जीरो थे हीरो अमिताभ

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11 अक्टूबर 1942 को जन्मे सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की सफलता को तो सब देखते हैं, लेकिन इस सफलता के पीछे छिपा हुआ संघर्ष नजर नहीं आता। फिल्मों में आने के पहले भी अमिताभ ने संघर्ष किया। फिल्मों में आने के बाद उनकी संघर्ष की राह और कठिन हो गई। उन्होंने जो फिल्में की वे बुरी तरह फ्लॉप हो गईं। कई लोगों ने उन्हें घर लौट जाने की या कवि बनने की सलाह भी दे डाली। ‘जंजीर’ के हिट होने के पहले तक उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। आइए नजर डालें उस आरंभिक संघर्ष पर।

सात में से एक हिन्दुस्तानी 
अजिताभ ने अमिताभ की कुछ तस्वीरें निकाली थीं, उन्हें ख्वाजा अहमद अब्बास के पास भिजवा दिया गया था। उन दिनों वे सात हिन्दुस्तानी फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे थे। इन सात में एक मुस्लिम युवक का रोल अमिताभ को प्राप्त हुआ। इस चुनाव के वक्त अब्बास साहब को यह नहीं मालूम था कि अमिताभ कवि बच्चन के साहबजादे हैं। उन्होंने उनसे अपने नाम का अर्थ पूछा था। तब उन्होंने कहा था, अमिताभ का अर्थ है सूर्य, और यह गौतम बुद्ध का एक नाम भी है। अब्बास साहब ने अमिताभ से साफ कह दिया था कि वे इस फिल्म के मेहनताने के रूप में पाँच हजार रुपए से अधिक नहीं दे सकेंगे। इसके बाद जब अनुबंध पर लिखा-पढ़ी की नौबत आई। अमिताभ की वल्दियत पूछी गई तो कवि बच्चन के सुपुत्र होने के नाते अब्बास साहब ने साफ कह दिया कि वे उनके पिता से इजाजत लेकर ही उन्हें काम देंगे। अमिताभ को कोई आपत्ति नहीं थी। अंततः उन्हें चुन लिया गया। 1969 में जब अमिताभ की यह पहली फिल्म (सात हिन्दुस्तानी) दिल्ली के शीला सिनेमा में रिलीज हुई, तब अमिताभ ने पहले दिन अपने माता-पिता के साथ इसे देखा। उस समय अमिताभ जैसलमेर में सुनील दत्त की फिल्म रेशमा और शेरा की शूटिंग से छुट्टी लेकर सिर्फ इस फिल्म को देखने दिल्ली आए थे। उस दिन वे अपने पिता के ही कपड़े कुर्ता-पाजामा शॉल पहनकर सिनेमा देखने गए थे, क्योंकि उनका सामान जैसलमेर और मुंबई में था। इसी शीला सिनेमा में कॉलेज से तड़ी मारकर उन्होंने कई फिल्में देखी थीं। उस दिन वे खुद की फिल्म देख रहे थे। 
मीना कुमारी द्वारा प्रशंसा 
अब्बास साहब अपने ढंग के निराले फिल्मकार थे। उन्होंने कभी कमर्शियल सिनेमा नहीं बनाया। उनकी फिल्मों में कोई न कोई सीख अवश्य होती थी। यह फिल्म चली नहीं, लेकिन प्रदर्शित हुई, यही बड़ी बात थी। रिलीज होने से पहले मीनाकुमारी ने इस फिल्म को देखा था। अब्बास साहब मीनाकुमारी का बहुत आदर करते थे। वे अपनी हर फिल्म के ट्रायल शो में उन्हें जरूर बुलाते थे। वे उनकी सर्वप्रथम टीकाकार थीं। ट्रायल शो में मीनाकुमारी ने अमिताभ के काम की तारीफ की थी, तब अमिताभ लजा गए थे। 
 
संघर्ष जारी था
संघर्ष के दिनों में अमिताभ को मॉडलिंग के ऑफर मिल रहे थे, लेकिन इस काम में उनकी कोई रुचि नहीं थी। जलाल आगा ने एक विज्ञापन कंपनी खोल रखी थी, जो विविध भारती के लिए विज्ञापन बनाती थी। जलाल, अमिताभ को वर्ली के एक छोटे से रेकॉर्डिंग सेंटर में ले जाते थे और एक-दो मिनट के विज्ञापनों में वे अमिताभ की आवाज का उपयोग किया करते थे। प्रति प्रोग्राम पचास रुपए मिल जाते थे। उस दौर में इतनी-सी रकम भी पर्याप्त होती थी, क्योंकि काफी सस्ता जमाना था। वर्ली की सिटी बेकरी में आधी रात के समय टूटे-फूटे बिस्कुट आधे दाम में मिल जाते थे। अमिताभ ने इस तरह कई बार रातभर खुले रहने वाले कैम्पस कॉर्नर के रेस्तराओं में टोस्ट खाकर दिन गुजारे और सुबह फिर काम की खोज शुरू।

रेशमा और शेरा में गूँगे अमिताभ 
सुनील दत्त की 'रेशमा और शेरा' डाकू समस्या पर बनी फिल्म थी और इसकी नायिका वहीदा रहमान थीं। अमिताभ ने इसमें एक गूँगे का रोल किया था, यानी उन्हें सिर्फ भावाभिनय करने का अवसर ही दिया गया था। कहते हैं कि इस फिल्म में पहले अमिताभ के भी डायलॉग थे, लेकिन बाद में वे डायलॉग विनोद खन्ना को दे दिए गए। अगर दत्त साहब ने उस फिल्म में अमिताभ से संवाद बुलवाए होते तो स्वयं उनके संवाद फीके पड़ जाते। अमिताभ की पसंद के खास हीरो-हीरोइन दिलीप कुमार और वहीदा रहमान हैं। 'रेशमा और शेरा' में गूँगे अमिताभ का विवाह वहीदा रहमान से कराया गया था। यह अमिताभ का पहला फिल्मी विवाह था। 
 
अनवर अली की मेहरबानी 
कलकत्ता में अपनी सारी पगार दोनों भाई स्वयं पर खर्च कर डालते थे और माँ-बाप से भी पैसे मँगा लिया करते थे, लेकिन इस बार अमिताभ यह प्रतिज्ञा करके बंबई आए थे कि घर से कोई मदद नहीं लेंगे। अमिताभ जब बंबई आए, तब तक बंटी स्वयं ही मद्रास से स्थानांतरित होकर बंबई में कोलाबा की एक लॉज में आकर ठहर गए थे। शुरू में अमिताभ भी उन्हीं के साथ रहे, लेकिन छः महीने बाद शॉ वॉलेस कंपनी ने अजिताभ को फिर मद्रास बुला लिया। पहली दो फिल्मों की कमाई से आखिर कितने दिन काम चल सकता था। अब तो रहने के लिए खोली के भी वांदे पड़ गए। वे अपने माता-पिता की एक परिचित शंकरीबाई खेतान के मरीन ड्राइव स्थित मकान में रहने लगे, लेकिन वह जगह फिल्मी क्षेत्र से दूर पड़ती थी। ऐसे संकट के समय हास्य अभिनेता मेहमूद के भाई अनवर अली, जिन्होंने 'सात हिन्दुस्तानी' फिल्म में अमिताभ के समान ही एक रोल किया था, फरिश्ते की तरह मदद को आए। वे अंधेरी में मेहमूद भाईजान के बंगले के एक फ्लैट में रहते थे। मेहमूद ने उन्हें एक लाल जगुआर गाड़ी भी दे रखी थी। अमित भी अनवर के साथ रहने लगे थे। दोनों काम की तलाश में एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो साथ-साथ ही जाया करते थे। 
 
ऋषिदा से मुलाकात 
ऋषिकेश मुखर्जी से अमिताभ बच्चन का परिचय अब्बास साहब ने ही कराया था। वे उन्हें लेकर ऋषिदा की बांद्रा स्थित खोली पर गए थे। कहा था- 'यह मेरे परिचित हरिवंशराय बच्चन का लड़का है। इसने मेरी फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी' में बहुत अच्छा काम किया है। यह काम की तलाश में है। इसे अपनी किसी फिल्म में काम जरूर दीजिए।' उन दिनों ऋषिकेश मुखर्जी 'आनंद' बनाने की सोच रहे थे। इस कहानी को उन्होंने राजेंद्रकुमार से लेकर जेमिनी के एस.एस. वासन तक को सुनाया था। तब सभी ने कहा था- इसमें रोमांस नहीं है। हीरो के सामने कोई हीरोइन नहीं है। किशोर कुमार और शशिकपूर से भी उन्होंने संपर्क किया था, पर बात बनी नहीं। तभी राजेश खन्ना इस फिल्म में काम करने के लिए अचानक तैयार हो गए। अब उन्हें डॉक्टर की भूमिका के लिए किसी अभिनेता की जरूरत थी और ऐसे में अब्बास साहब अमिताभ को लेकर उनके पास पहुँचे थे। इसके बाद उन्होंने 'सात हिन्दुस्तानी' फिल्म भी देख डाली और इस नतीजे पर पहुँचे कि बाबू मोशाय की अंतर्मुखी भूमिका के लिए अमिताभ का जन्म हुआ है।

आनंद की सफलता
'आनंद' और 'परवाना' फिल्मों में काम करने के बदले अमिताभ को तीस-तीस हजार रुपए का पारिश्रमिक मिला था, इसलिए अमिताभ अनवर अली के फ्लैट को छो़ड़कर जुहू-पार्ले स्कीम में नार्थ-साउथ रोड पर सात नंबर के मकान में रहने लगे। 'आनंद' फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए थे। इसमें अमिताभ बच्चन ने तब के सुपर स्टार राजेश खन्ना के समक्ष जानदार अभिनय करके खासी लोकप्रियता हासिल कर ली थी। हालाँकि सफलता की मंजिल अभी दूर थी। 
 
इस बीच अमिताभ को फिल्मों में 'साइड रोल' ही मिल रहे थे। शुरू की एक दर्जन फिल्में पूरी होने तक अमिताभ जीरो ही थे। इनमें 'आनंद' के अलावा एकमात्र 'बॉम्बे टू गोवा' फिल्म ही ऐसी थी, जिसमें अमिताभ के नटखट रोल को दर्शकों ने चाव से देखा था। मेहमूद और एन.सी. सिप्पी इसके निर्माता थे। अनवर के कहने पर मेहमूद अमिताभ से मिलें। मेहमूद ने अमिताभ से सिर्फ इतना ही पूछा था कि नाचना आता है या नहीं, और अमिताभ का जवाब था, थोड़ा-थोड़ा मगर सीख लूँगा। 
 
मेहमूद ने ताजमहल होटल के डांसिंगफ्लोअर पर बैंड की ताल पर अमिताभ को नचाकर देखा और 'ओके' कर दिया। 1972 में प्रदर्शित यह फिल्म फर्स्ट-रन में तो ज्यादा नहीं चली थी, लेकिन बाद में यह जब-जब भी चली, इसने निर्माताओं की झोली को लबालब भरा।
 
सुपरहिट जंजीर - सुपरहिट अमिताभ 
'जंजीर' (1973) के सुपरहिट होने के पहले तक अमिताभ ने जिन एक दर्जन फिल्मों में काम किया, उनमें 'बॉम्बे टू गोवा'/ परवाना/ आनंद/ रेशमा और शेरा तथा 'सात हिंदुस्तानी' के अलावा प्यार की कहानी/ बंसी-बिरजू/ एक नजर/ संजोग/ रास्ते का पत्थर/ गहरी चाल और बँधे हाथ नामक फिल्में भी थीं, जो बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गईं। फिल्म इंडस्ट्री में अमिताभ को 'अपशकुनी' हीरो माना जाने लगा। 
 
डेढ़-दो वर्षों के इस काल को अमिताभ अपने फिल्मी करियर का खराब समय मानते हैं। लेकिन विफलता के इसी काल में सफलता के बीज भी छुपे थे। रामनाथन की 'बॉम्बे टू गोवा' फिल्म में अमिताभ का काम देखकर ही प्रकाश मेहरा और सलीम जावेद ने 'जंजीर' के लिए अमिताभ को चुना था। इस समय तक अजिताभ भी मुंबई लौटकर अमिताभ के सेक्रेटरी कम बिजनेस मैनेजर का काम देखने लगे थे। 
 
सन्‌ 1972 की जुलाई में जंजीर की शूटिंग शुरू हुई। प्रकाश मेहरा निर्देशक के साथ ही इसके निर्माता भी थे। 'जंजीर' के लिए उन्होंने धर्मेन्द्र के समक्ष पार्टनरशिप का प्रस्ताव रखा था, पर वे राजी नहीं हुए। अभिनेता प्राण के पुत्र रोनी ने, जो अमिताभ का मित्र था, मेहरा के समक्ष फिल्म में अमिताभ को लेने का सुझाव दिया। तब तक अमिताभ से प्रकाश मेहरा की कोई जान-पहचान नहीं थी, बस 'हलो-हाय' के संबंध थे। 
 
रोनी का प्रस्ताव जब मेहरा ने जावेद को बताया तो जावेद ने कहा कि आपने तो मेरे मुँह की बात छीन ली। जावेद ने कहा कि 'बॉम्बे टू गोवा' फिल्म देख लो। फिल्म को देखने के बाद प्रकाश मेहरा ने कहा- मुझे ऐसे ही हीरो की तलाश थी। 'जंजीर' के लिए प्रकाश मेहरा ने देव आनंद और राजकुमार से भी चर्चा की थी, लेकिन वे तैयार नहीं हुए थे, जबकि यह फिल्म अमिताभ बच्चन के लिए नियति का एक वरदान साबित हुई। इस फिल्म में जया भादुड़ी उनकी नायिका थीं, जिनके साथ वे 'बंसी-बिरजू' और 'एक नगर' फिल्में भी कर चुके थे। दोनों के बीच रोमांस भी चल रहा था। 
 
'जंजीर' में अमिताभ ने पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका की थी। पुलिस की वर्दी में वे जँचेंगे या नहीं, प्रकाश मेहरा को शक था। तब सलीम जावेद ने कहा था कि इस रोल के लिए अमिताभ बच्चन से अच्छी कोई चॉइस हो ही नहीं सकती। इस बात का विश्वास मेहरा को फिल्म की पहले दिन की शूटिंग के दौरान ही हो गया। हुआ यूँ कि पुलिस चौकी के इस दृश्य में खान के रूप में प्राण साहब आते हैं और इंस्पेक्टर अमिताभ के सामने रखी कुर्सी पर बैठने लगते हैं। प्राण को बैठने का अवसर भी न देते हुए अमिताभ कुर्सी को धकेलकर संवाद बोलते हैं- 'ये पुलिस स्टेशन है, तुम्हारे बाप का घर नहीं...।' 
 
शॉट देने के बाद प्राण प्रकाश मेहरा को हाथ पकड़कर एक ओर ले जाते हैं और कहते हैं- प्रकाश, अभिनय तो में कई वर्षों से करता आ रहा हूँ, पर ऐसा जबर्दस्त अनुभव मुझे कभी नहीं हुआ। मैं तुम्हें आज ही बता देता हूँ कि हिन्दी-सिनेमा को एक बड़ा भारी एक्टर मिल गया है। दीवार पर लिखी इबारत मुझे साफ नजर आ रही है। शायद ये 'ग्रेटेस्ट स्टार' होगा। 
 
'जंजीर' की सफलता के बाद प्राण, सलीम जावेद और प्रकाश मेहरा धन्य-धन्य हो गए। इस बीच अमिताभ माता-पिता को भी बंबई ले आए थे, क्योंकि राज्यसभा में डॉ. बच्चन का कार्यकाल पूरा हो चुका था और बंटी (अजिताभ) भी शिपिंग की ट्रेनिंग के लिए शॉ वॉलेस कंपनी की तरफ से एक साल के लिए जर्मनी गए थे। जया से भी अमिताभ ने वादा कर रखा था कि 'जंजीर' के हिट होने पर वे छुट्टी मनाने के लिए विदेश जाएँगे। डॉक्टर बच्चन ने फरमान जारी किया कि विदेश जाना हो तो शादी करने के बाद जाओ। यह जून 1973 की बात है। अमिताभ की उम्र तीस साल की हो चुकी थी। दो दिन के शॉर्ट नोटिस पर यह विवाह संपन्न हो गया। शादी के दूसरे ही दिन जया और अमिताभ तीन सप्ताह की लंदन यात्रा के लिए चले गए।

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