16 जुलाई से सूर्यदेव ने कर्क राशि में प्रवेश कर लिया है। सूर्य के कर्क में प्रवेश करने के कारण ही इसे कर्क संक्रांति कहा जाता है। इस दिन सूर्य देव के साथ ही अन्य देवता गण भी निद्रा में चले जाते हैं। सृष्टि का भार भोलेनाथ संभालेंगे इसीलिए श्रावण मास में शिव पूजन का महत्व बढ़ जाता है।
28 जुलाई से श्रावण मास आरंभ हो जाएगा वहीं श्रावण का प्रथम सोमवार 30 जुलाई को आ रहा है। 27 जुलाई को गुरु पूर्णिमा के अलावा चंद्र ग्रहण भी है। इस तरह से अब जो त्योहारों की कड़ी आरंभ होगी तो वर्षांत तक जारी रहेगी।
कर्क संक्रांति से भगवान विष्णु के पूजन का खास महत्व होता है यह पूजन एकादशी तक निरंतर जारी रहता है क्योंकि इस एकादशी के दिन विष्णु देव शयन आरंभ कर देते हैं। इसीलिए इसे देवशयनी एकादशी कहते हैं। इस दिन से 4 महीनों के लिए देव शयन करने चले जाते हैं।
कर्क संक्रांति के दिन कपड़े, खाद्य सामग्री और तेल दान का बहुत महत्व होता है। इस संक्रांति को मानसून के प्रारंभ के रूप में भी जाना जाता है। कर्क संक्रांति के साथ शुरू होने वाला दक्षिणायन मकर संक्रांति पर समाप्त होता है जिसके बाद उत्तरायण प्रारंभ होता है।
दक्षिणायन के चारों महीनों में भगवान विष्णु और भगवान शिव का पूजन किया जाता है। इस बीच लोग अपने पितरों की शांति के लिए पूजन अथवा पिंडदान आदि भी करते हैं।
कर्क संक्रांति को किसी भी शुभ और महत्वपूर्ण नए कार्य के प्रारंभ के लिए शुभ नहीं माना जाता है। इस समय किए जाने वाले कार्यों में देवों का आशीर्वाद नहीं मिलता।
कर्क संक्रांति : 11 खास बातें
सूर्य जब किसी राशि का संक्रमण करते हैं तो यह संक्रांति होती है।
सूर्य प्रत्येक राशि में संक्रमण करते हैं इसलिए 12 संक्रांति होती हैं।
इनमें से मकर संक्रांति और कर्क संक्रांति का विशेष महत्व होता है।
जिस तरह से मकर संक्रांति से अग्नि तत्व बढ़ता है चारों तरफ सकारात्मक और शुभ ऊर्जा का प्रसार होने लगता है उसी तरह कर्क संक्रांति से जल तत्व की अधिकता हो जाती है। इससे वातावरण में नकारात्मकता आने लगती है।
दूसरे शब्दों में सूर्य के उत्तरायन होने से शुभता में वृद्धि होती है वहीं सूर्य के दक्षिणायन होने से नकारात्मक शक्तियां प्रभावी हो जाती है और देवताओं की शक्ति कमजोर होने लगती है।
यही वजह है कि दक्षिणायन से आरंभ कर्क संक्रांति से चातुर्मास आरंभ हो जाता है और शुभ कार्यों की मनाही हो जाती है।
लोग सूर्योदय के समय पवित्र नदियों में स्नान करते हैं और सूर्यदेव से सदा स्वस्थ रहने से कामना करते हैं।
भगवान शिव, विष्णु और सूर्यदेव के पूजन का खास महत्व होता है।
विष्णु सहस्त्रनाम का जाप किया जाता है।
दान, पूजन और पुण्य कर्म आरंभ हो जाते हैं।
4 माह किसी भी शुभ और नए कार्य का प्रारंभ नहीं करना चाहिए।
क्या सच में सोने चले जाएंगे सारे देवता
वास्तव में यह एक पारंपरिक धारणा है कि सृष्टि का कार्यभार संभालते हुए भगवान विष्णु बहुत थक जाते हैं। तब माता लक्ष्मी उनसे निवेदन करती है कि कुछ समय उन्हें सृष्टि की चिंता और भार देवों के देव महादेव को भी देना चाहिए। तब हिमालय से महादेव पृथ्वीलोक पर आते हैं और 4 मास तक संसार की गतिविधियां वही संभालते हैं। जब चार मास पूर्ण होते हैं तब शिव जी कैलाश की तरफ रूख करते हैं। यह दिन एकादशी का ही होता है। जिसे देवउठनी एकादशी या देवप्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। इस दिन हरिहर मिलन होता है। भगवान अपना कार्यभार आपस में बदलते हैं। चुंकि भगवान शिव गृहस्थ होते हुए भी सन्यासी हैं अत: उनके राज में विवाह आदि कार्य वर्जित होते हैं लेकिन पूजन और अन्य पर्व धूमधाम से मनाए जाते हैं। वास्तव में देवताओं का सोना प्रतीकात्मक ही होता है। इन दिनों कुछ शुभ सितारे भी अस्त होते हैं जिनके उदित रहने से मंगल कार्यों में शुभ आशीर्वाद मिलते हैं। अत: इस काल में सिर्फ पुण्य अर्जन और देवपूजन का ही प्रचलन है।