हमारे यहाँ राष्ट्रीय पर्व से जुड़ने का मतलब है कि कोई व्यक्ति सेना, पुलिस या शिक्षा विभाग से संबंधित कर्मचारी है। अन्य सरकारी विभागों में जहाँ प्रातः झंडावंदन में उपस्थित रहने के लिए सर्कुलर घुमाया जाता है, बस मामूली-सी उपस्थिति होती है। अमूमन ऐसे दिनों को मौज-मजे में बिताने का मौका माना जाता है।
कितनी ही बार झंडे का गलत लगा होना या समय पर खुल न पाना आदि स्थितियों का सामना होता है। इन अव्यवस्थाओं की खबरें समाचार-पत्रों में पढ़ना और चर्चा करते हुए साल निकल जाता है। अगले वर्ष फिर उसी तरह की अव्यवस्था या कुव्यवस्था में मन जाता है राष्ट्रीय पर्व।
महिलाएँ अपने आपको इन राष्ट्रीय पर्वों से जुड़ा हुआ महसूस ही नहीं कर पातीं। बहुत हुआ तो स्कूल जाते बच्चों के लिए यूनिफॉर्म तथा जूते-मौजों का रखरखाव हो जाता। वैसे अब तो बच्चे-बड़े, नर-नारी सभी राष्ट्रीय पर्वों से दिल से या मन से कम ही जुड़े हुए लगते हैं। बस रस्म अदायगी के तौर पर ही यह पर्व रह गए हैं।
एक समय था, जब राष्ट्रीय पर्व को धार्मिक पर्व से अधिक प्रमुखता दी जाती थी। धार्मिक पर्व तो व्यक्ति अपने हिसाब से व्यक्तिगत तौर पर मनाता था। उस समय धार्मिक पर्वों में आज की तरह आडंबर, पाखंड या दिखावा नहीं होता था। वरन् मनोयोग से पूर्ण की गई धार्मिक रस्में होती थीं। उस समय राष्ट्रीय पर्वों को सामूहिक रूप से मनाते हुए भी लोगों के मन में व्यक्तिगत तौर पर भी इनके प्रति एक भावुकता भरा स्नेह होता था। बच्चे-बड़े सभी के मन में उत्साह और उमंग का सैलाब उमड़ता। इसका कारण कदाचित ये हो कि देश को आजाद हुए कम समय हुआ था और गुलामी की पीड़ा उन्होंने भोगी थी।
हमारे यहाँ राष्ट्रीय पर्व से जुड़ने का मतलब है कि कोई व्यक्ति सेना, पुलिस या शिक्षा विभाग से संबंधित कर्मचारी है। अन्य सरकारी विभागों में जहाँ प्रातः झंडावंदन में उपस्थित रहने के लिए सर्कुलर घुमाया जाता है, बस मामूली-सी उपस्थिति होती है।
कहते हैं ना, दुख के बाद सुख तथा दर्द के बाद इलाज से जो परम सुख प्राप्त होता है,उसे कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है। इन पर्वों में सारी महिलाएं भले ही सशरीर शामिल नहीं हो पाती थीं, पर उनके मन में उमंग और उत्साह भरा रहता था। इसका कारण यही हो सकता है कि इन्होंने गुलाम भारत को देखा और भुगता था। देश को स्वतंत्र कराने की आग इनके भी सीने में थी।
स्वतंत्रता संग्राम में अनगिनत महिलाओं ने अपने जीवन की बलि दे दी थी। हालाँकि हमारे सामने चंद नाम ही लिए जाते हैं। इनसे कई गुना अधिक ऐसी महिलाएँ थीं, जिन्होंने राष्ट्र के लिए स्वयं को उत्सर्ग कर दिया, इन्हें हम 'अनसंग हीरोइन्स' कह सकते हैं।
एक ऐसा राष्ट्र जिसका इतिहास वीरता, साहस, स्वाभिमान और संघर्ष से भरा पड़ा है। ढेरों वीरांगनाएँ बिना उफ किए चिता पर चढ़ जाती थीं। चौदह वर्षीय मासूम मैना को अंग्रेजों ने जीवित जला दिया। पर उसने अपने पिता नाना धुंधूपंत पेशवा का ठिकाना नहीं बताया। अब उसी देश में इन राष्ट्रीय पर्वों की अपेक्षा व उत्साह में कमी अखरती तो है ही, चिंतनीय विषय भी है। देश के प्रति स्वाभिमान और गर्व की भावना न जाने कहाँ चली गई।
कारण तो अनेक हैं। महिलाओं के परिपेक्ष्य में देखें तो लगता है वो स्वतंत्र हुई ही कहाँ हैं? उसे अपने ही भाई-बंधुओं से, अपने ही देशवासियों से सतत लड़ना पड़ रहा है। अंधविश्वासों, अशिक्षा को दूर करने के अलावा निज स्वाभिमान, निज चिंतन या सोच की स्वतंत्रता तथा निज व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए भी लगातार लड़ना व संघर्ष करना पड़ रहा है। दुश्मन से लड़ना सहज और सरल है। पर अपने ही बांधवों से उनके द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ लड़ना अत्यंत कठिन है। इसकी परीक्षा महिलाएँ प्रतिदिन देती आ रही हैं। लगातार उत्तीर्ण होना नामुमकिन तो नहीं, पर कष्टप्रद व कठिन है। पर गिरने के बाद बार-बार खड़ा हुआ जा सकता है। एक ऐसा प्रयत्न, जिसे सतत किए बिना महिलाएँ वास्तविक रूप से स्वतंत्र नहीं हो सकतीं।