असहमति को कुचलना लोकतंत्र नहीं है

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)
शनिवार, 9 अक्टूबर 2021 (17:08 IST)
लोकतंत्र अकेली सहमति का तंत्र नहीं है। हर बात में सबको सहमत होना ही होगा। यह राजशाही, सामंतशाही या तानाशाही की जीवनी शक्ति तो हो सकती है, पर लोकतंत्र में असहमति की मौजूदगी ही लोकतंत्र को जीवंत बनाती है। सब एक मत हो और एक अकेला व्यक्ति भी असहमत हो तो ऐसी अकेली और निर्भय आवाज को अल्पमत मान अनसुना कर देने, नकारने या कुचल देने को भले ही कोई तत्वत: तानाशाही न माने, महज मनमानी या बहुमत का विशेष अधिकार मानें, पर ऐसा व्यवहार किसी भी रूप में जीवंत लोकतांत्रिक व्यवस्था तो निश्चित ही नहीं माना जा सकता है। लोकतंत्र नाम से नहीं, निर्भय अकेली आवाज को निरंतर उठाने देने और उठाते रहने से ही परिपूर्ण और प्रभावी बनता है। 
 
लोकतंत्र पक्ष-विपक्ष की विवेकजन्य समझदारी का तंत्र है। लोकतंत्र में असहमति को हर किसी को अपना विचार या मत अभिव्यक्त करने का मूलभूत अधिकार निहित होता है। किसी को भी वैचारिक अभिव्यक्ति से रोका नहीं जा सकता। लोकतंत्र में निर्णय भले ही बहुमत से होते हों, पर बहुमत से असहमत होने का मूलभूत अधिकार तो असहमतों को हर हाल में उपलब्ध ही है। लोकतंत्र में बहुमत और अल्पमत दोनों को यह अधिकार है कि वे निर्भय होकर अपनी अपनी बात खुलकर रखें, एक-दूसरे को सुनें, समझें तब निर्णय करें। लोकतंत्र में प्रतिबंध लगाने की प्रवृत्ति ही नाजायज है। केवल प्रतिबंध लगाने की प्रवृत्ति पर ही प्रतिबंध जायज है, बाकी सारे प्रतिबंध लोकतंत्र विरोधी ही माने जाएंगे।
 
भारत में लोकतंत्र को आए 75 साल गुजर गए। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। फिर भी भारत के लोगों और भारत के राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक और प्रशासनिक तंत्र में असहमतों और असहमतियों को हाथोहाथ नहीं लिया जाता। सारे के सारे सहमत विचार, असहमतों के विचारों पर तत्काल हमलावर हो जाते हैं। सहमतों को लगता है कि असहमत उनके काम में अड़ंगा हैं। यदि असहमतियों का कोई मतलब ही नहीं होता तो दुनिया में लोकतंत्र के विचार का जन्म ही नहीं होता। इस नजरिए से सोचा जाए तो असहमतियों और सहमतियों के सह-अस्तित्व से ही वास्तविक लोकतंत्र निरंतर सही मायने में चलाया और निखारा जा सकता है।
 
भारतीय लोकतंत्र में जनता को तो अपना जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, पर जनप्रतिनिधियों को हमेशा अपना नेता चुनने का अधिकार होते हुए भी कई बार चुनने का अवसर ही नहीं मिलता। भारत के अधिकांश राजनीतिक दल अपने सांसद-विधायक को स्वतंत्र रूप से नेता चुनने का अवसर या अधिकार ही नहीं देते हैं। प्राय: चुनाव का स्वांग रचते हैं। संविधान बोलने की आजादी देता है, पर लोकतंत्र में राजनीतिक दलों द्वारा अपने अपने दल में खुलकर बोलने का अवसर या अधिकार कार्यकर्ताओं और नेताओं को प्राय: नहीं मिल पाते। साथ ही लोकतांत्रिक राजनीतिक दलों में भी आम कार्यकर्ता अपने ही नेतृत्व से सवाल-जवाब की हिम्मत नेताओं की नाराजगी के भय से नहीं कर पाते।
 
सभी लोकतांत्रिक राजनीतिक दलों में भी सवाल खड़े करने वाले का स्वागत नहीं होता। इसी कारण आजादी के 75 वर्षों के बाद भी भारत के राजनीतिक दलों, कार्यकर्ताओं और सार्वजनिक जीवन में लोकतंत्र जीवंत नहीं बन पाया। सभी दलों में 'हां जी', 'हां जी' का साम्राज्य खड़ा हो गया। आजादी के 75 साल बाद भी हमारा निजी और सार्वजनिक जीवन सामंती सोच से ऊपर नहीं उठ पाया है। यही हाल लगभग भारत के आम और खास नागरिकों का भी बन गया है।
 
हम बात तो लोकतंत्र की करते हैं, परंतु हम सबका आचरण प्राय: सामंती प्रवृत्ति का पोषक ही बना हुआ है। तभी तो भारतीय राजनीति में सर्वोच्च नेतृत्व चाहे वह किसी भी पक्ष का हो उसका तो निरंतर महिमामंडन होता रहता है, पर नागरिकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं का निर्भीक व्यक्तित्व एवं कृतित्व 75 साल के लोकतंत्र और आजादी में भी वैसा निखर नहीं पाया है, जैसा होना चाहिए।
 
लोकतांत्रिक व्यवस्था में जीवंत नागरिक और राजनीतिक दलों में विचार-विमर्श करने वाले विचारशील कार्यकर्ताओं का अभाव या पराभव भारतीय लोकतंत्र को पूरी तरह यांत्रिक भीड़तंत्र में बदल रहा है। दो राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता या एक ही राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं के विचारों में मत-मतांतर होना लोकतांत्रिक व्यवस्था की मौजूदगी का प्रतीक है। पर हम सब देख रहे हैं कि आज हमारे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं और परिपक्व नेता और नागरिक भी विचार-विमर्श से दूर जाने लगे हैं और बहस करने से कतराते हैं। लोकतंत्र में यदि बहस से परहेज होगा तो राजनीति तो यंत्रवत जड़ता में बदल ही जाएगी। आजादी के 75 साल बाद यदि आपसी विचार-विमर्श खत्म सा हो जाए तो फिर नागरिक और लोकतंत्र नाम के ही होंगे, काम के नहीं।
 
भारत के लोकतंत्र को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है और वह है भी। पर बड़ा होना उतना उल्लेखनीय नहीं है जितना जीवंत और जागरूक नागरिकता का निरंतर लोकमानस में मौजूद न होना। भारतीयों पर सदियों से राजाओं, मुगलों और अंग्रेजों का राज रहा और इन सारे राज्यकर्ताओं की राजाज्ञाओं को प्रजा को मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। इसी से आजादी के बाद अस्तित्व में आए लोकतंत्र का 75 साल बाद भी पूरा चरित्र दलों और सरकार के स्तर पर भी लोकतांत्रिक नहीं बन पाया है। आज भी भारत का लोकमानस बहुत कम मात्रा में लोकतांत्रिक बन पाया है। आज भी जनतंत्र पर सामंती सोच और संस्कारों का गहरा प्रभाव दिखाई देता है।
 
देश-प्रदेश और नगरीय निकाय के शासन-प्रशासन की बात भी नहीं करें। केवल ग्रामीण क्षेत्रों में ग्राम पंचायत में लोकतंत्र की चर्चा करें तो सरपंच भी ग्रामसभा को जीवंत नहीं करना चाहता और ग्रामीण जनता भी ग्रामसभा को सफल और प्रभावी बनाने में रुचि लेती नहीं दिखाई देती। ज्यादातर ग्रामसभाओं में कोरम भी उपस्थित नहीं हो पाता और कागज पर औपचारिक रूप से ग्रामसभा हो जाती है। यह हमारी लोकतंत्र के प्रति जागरूकता की समझ है। विधायी कार्य व्यापक विचार-विमर्श से न होकर प्राय: जल्दबाजी में होता है। नीचे से ऊपर तक हमारे यहां लोकतंत्र की यही समझ है कि चुनाव होना और कैसे भी चुनाव जीतना यही लोकतंत्र का मूल है।
 
कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका से लेकर शासन-प्रशासन और नगरीय निकाय ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के जीवनक्रम में लोकतंत्रात्मक तौर-तरीकों में वैसी समझ-संस्कार भारत के लोकमानस में 75 साल के बाद भी खड़ी नहीं हो सकी है, जो एक जीवंत लोकतंत्रात्मक समाज और सरकार में होना चाहिए। यह हमारे लोकजीवन और लोकतंत्र की सच्चाई है। आज पौन सदी के बाद भी हम लोकतांत्रिक मूल्यों और मानस को भारत के लोकजीवन में निखार नहीं पाए। इसी से नागरिकों और व्यवस्था दोनों में लोकतंत्र के प्रति समर्पण भाव और जागरूकता नहीं दिखाई देती है।
 
जागरूकता के बगैर और जी-हुजूरी से जीवन ही चलना संभव नहीं है, फिर भी हम मानते और गर्व करते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं। हमारे लोकतंत्र में कई सारी कमजोरियां महसूस हो रही हैं या स्पष्ट दिखाई देती हैं। आम लोगों की भागीदारी और ताकत सबको महसूस होनी चाहिए। चुनी हुई सरकार को लोकतंत्र को हरसंभव कोशिश कर बेहतर बनाने में मदद करने में सक्षम और सफल होना ही चाहिए।
 
लोकतंत्र का लोगों का, लोगों के द्वारा और लोगों के लिए ही जन्म हुआ है। लोकतंत्र का यह मूल स्वरूप बनाए रखना जनता, सरकार और चुने हुए नेतृत्व या बिना चुने हुए आगेवान लोगों का निरंतर व्यक्तिश: कर्तव्य और सामूहिक उत्तरदायित्व भी है। यदि सभी लोकतंत्र को लेकर अनमने ही बने रहे तो हम अपनी आजादी और लोकतंत्र का नाम स्मरण तो करते रह सकते हैं, पर आजादी और लोकतंत्र को निजी और सार्वजनिक जीवन में साकार नहीं कर सकेंगे। यही आज के भारत की सबसे बड़ी चुनौती है। 
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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