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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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आतंकवाद पर भारी, मानवता सारी

26 नवंबर, एक तारीख जो सबक बन गई

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संदीपसिंह सिसोदिया

कुछ तारीखों ने दुनिया का इतिहास बदल दिया, यह वो तारीखें बन चुकी है जिन्हे याद कर के कभी सिहरन होती है, कभी अपनी अक्षमता पर शर्म और गुस्सा आता है तो कभी विपरीत परिस्थितियों में जी-जान से जूझते इंसानों के जज्बे पर सीना चौडा हो जाता है। 26 नवंबर 2008 भी उन तारीखों में से एक बन चुकी है जो भारत के इतिहास में अपनी जगह खून से लाल और धुँए से काले पड़ चुके अक्षरों में दर्ज हो चुकी है। 

इस दिन दुनिया गवाह बनी खून से सने फर्श पर बिखरे काँच और मासूम लोगों की लाशों के बीच होती गोलियों की बौछार की, बदहवासी में जान बचा कर भागते लोग, सीमित हथियारों पर अदम्य हौसले से आतंकी हमले का मुकाबला करते सुरक्षाकर्मी की दिलेरी की। अपनी जान की परवाह न करते ताज और ट्रायडेंट के कर्मचारियों के अनोखे अतिथि सत्कार की। भय, पीड़ा, गुस्से, गर्व की मिश्रित अनुभुति से मानो दिमाग सुन्न हो चुका था, होंठ सिल चुके थे।

तीन दिन तक भारत की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में 10 आतंकियों ने नरीमन हाउस, ताज होटल और ट्रायडेंट ओबेराय में निहत्थे लोगों को बंधक बना दुनिया को आतंक का एक ऐसा रूप दिखाया था कि न्युयार्क से रोम और मास्को से लंदन तक बैठे लोग सिहर उठे। इस बार आतंकियों ने छुप कर बम धमाके करने के बजाए सीधे भारत की आत्मा पर ही हमला कर दिया। आतंकवाद के इस नए तरीके ने दुनिया भर को हिला कर रख दिया।

 
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आतंकियों ने सीएसटी पर मध्यम वर्गीय लोगों से लेकर पाँच सितारा होटल में ठहरे अभिजात्य वर्ग के लोगों, लियोपॉल्ड केफै में पर्यटकों और बच्चों से लेकर अस्पताल में बीमार लोगों, सड़को पर राहगीरों और नरीमन हॉउस जैसे सामुदायिक केंद्र तक में लोगों की हत्याएँ की। अमेरीकी, ब्रिटिश, इसराइली के अलावा और भी बहुत से देशों के नागरिकों के साथ समाज के हर वर्ग पुलिस, दमकलकर्मियों, डॉक्टर्स और सफाईकर्मियों तक को गोलियों से छलनी कर दिया। यह एक सोचा-समझा सामुहिक नरसंहार था जिसमें किसी भी तबके को नहीं बख्शा गया था। 

गुरिल्ला युद्ध में निपुण और पाक स्थित आकाओं की सरपरस्ती से मानवता के दुश्मनों ने हर कदम पर सुरक्षाबलों का कड़ा प्रतिरोध किया। इस अप्रत्याशित हमले से सन्न मुंबई के ऐसे बहुत से लोग है जो इस हमले में बच तो गए, उन्हें लगी गोलियों के जख्म भी भर गए पर उनकी आत्मा पर लगे जख्म शायद कभी नहीं भर पाएँगे।

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कुछ जगहों पर इस हमले के साल भर बाद भी समय मानो ठहर गया है, रोजाना 20 घंटे खुला रहने वाले लियोपॉल्ड कैफे के मालिक फरंग और फर्जाद ने इस कैफे की गोलियों से छलनी हुई दीवार की मरम्मत नहीं कराने का निर्णय लिया है, बकौल उनके 'इस त्रासदी की याद हमेशा इस दीवार पर पड़े निशानों की तरह हमारे मन में रहेगी, दुनिया शायद ऐसे ही इस हमले की विभीषिका को याद रखेगी'। 

वहीं होटल ताज को वापस अपने पुराने स्वरूप में लाने के लिए रतन टाटा ने दिन-रात एक कर दिए और हमले के सिर्फ एक महीने बाद ताज एक बार फिर मेहमानों के लिए तैयार था।

इस हमले ने कई मामलों में देश के सरकारी और निजी तंत्र की पोल खोल दी। इस संकट पर तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल रटा-रटाया बयान देते नजर आए, राज्य सरकार और सुरक्षा एजेंसियों में भी ताल-मेल का भारी अभाव नजर आया। एनएसजी के कमांडो को मुंबई पहुँचने में 12 से भी अधिक घंटे लग गए। मीडिया ने भी सबसे पहले फुटेज दिखाने की होड़ के चलते होटल में छुपे लोगो की जगह और सुरक्षाबलों की हर हरकत की जानकारी का जिस तरह से सीधा प्रसारण किया गया उसके चलते कई बार मासूमों की जान पर बन आई।

पर इस सब उहापोह में बहुत से वाकये ऐसे भी मिले जो मानवता की मिसाल बने और घोर संकट में नेतृत्व करने वाले कुछ चेहरे भी सामने आए, चाहे घायलों को अस्पताल पहुँचाने वाले आम लोग हो या एनएसजी के शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन और कमांडो गजेन्द्रसिंह। गोलियों की बौछार में लोगों को आश्रय देने के लिए अपने घर-दुकानों में शरण देने वाले मुंबईकर, एकमात्र जिंदा पकड़े गए आतंकी को रोकने वाले शहीद तुकाराम आंबले। होटल ताज के कर्मचारी जिन्होने अपनी जान की बाजी लगा कर अपने मेहमानों को सुरक्षित निकालने में मदद की। ऐसे सैकड़ो उदाहरण मिलेंगे जो दर्शाते है कि आतंकियों के खौफनाक मंसूबों पर आम आदमी का हौसला भारी पड़ा।

एक ऐसा ही और उदाहरण मिलता है नरीमन हाउस में मारे गए यहूदी दंपत्ति के 2 साल के बेटे मोशे की आया सांड्रा सैम्युल में, इस घर में आतंकियों ने बर्बरता की इंतहा करते हुए मोशे के माता-पिता सहित 4 अन्य यहूदियों को मार डाला था। सांड्रा ने अपनी जान पर खेलते हुए मोशे को किचन में फ्रिज के पीछे कई घंटो तक छुपा कर रखा और कमांडो कार्यवाई के दौरान गोलियों की बौछार के बीच बाहर निकाला था।

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अपने माता-पिता की लाशों के बीच रोते मासूम मोशे को दुनिया भर में इस त्रासदी का एक और प्रतीक के रूप में जाना जाता है। पर दुख कितना भी बड़ा क्यों न हो वह गुजर ही जाता है। लेकिन इतिहास साक्षी है गलत इरादों पर मानवता के बुलंद हौसलों ने हमेशा विजय पाई है। मुंबई हमले के बाद की कहानी भी यहीं से आगे बढ़ती है जब लहूलुहान मुंबई अपने आपको समेट कर पूरी जिंदादिली के साथ फिर उठ खड़ी हुई और यहाँ के बाशिंदे जख्मों को सिल कर, हादसे से सबक लेकर फितैयार हो गए कर्मठता और हिम्मत की नई परिभाषा रचने के लिए

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