देवशयनी (हरिशयनी) एकादशी विशेष : राजा बली की कथा, महत्व और शुभ मुहूर्त यहां मिलेंगे आपको

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हरिशयनी (देवशयनी) एकादशी : मुहूर्त, महत्व और राजा बली की कथा 
 
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की 11वीं तिथि, 12 जुलाई को देवशयनी या हरिशयनी एकादशी मनाई जाएगी। इस दिन से सभी शुभ कारज बंद हो जाएंगे। मतांतर से पूजन, अनुष्ठान, मरम्मत, घर में गृह प्रवेश, वाहन क्रय जैसे आवश्यक कार्य संपन्न हो सकते हैं। देवशयनी एकादशी से लेकर अगले चार महीने (जिन्हें चातुर्मास कहा जाता है) के लिए भगवान देवप्रबोधनी तक निद्रा में चले जाते हैं।
 
इस वर्ष 11 जुलाई को शाम प्रदोष काल से भगवान विष्णु की पूजा शुरू हो जाएगी। एकादशी के पूर्णमान तक पूजन जारी रहेगा।
 
शुभ मुहूर्त :हरिशयनी एकादशी 11 जुलाई 2019 की रात 3:08 से 12 जुलाई रात 1:55 मिनट तक रहेगी। प्रदोष काल शाम साढ़े 5 से साढ़े 7 बजे तक रहेगा। इस दौरान आरती दान पुण्य का विशेष लाभ भक्तों को मिलेगा। देवशयनी एकादशी के दिन भगवान को नए वस्त्र पहनाकर, नए बिस्तर पर सुलाएं क्योंकि इस दिन के बाद भगवान सोने के लिए चले जाते हैं।
 
इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में भगवान की खास पूजा की जाती है। साथ ही रात्रि में जागरण करके विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें और जमीन पर बिस्तर लगाकर ही सो जाएं। पुराणों के अनुसार जो भी भक्त एकादशी का उपवास रखता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। साथ ही सभी पापों का नाश भी हो जाता है और स्‍वर्गलोक की प्राप्ति होती है।

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की इस एकादशी को पद्मनाभा, आषाढ़ी, हरिशयनी और देवशयनी एकादशी भी कहा जाता है। श्री नारायण ने एकादशी का महत्त्व बताते हुए कहा है कि देवताओं में श्री कृष्ण, देवियों में प्रकृति, वर्णों में ब्राह्मण तथा वैष्णवों में भगवान शिव श्रेष्ठ हैं। उसी प्रकार व्रतों में एकादशी व्रत श्रेष्ठ है। 
 
देवशयनी एकादशी की रात में जागरण करके शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करने वाले के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं। यह एकादशी भगवान सूर्य के मिथुन राशि में प्रवेश करने पर प्रारंभ होती है और इसके साथ ही भगवान मधुसूदन का शयनकाल शुरू हो जाता है एवं कार्तिक शुक्ल एकादशी को सूर्यदेव के तुला राशि में आने पर भगवान जनार्दन योगनिद्रा से जागते हैं। लगभग चार माह के इस अंतराल को चार्तुमास कहा गया है। 
 
धार्मिक दृष्टि से ये चार महीने भगवान विष्णु के निद्राकाल माने जाते हैं। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इस दौरान सूर्य व चंद्र का तेज पृथ्वी पर कम पहुंचता है, जल की मात्रा अधिक हो जाती है, वातावरण में अनेक जीव-जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जो अनेक रोगों का कारण बनते हैं। इसलिए साधु-संत, तपस्वी इस काल में एक ही स्थान पर रहकर तप, साधना, स्वाध्याय व प्रवचन आदि करते हैं। इन दिनों केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है, क्योंकि इन महीनों में भूमण्डल के समस्त तीर्थ ब्रज में आकर वास करते हैं। 

गरुड़ध्वज जगन्नाथ के शयन करने पर विवाह, यज्ञोपवीत, संस्कार, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गोदान, गृहप्रवेश आदि सभी शुभ कार्य चार्तुमास में त्याज्य हैं। इसका कारण यह है कि जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर बली से तीन पग भूमि मांगी, तब दो पग में पृथ्वी और स्वर्ग को श्री हरि ने नाप दिया और जब तीसरा पग रखने लगे तब बली ने अपना सिर आगे रख दिया।  
 
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक अन्य प्रसंग में एक बार 'योगनिद्रा' ने बड़ी कठिन तपस्या कर भगवान विष्णु को प्रसन्न किया और उनसे प्रार्थना की -'भगवान आप मुझे अपने अंगों में स्थान दीजिए'। लेकिन श्री हरि ने देखा कि उनका अपना शरीर तो लक्ष्मी के द्वारा अधिष्ठित है। इस तरह का विचार कर श्री विष्णु ने अपने नेत्रों में योगनिद्रा को स्थान दे दिया और योगनिद्रा को आश्वासन देते हुए कहा कि तुम वर्ष में चार मास मेरे आश्रित रहोगी। 
 
सभी एकादशियों को श्री नारायण की पूजा की जाती है, लेकिन इस एकादशी को श्री हरि का शयनकाल प्रारम्भ होने के कारण उनकी विशेष विधि-विधान से पूजा करनी चाहिए। पदम् पुराण के अनुसार देवशयनी एकादशी के दिन कमललोचन भगवान विष्णु का कमल के फूलों से पूजन करने से तीनों लोकों के देवताओं का पूजन हो जाता है।

 
देवशयनी एकादशी के दिन उपवास करके भगवान विष्णु की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करवाएं। इसके पश्चात् पीत वस्त्रों व पीले दुपट्टे से सजाकर श्री हरि की आरती उतारनी चाहिए। भगवान को पान-सुपारी अर्पित करने के बाद इस मन्त्र के द्वारा स्तुति करें -
 
'सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत सुप्तं भवेदिदम।
विबुद्धे त्वयि बुध्येत जगत सर्वं चराचरम।'
 
'हे जगन्नाथ जी! आपके सो जाने पर यह सारा जगत सुप्त हो जाता है और आपके जाग जाने पर सम्पूर्ण विश्व तथा चराचर भी जागृत हो जाते हैं। प्रार्थना करने के बाद भगवान को श्वेत वस्त्रों की शय्या पर शयन करा देना चाहिए। चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैं, इसलिए शास्त्रानुसार मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए। सावन में साग, भादों में दही, क्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए। 

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