महिला सशक्तीकरण का लक्ष्य प्राप्त करना उतना आसान नहीं है, क्योंकि कुरीतियों और कुप्रथाओं का 'पग-पसारा' विषम मायाजाल बुनता रहता है। भारतीय समाज में दहेज प्रथा, कम उम्र में विवाह, भ्रूण हत्या, गरीबी, निरक्षरता जैसे कई कारण नारी को समर्थ बनने की राह में विकास को बाधित करने की भूमिका निबाहते हैं। नई संस्कृति, नई पौध का टी.वी. संस्कृति ने मौन शोषण किया है... देह सौंदर्य की जिस भाषा ने नारी को उपभोक्ता वस्तु में तब्दील करने का जाल बिछाया है... तदर्थ नारी अस्तित्व के प्रश्न और गहरा गए हैं।
भारतीय दर्शन में नारी अवधारणा की मंजूषाएँ जब खुलती हैं परत-दर-परत आदिशक्ति... धैर्य की धरती... सृष्टि के सृजन की पीड़ा... व प्रकृति के कई अनुपूरक रूपों में बिम्ब-प्रतिबिंब झिलमिलाती है। हर युग में नारी का अपना परिवेश है, समय- पारिस्थितिकी है, घर-संसार-परिवार,देश औ दुनिया है। प्रार्थनाएँ, विनय करुणा, ममता के उत्कृष्ट भाव, उसकी छवि के प्रसार तत्व हैं। नारी केसर-धवल शीतल हिमनद है, जो दूसरों के दुःख-दर्द में पिघल-पिघल कर चंदन-सा स्पर्श बन जाता है।
कहीं-कहीं उसके आत्मबल की लक्ष्य छू जाने की अदम्य ललक, नारी को इतिहास प्रज्ञा... वर्तमान की प्रेरणा... भविष्य की प्रणेता भी घोषित कर देते हैं। एक गरिमामयी अस्तित्व की उपस्थिति उसके आभामंडल के आसपास भाप बनकर सदैव तैरती है, लेकिन जब-जब वह अपनी खुरदुरी हथेलियों की मुट्ठी में उसे कैद करती है, तो भाप की बूँद-बूँद को चमकीली सीपियों में बदलते देर नहीं लगती। नारी जागरण के युग परिप्रेक्ष्य में नारी सशक्तीकरण को सार्थकता तो मिली है, फिर भी उसके अस्तित्व से जुड़े प्रश्न यक्ष बनकर खड़े हैं। हालाँकि पिछली सदी के उत्तरार्द्ध और नई सदी के पूर्वार्द्ध में स्त्री ने अपने अंतर की ऊर्जा को धारदार बनाया है।
नारी को समर्थ बनने की राह में विकास को बाधित करने की भूमिका निबाहते हैं। नई संस्कृति, नई पौध का टी.वी. संस्कृति ने मौन शोषण किया है... देह सौंदर्य की जिस भाषा ने नारी को उपभोक्ता वस्तु में तब्दील करने का जाल बिछाया है।
परिवार... समाज... कानून... शासन की नीतियाँ उसकी कँटीली राह को आसान बनाने के लिए सेतुबंध बने हैं। इतर नारी सशक्तीकरण से जुड़े प्रमुख लक्ष्य उत्तरजीविता, सुरक्षा, स्वायत्तता, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक व राजनीतिक स्थिति जैसे कई मुद्दे फिर भी सामने हैं।
सशक्तीकरण का लक्ष्य प्राप्त करना उतना आसान नहीं है, क्योंकि कुरीतियों और कुप्रथाओं का 'पग-पसारा' विषम मायाजाल बुनता रहता है। भारतीय समाज में दहेज प्रथा, कम उम्र में विवाह, भ्रूण हत्या, गरीबी, निरक्षरता जैसे कई कारण नारी को समर्थ बनने की राह में विकास को बाधित करने की भूमिका निबाहते हैं।
नई संस्कृति, नई पौध का टी.वी. संस्कृति ने मौन शोषण किया है... देह सौंदर्य की जिस भाषा ने नारी को उपभोक्ता वस्तु में तब्दील करने का जाल बिछाया है... तदर्थ नारी अस्तित्व के प्रश्न और गहरा गए हैं। जरा आप सोचिए, जब एक छोटी उम्र की लड़की की शादी होती है तभी उसकी शिक्षा की संभावना समाप्त हो जाती है। घर-गृहस्थी की विषमताओं से जूझते हुए विकास की अवधारणा बुझी-बुझी रहती है।
दूसरी ओर नारी पर बलात्कार, मानसिक हिंसा, अपहरण जैसी वारदातें उसको और कमजोर और भय सम्पृक्त बनाती है। मनोवैज्ञानिक डॉ. प्रकाशकोठारी का कहना है कि 'जहाँ कन्या को गर्भ में मार देने की साजिश चल रही हो, वहाँ उसके अस्तित्व एवं नारी सशक्तीकरण की चर्चा करना बेमानी है...।'
आधुनिकता... विज्ञान... टेक्नोलॉजी, इंटरनेट के बावजूद आज भी अधिकांश महिलाएँ स्वेच्छा या स्वायत्तता के भ्रम में पुरुष के हाथों का खिलौना बन रही हैं। पुरुष को प्रकृति ने रक्तबीज का वरदान दिया है, वहीं नारी को चारित्रिक मर्यादा का हनन एवं किसी शारीरिक दुर्बलता से नवाजा है।
चाहे किसी उत्पीड़न में पुरुष दोषी हो, पर नारी को ही कलंक व अपवित्रता का तमगा मिलता है। जिस दिन नारी प्रगति के नाम पर शरीर को हथियार बनाना छोड़ देगी, अन्याय के विरोध में अपनी अस्मिता के गौरव को बचा ले जाने में एक भी कदम आगे बढ़ाएगी, उस दिन सम्मान तो उसे स्वयं मिल जाएगा।
आज प्रगति के युग में अशेष समाज में नारी विषयक परंपराओं पर अतिक्रमण होना अभी शेष है। अशिक्षा उनके लिए घोर अभिशाप है। शेष समाज की उच्च वर्ग की नारी सहभागिता और प्रतिनिधित्व के भरपूर अवसरों से लैस है... फैशन की दुनिया में उसका नाम है... उच्च शिक्षा के अनेक अवसर हैं... लेकिन परिवर्तन की आँधी में कभी-कभी तो वह सिर उठाकर जी लेती है या गुलामी की अँधेरी सुरंगों में दफन हो जाती है। ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न आसपास डोलते हैं। फिर भी ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जो केवल पुरुषों के लिए सुरक्षित हो। शिक्षा के अनगिनत अवसरों ने नारी की भूमिका में निरंतर बदलाव की रचनात्मक पहल की है।
ग्रामीण परिवेश में खेतिहर महिलाएँ हों, मेहनतकश वनिताएँ, स्कूल की ओर कदम बढ़ाती लड़कियाँ हों, नौकरी का क-ख-ग जानती नारियाँ... प्रगति... विकास की राह अब पहचानने लगी हैं। पुरुष की सहभागी बन एक उन्नात समाज की रूपरेखा के नए-नए शिलालेख वह लिख रही है।
उच्च वर्ग, उच्च शिक्षित, अभिजात्य वर्ग की नारियों के पास जीवन जीने के अपने मापदंड हैं। फैशन की दुनिया में अपना नाम है। हर क्षेत्र में उनकी योग्यता अनुसार काम हैं। वे धरती पर शान से काम करती हैं। आकाश की ऊँचाइयाँ नापती हैं। सुरक्षा-असुरक्षा के पैमानों को कुतरती हैं। दंभ की एक चमक चेहरे पर है... आर्थिक समृद्धि के कारण जीवन के बढ़ते आयाम हैं... आगे बढ़ने के लिए एक प्लेटफार्म है।
सच पूछा जाए तो महिला सशक्तीकरण एक विवेकपूर्ण प्रक्रिया है, जबकि अति महत्वाकांक्षा न केवल भटकन वरन अपराध की दुनिया के दरवाजे खोल सकती है। नारी की प्रगति और उन्नति के लिए किए गए प्रयास आज प्रेरणापुंज बन गए हैं। हर क्षेत्र में किया गया उसका अवदान देश को शीर्ष तक पहुँचाने का वादा बन गए हैं।