे। इनमें से दो की मौत हो चुकी थी।
 
 
शहर के एंटी-टेरर यूनिट के इंचार्ज का शव बीच वाली सीट पर था। उनके सीने पर गोली लगी थी। गाड़ी में बैठे एक पुलिस अधिकारी और इंस्पेक्टर को भी गोली लग गई थी। वहीं, ड्राइवर सीट पर सीनियर इंस्पेक्टर बैठे थे वो भी गोली लगने से स्टेयरिंग पर गिरे हुए थे।
 
 
वो 26 नवंबर 2008 की शाम थी। भारत की आर्थिक राजधानी और सिनेमा का गढ़ मुंबई दुनिया के सबसे भयावह चरमपंथी हमले की चपेट में थी। उस शाम को दस हथियारबंद चरमपंथी समुद्र के रास्ते मुंबई पहुंचे थे। ये सभी पाकिस्तान से थे। यहां उतरकर चरमपंथी दो समूहों में बंट गए, एक ने गाड़ी का अपहरण किया और पहले से तय जगहों पर निशाना बनाया।
 
 
उन्होंने एक प्रमुख रेलवे स्टेशन, दो लग्ज़री होटल, एक यहूदी सांस्कृतिक केंद्र और एक अस्पताल पर हमला किया। चरमपंथियों ने जैसे 60 घंटों तक पूरे शहर को बंधक बना लिया था। मौत के उस तांडव में 166 लोग मारे गए और कई घायल हो गए। इस हमले ने भारत-पाकिस्तान के बीच की दरार को और गहरा कर दिया।
 
 
जब अस्पताल पर हुआ हमला
अरुण जाधव और अन्य छह पुलिसकर्मी एक सफ़ेद एसयूवी में 132 साल पुराने उस अस्पताल की तरफ़ दौड़े जिस पर चरमपंथियों ने हमला कर दिया था। वहां अस्पताल के स्टाफ़ ने अपनी सूझबूझ से अस्पताल के वार्ड्स पर ताला लगा दिया था ताकि मरीज़ों की जान बचाई जा सके।
 
 
"हमसे पहले पुलिस अस्पताल में घुस चुकी थी। तभी ऊपरी मंज़िल से फ़ायरिंग हुई। इसके जवाब में एक सीनियर ऑफ़िसर ने भी फ़ायरिंग की। इसके बाद बंदूक़धारी वहां से भाग गए और अस्पताल के पीछे ​ताड़ के पेड़ों वाले रास्ते पर छुप गए। तभी वहां पर हमारी एसयूवी पहुंची।"
 
 
"हम पहुंचे ही थे कि कुछ ही सेकेंड में चरमपंथियों ने हम पर हमला बोल दिया और गाड़ी के अंदर दो राउंड फ़ायरिंग की।" ये हमला इतना औचक था कि सिर्फ़ अरुण जाधव ही जवाबी फ़ायरिंग कर पाए बाक़ी सभी पुलिसकर्मी गोलियों से छलनी हो गए। उन्होंने फ़ायरिंग का जवाब देते हुए गाड़ी की पिछली सीट से बंदूक़धारियों को तीन गोलियां मारीं।
 
 
बंदूक़धारियों ने तुरंत ही आगे और बीच की सीट से तीनों अधिकारियों के शव निकालकर सड़क पर पटक दिए। उनमें से एक ने ये भी कहा कि सिर्फ़ एक पुलिसवाले ने बुलेट प्रूफ़ जैकेट पहनी है। इसके बाद वो बाक़ी शवों को निकालने के लिए पीछे का दरवाज़ा खोलने लगे लेकिन दरवाज़ा नहीं खुला।
 
 
मोहम्मद अजमल आमिर कसाब और इस्माइल ख़ान को लगा कि पीछे की तरफ़ चार लाशें पड़ी हैं। असल में, उनमें से एक ज़िंदा था और दूसरा धीरे-धीरे सांसे ले रहा था। बाक़ी दो मर चुके थे। तभी अचानक कॉन्स्टेबल योगेश पाटिल की जेब में फ़ोन बजना शुरू हो गया। वे ऑपरेशन पर जाने से पहले उसे साइलेंट करना भूल गए थे।
 
 
फ़ोन की आवाज़ सुनकर कसाब ने पीछे की तरफ़ फिर से गोलियां चलाईं। गोली बीच की सीट से होते हुए योगेश पाटिल को जा लगी और उनकी मौत हो गई। लेकिन, ख़ून से भीगे और लाशों के बीच दबे हुए अरुण जाधव के ज़िंदा होने के बारे में चरमपंथी नहीं जानते थे। वो कहते हैं, "अगर कसाब ने अपनी बंदूक़ थोड़ा और घुमाई होती तो मैं भी ज़िंदा नहीं होता।"
 
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लोग मौत को क़रीब से देख रहे थे
मौत को क़रीब से देखने वालों को लेकर किए गए अध्ययनों में बताया जाता है कि उस वक़्त लोग शांति और शरीर से अलगाव महसूस करते हैं। उन्हें किसी सुरंग के अंत में तेज़ रोशनी और साये दिखाई दे रहे थे। लेकिन, मुंबई के आसपास के ​इलाक़ों में लंबे समय से अपराध का सामना कर रहे अरुण जाधव को ऐसा कुछ भी महसूस नहीं हुआ।
 
 
परिवार से जुड़ी यादें जैसे उनकी आखों के सामने तैरने लगीं। उन्हें लगा कि जैसे अब उनका समय ख़त्म हो चुका है। 51 साल के अरुण जाधव बताते हैं, "मैं उस वक़्त सोच रहा था कि मैं जल्द ही मर जाऊंगा। मैं अपने बीवी-बच्चे, माता-पिता को याद कर रहा था। मुझे लगा कि यही मेरा अंत है।"
 
 
अरुण जाधव ने बताया कि फिर उन्होंने किसी तरह अपनी बंदूक़ उठाने की कोशिश की, जो कार में गिर गई थी। लेकिन, उनकी घायल बाजू में बिल्कुल भी ताक़त नहीं थी। अब उन्हें अपनी 9एमएम की पिस्तौल न होने का अफ़सोस हो रहा था। उन्होंने गाड़ी पर चढ़ते वक़्त वो पिस्तौल अपने सहकर्मी को दे दी थी। वह कहते हैं, "मैं किसी हल्के हथियार से आसानी से बंदूक़धारियों को मार सकता था।"
 
 
चरमपंथियों के साथ गाड़ी में
अब चरमपंथी गाड़ी में बैठ गए थे और तेज़ी से उसे दौड़ाने लगे। एक क्रॉसिंग पर उन्होंने बाहर खड़े लोगों पर गोलियां बरसा दीं। इससे अफ़रा-तफ़री मच गई। बाहर मौजूद पुलिस ने गाड़ी पर गोली चलाई और पीछे के पहिये पर गोली लगी। गाड़ी में मौजूद वायरलेस से दूसरी जगहों पर हुए हमलों के लगातार संदेश आ रहे थे। एक संदेश आया, "कुछ ही देर पहले एक पुलिस वैन से फ़ायरिंग हुई है।"
 
 
लेकिन, बंदूक़धारियों ने उस पंक्चर टायर से 20 मिनट तक गाड़ी चलाई जब तक कि टायर बाहर नहीं आ गया। उसके बाद उन्होंने गाड़ी छोड़ दी और एक स्कोडा सेडान को रोका और उसमें मौजूद तीन लोगों को बाहर निकाल दिया। फिर ख़ुद गाड़ी लेकर समुद्र की तरफ़ चले गए। फिर वे एक पुलिस चेकप्वाइंट में घुस गए। वहां भी फ़ायरिंग हुई, जिसमें इस्माइल और एक पुलिसकर्मी की मौत हो गई। सिर्फ़ कसाब को ही ज़िंदा पकड़ा जा सका।
 
 
जाधव कहते हैं, "मैं गाड़ी में मरने का नाटक कर रहा था और सीट के पीछे से सब देख रहा था।" चरमपंथियों के जाने के बाद उन्होंने किसी तरह वायरलेस उठाया और कंट्रोल रूम को घटना की जानकारी दी और मदद मांगी। जब एंबुलेंस उन तक पहुंची तो वो बिना किसी मदद के उसमें चढ़े और फिर उन्हें अस्पताल ले जाया गया।
 
 
उस गाड़ी में मारे गए तीन लोग शहर के शीर्ष पुलिसकर्मी थे। इनमें शहर के एंटी-टेररिस्ट स्कवाड के प्रमुख हेमंत करकरे, एडिशनल कमिशनर अशोक कामटे और इंस्पेक्टर विजय सलास्कर शामिल थे।
 
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मुख्य गवाह बने जाधव
1988 में मुंबई ज्वाइन करने के बाद अरुण जाधव की पदोन्नित हुई और उन्हें गैंगस्टर्स का ख़ात्मा करने के लिए सलास्कर की टीम में शामिल किया गया। जब जाधव ज़िंदगी और मौत के बीच फंसे थे तब उनके एक कमरे के घर में पत्नी और तीन बच्चे पूरी रात इन हमलों से जुड़ी ख़बरें टीवी पर देख रहे थे। जब इस मुठभेड़ की ख़बर आई तो वे भगवान से प्रार्थना कर रही थे।
 
 
अरुण जाधव ने अस्पताल पहुंचने के बाद अगली सुबह अपनी पत्नी से बात की। उनका ऑपरेशन किया गया और हाथ और कंधे से पांच गोलियां निकाली गईं। उनका इलाज करने वाले डॉक्टर हैरान थे कि इन सबके बावजूद भी उन्हें सदमा नहीं लगा। उन्हें सात महीनों तक आराम करने के लिए कहा गया।
 
 
कसाब को सज़ा दिलाने में अरुण जाधव प्रमुख चश्मदीद बने। उन्होंने जेल में कसाब को पहचाना और उस दिन की हर एक बात बहुत बारीकी से जज के सामने रखी। मार्च 2010 में कसाब को फांसी की सज़ा सुनाई गई। दो साल बाद पुणे की जेल में कसाब को फांसी दे दी गई।
 
 
अरुण जाधव को उनकी बहादुर के लिए सम्मानित भी किया गया और मुआवज़ा भी दिया गया। उनकी बड़ी बेटी को सरकारी नौकरी दी गई। उनका एक बेटा और बेटी इंजीनियरिंग और कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई कर रहे हैं।

 
अब कैसी है ज़िंदगी
दस साल बाद भी अरुण जाधव के लिए ज़िंदगी बहुत ज़्यादा नहीं बदली है। काम के दौरान वो अब भी अपराधियों को पकड़ने की कोशिश करते हैं। बाद में उनके हाथ की दो सर्जरी हुईं। वह बताते हैं कि अब भी हाथ में दर्द होता है और ध्यान भी ज़्यादा रखना पड़ता है।
 
 
हालांकि, कुछ चीज़ें बदली हैं। अब वो किसी ऑपरेशन में जाने से पहले अपने परिवार को बताते हैं। सोमवार को इस हमले के 10 साल पूरे होने पर गेटवे ऑफ़ इंडिया पर एक डॉक्यूमेंट्री दिखाई जाएगी जिसमें अरुण जाधव का इंटरव्यू भी होगा। हालांकि, अरुण जाधव उस दिन शहर में नहीं होंगे। वह अपने परिवार के साथ उत्तर भारत में किसी गुरु के आश्रम में जा रहे हैं।
 
 
वह कहते हैं, "ऐसी घटना के बाद दिमाग़ को शांत रखना मुश्किल हो सकता है। कभी-कभी बीच रात में जग जाने पर मुझे फिर से नींद नहीं आती। मुझे उस दिन की कुछ घटनाएं याद आने लगती हैं।"
 
 
"मुझे हैरानी होती है ​कि मैं मौत के मुंह से कैसे बचकर आ गया। मुझे ख़ुद नहीं पता। शायद मैं ख़ुशक़िस्मत था? या मैंने अच्छे काम किए थे? या फिर इससे भी आगे कुछ और? मुझे लगता है कि ये कभी पता नहीं चलेगा।"
 

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