2012 का साल क्रिकेट के कीर्तिमान पुरुष सचिन तेंडुलकर के लिए बेहद बुरा साबित हुआ। यही कारण है कि वर्ष का सबसे बड़ा सवाल यही बन गया था कि क्या उन्हें क्रिकेट को गुडबाय कह देना चाहिए? सचिन का अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट करियर 23 को पार गया था और ऐसे में जाहिर था कि उनके उम्र का असर उनके खेल पर नजर आने लगा।
दरअसल, वे खुद भी संन्यास लेने का मूड बना चुके थे, लेकिन चाहते थे कि उनकी विदाई सम्मानपूर्वक हो ताकि आने वाली पीढ़ी उन्हें याद रख सके, लेकिन ऐसा हो न सका। यदि सचिन पाकिस्तान के खिलाफ वनडे सीरीज खेलकर मैदान पर संन्यास लेने का फैसला करते तो शायद उनके इस शानदार करियर का शानदार अंत होता। इसमें कोई शक नहीं कि 2012 का साल सचिन के लिए बेहद खराब साल साबित हुआ। इस साल उनकी कुल 14 पारियों में उनके बल्ले से 80, 15, 8, 25, 13, 19, 17, 27, 13, 8, 8, 76, 5 और 2 के स्कोर ही निकले।
सचिन ने 194 टेस्ट मैचों में 15645 रन (51 शतक, 66 अर्धशतक) और 463 एकदिवसीय मैचों में 18426 रन (49 शतक, 96 अर्धशतक) बनाए। राज्यसभा में मनोनीत किए जाने के बाद कयास लगने शुरू हो गए थे कि वे अब अपना बल्ला टांग देंगे, लेकिन तब ऐसा हुआ नहीं। लगातार निराशा भरे प्रदर्शन की वजह से ही मास्टर ब्लास्टर ने वनडे क्रिकेट को गुडबाय कहा होगा। वनडे में लगभग सभी कीर्तिमान अपने नाम कर चुके सचिन तेंडुलकर, हमेशा याद किए जाते रहेंगे।
महेंद्रसिंह धोनी फटाफट क्रिकेट में भले ही सफल कप्तान साबित हुए हों, लेकिन टेस्ट क्रिकेट में उनकी कप्तानी पर दो सालों से सवाल उठ रहे हैं। कप्तानी के बोझ से उनका नैसर्गिक खेल भी प्रभावित हो रहा है। धोनी मूल रूप से वनडे और टी20 के लिए बने हैं और इसी में वे भारत को विश्व चैम्पियन भी बनवाकर अपनी काबिलियत साबित कर चुके हैं।
समय की मांग है कि धोनी को कम से कम टेस्ट की कप्तानी से मुक्त करना चाहिए और ऐसे खिलाड़ी पर यह जिम्मेदारी डालनी चाहिए जो लंबे समय तक भारतीय टेस्ट टीम का बोझ अपने कंधों पर उठाने के लिए तैयार हो। इससे यह होगा कि धोनी के निजी प्रदर्शन का फायदा टीम इंडिया को मिलेगा। सीनियर खिलाड़ियों की भी मांग यही है कि धोनी पर से कप्तानी का बोझ उतारने का वक्त आ गया है।
सौरव गांगुली जब भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान हुआ करते थे, तब ड्रेसिंग रूम से टीम में चलने वाली गुटबाजी की खबरें छनकर बाहर आती थीं लेकिन धोनी के कप्तान बनने के बाद ड्रेसिंग रूम का माहौल कुछ सालों तक तो ठीक-ठाक रहा लेकिन अब लगने लगा है कि सीनियर खिलाड़ी राजनीति करके टीम के प्रदर्शन को प्रभावित कर रहे हैं।
क्रिकेट के खेल में आधुनिक तकनीक के कारण देखने वालों को खिलाड़ियों की बॉडी लेंग्वेज से ही पता चल जाता है कि वे अपने लिए खेल रहे हैं, देश के लिए खेल रहे हैं या खेल में धूर्तता बरत रहे हैं? गुटबाजी और आपसी विवाद को सार्वजनिक रूप से जरूर भारतीय क्रिकेटर इनकार करते हों लेकिन मैदान पर उनके प्रदर्शन से जाहिर हो जाता है कि राख के ढेर के नीचे कहीं न कहीं चिंगारी दबी हुई है।
दक्षिण अफ्रीका के गैरी कर्स्टन जिस टीम इंडिया को इंग्लैंड के डंकन फ्लेचर को सौंपकर गए थे, उसने भारतीय क्रिकेट का बंटाढार कर दिया है। वे भूल गए हैं कि टीम का प्रदर्शन कोच को बनाता है न कि कोच के कारण टीम बनती है। जब से फ्लेचर टीम इंडिया के कोच बने हैं, उन्होंने ऐसा कोई करिश्मा नहीं दिखाया जिसके कारण टीम इंडिया का कल्याण हुआ हो।
करोड़ों रुपए वेतन पाने वाले फ्लेचर को कभी होमवर्क करते नहीं देखा, कभी वे खिलाड़ियों से बात नहीं करते, न कभी उन्होंने इंग्लैंड की कमजोरियां बताईं और न कभी वे टीम इंडिया के ड्रेसिंग रूम के बाहर खिलाड़ियों के साथ नजर आए। टीम इंडिया की दुर्गति के लिए जितने खिलाड़ी जिम्मेदार हैं, उतने ही जवाबदेह कोच फ्लेचर भी हैं। आखिर बोर्ड पूर्व क्रिकेटरों को टीम इंडिया के कोच बनाने से क्यों हिचकिचाता है?
34 साल से ऊपर के हो चुके वीरेन्द्र सहवाग की पहचान किसी समय भारतीय क्रिकेट में विस्फोटक बल्लेबाज के रूप में होती थी लेकिन समय के साथ ही साथ यह पहचान गुम होती चली गई। सहवाग अपनी स्टाइल में खेलने के आदी हैं। चाहे वनडे हो या टेस्ट मैच, वे अपनी खेल शैली नहीं बदलते। यही कारण है कि किसी एक मैच में शतक बनाकर आने वाले कई मैचों के लिए वे अपनी जगह निश्चित कर लेते हैं।
राष्ट्रीय चयनकर्ताओं को अब सहवाग के विकल्प को जितना जल्दी हो, खोजना होगा। वैसे टीम इंडिया की शुरुआत के लिए गंभीर के साथ चेतेश्वर पुजारा ही विकल्प के रूप में नजर आते हैं। सहवाग ने 102 टेस्ट (1894 रन) और 249 वनडे में 3853 रन बनाए हैं। अब वक्त आ गया है कि उन्हें आराम देकर किसी अन्य युवा खिलाड़ी को मौका दिया जाए।
भारतीय टेस्ट क्रिकेट की दीवार समझे जाने वाले राहुल द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण ने जब से अपने बल्ले टांगे हैं, तब से टीम इंडिया का प्रदर्शन प्रभावित हुआ है। यह दोनों ही कलात्मक बल्लेबाज रहे और कई दफा टीम के लिए संकटमोचक भी साबित हुए।
द्रविड़ और लक्ष्मण ने वर्षों तक भारतीय क्रिकेट की सेवा की है और एकदम से इन दोनों का विकल्प मिलना मुश्किल होता है। इस दौर से दुनिया की दीगर टीमें भी गुजर चुकी हैं, इसलिए टीम इंडिया को यह दौर तो झेलना ही था। विराट कोहली, चेतेश्वर पुजारा में लंबी पारियां खेलने का माद्दा है। यदि इंग्लैंड के घरेलू दौरे में कोहली के प्रदर्शन को नजरअंदाज कर दिया जाए तो उन्होंने लगातार बेहतरीन प्रदर्शन किया है।
इंडियन प्रीमियर लीग की शुरुआत भारत में 2008 में हुई और देखते ही देखते टी20 के इस फॉर्मेट में क्रिकेटर मालामाल हो गए। यहां तक कि विदेशी क्रिकेटर सालभर में जितनी कमाई नहीं कर पाते थे, वे आईपीएल सीजन में कुछ ही दिनों में कमाने लगे। कई बार तो विदेशी क्रिकेटरों ने पैसों की खातिर देश के बजाय आईपीएल में खेलने को तरजीह दी ताकि वे मोटी कमाई कर सकें।
आईपीएल की चकाचौंध और पैसों की बारिश से भारतीय क्रिकेटर भी अछूते नहीं रहे। देश के लिए खेलने पर वे कभी मैदान पर जान लड़ा देने वाला प्रदर्शन नहीं दे पाए लेकिन आईपीएल टीमों की तरफ से खेलते हुए उन्होंने जिस तरह से प्रदर्शन किया, उसे देखकर यही लगा कि पैसों की खनक में कितनी ताकत होती है। भारतीय टेस्ट टीम की दुर्गति के लिए आईपीएल ही पूरी तरह जिम्मेदार है।
क्या धोनी की अगुआई वाली यही टीम इंडिया है, जिसने 2007 में ट्वेंटी विश्वकप में विजेता का ताज पहना था? क्या यही वह टीम है जिसने 2011 में 28 साल बाद वनडे में विश्व चैम्पियन बनने का सम्मान पाया था? आखिर एक साल के भीतर ऐसा क्या हो गया कि इस टीम को अपने ही घर में सिरीज हारने की लानत झेलनी पड़ी?
टीम का थिंक टैंक रणनीति बनाने में चूक कर रहा है। कोच, कप्तान और खिलाड़ियों में दूरियां बढ़ती जा रहीं हैं और आपसी गुटबाजी का शिकार समूचा भारतीय क्रिकेट हो रहा है। भारतीय क्रिकेटरों का ध्यान खेल पर कम और क्रिकेट से होने वाली आमदनी पर ज्यादा लगा हुआ है। स्टार क्रिकेटर घरेलू क्रिकेट में खेलने से परहेज करते हैं, उन्हें घरेलू मैचों में उतारना पड़ेगा। टीम में मौजूद कई क्रिकेटर यह जानते हैं कि चयनकर्ता उन्हें हटाने की हिम्मत नहीं कर सकते, ऐसे क्रिकेटरों को बाहर का रास्ता दिखाकर युवा क्रिकेटरों को अवसर देना चाहिए।
बेदी, प्रसन्ना और चन्द्रशेखर की तिकड़ी ने भारतीय क्रिकेट में स्पिन की नई इबारत लिखी और बाद में इसे अनिल कुंबले काफी ऊंचाइयों पर ले गए। इस बीच हरभजन सिंह चमके और आर. अश्विन ने अपनी स्पिन का लोहा मनवाया लेकिन इंग्लैंड के खिलाफ घरेलू पिचों पर जिस प्रकार से स्पिनरों का प्रदर्शन रहा, उससे यह सवाल पैदा होने लगा है कि क्या भारतीय स्पिन का जादू खत्म होने लगा है?
भारतीय स्पिनर घरेलू क्रिकेट में खेलने से परहेज करते हैं और टेस्ट मैच में उतरने के बाद उन्हें अपनी कमजोरी का अहसास होता है। क्या कभी आर. अश्विन ने घरेलू क्रिकेट में 50 ओवर गेंदबाजी की है? भारतीय स्पिनरों में फरफेक्शन का अभाव साफ दिखाई देता है। वे उतनी मेहनत नहीं करते, जितनी कि अनिल कुंबले किया करते थे। आईपीएल या वनडे में कुछ विकेट लेकर मैच जिताने वाले स्पिनरों को यह गुमान होने लगता है कि उनसे बेस्ट कोई नहीं है। जब तक स्पिन पर मेहनत नहीं होगी और विविधता नहीं होगी, तब तक घरेलू पिचों पर उनकी ऐसी ही पिटाई होगी जैसे इंग्लिश बल्लेबाजों ने की है।
कप्तान महेन्द्रसिंह धोनी ने अहमदाबाद टेस्ट में इंग्लैंड के खिलाफ पहले टेस्ट मैच को स्पिन गेंदबाजों के साथ-साथ चेतेश्वर पुजारा के दोहरे शतक के बूते क्या जीता, वह आने वाले तीनों टेस्ट मैचों में स्पिन विकेट के लिए लड़ते रहे लेकिन नतीजा क्या निकला? इंग्लैंड 2-1 से सिरीज जीतने में सफल रहा।
घरेलू सिरीज में टीम इंडिया ने अपनी पूरी ताकत स्पिन पर झोंक दी और टर्निंग विकेट की मांग करते हुए विवादों को जन्म दिया। मजेदार बात यह रही कि टर्निंग विकेट पर इंग्लैंड के जेम्स एंडरसन अपनी रिवर्स स्विंग गेंदबाजी से भारतीय बल्लेबाजी की कमर तोड़ते नजर आए। भविष्य में भारतीय कप्तान को टर्निंग विकेट की मांग त्याग कर उन क्यूरेटरों पर पिच बनाने की आजादी देनी चाहिए जो बरसों से इसी काम में लगे हुए हैं।
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