Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

उम्र नहीं होती हौसले की...

हमें फॉलो करें उम्र नहीं होती हौसले की...
webdunia
NDND
अधेड़ उम्र की यह साधारण महिला फूल बेचकर अपने परिवार की आय में हाथ बँटाती थी। खेल में उसकी किसी प्रकार की कोई पृष्ठभूमि नहीं थी। हाल ही में मलेशिया में संपन्न इक्कीसवीं ओपन मास्टर्स स्पर्धा में पदक जीतने वाली संगीता खंडागले का सफर निश्चित ही प्रेरणादायी है।

उम्र चालीस के मुकाम पर एक सामान्य महिला की क्या मानसिकता हो सकती है? बच्चे बड़े हो जाते हैं, स्वयं के शौक, कला की तरफ देखने का समय मिलना शुरू होता है। बस, इसी उम्र की एक महिला ने दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर मैराथन स्पर्धा जीत ली। तब से जो दौड़ रही है, रुकने का नाम ही नहीं लेती। हाल ही में मलेशिया में संपन्न हुई इक्कीसवीं ओपन मास्टर्स स्पर्धा में उन्होंने दो पदक जीते। संगीता खंडागले ने साबित कर दिया है कि किसी की जिद और इच्छाशक्ति उसे कहाँ पहुँचा सकती है।

प्रेरणा कैसे मिल

पुणे के बोपोडी इलाके में नाईक चाल के एक कमरे के मकान में रहता है खंडागले परिवार। पति-पत्नी और पाँच बच्चे। श्री खंडागले किर्लोस्कर ऑइल इंजंस में ठेके पर काम करते। संगीताबाई अपने घर की आर्थिक मदद के लिए फूलों का व्यवसाय करती। सुबह जल्दी उठकर फूल लाती और ऑर्डर के अनुसार हार, फूल निश्चित घरों में पहुँचाती। यही उसकी दिनचर्या थी। एक दिन संगीताबाई पति के साथ मैराथन देखने गई। धावकों के आने पर लोग तालियाँ बजाते, प्रोत्साहन देते। उस भीड़ में खड़ी संगीताबाई को लगा कि मैं भी दौड़ सकती हूँ। विशेष बात यह है कि उनके पति पोपटराव ने भी विरोध नहीं किया। और तो और समझाया कि इस स्पर्धा में भाग लेना है तो प्रैक्टिस बहुत जरूरी है। दूसरे ही दिन से दोनों ने सुबह जल्दी उठकर पास ही के विद्यालय परिसर में घूमना शुरू किया। उस समय संगीताबाई की उम्र थी अड़तीस।

मजेदार बात यह है कि संगीताबाई की किसी भी खेल की कोई पृष्ठभूमि नहीं थी। न ही वे कभी स्कूल गईं। अपने छोटे भाई-बहनों को संभालने की जिम्मेदारी के कारण इच्छा होते हुए भी वे स्कूल नहीं जा पाईं। शायद कुछ कर गुजरने की बचपन की अपूर्ण इच्छा तीव्र गति से बाहर आई हो।

शुरू हुआ अभ्या

संगीताबाई की रोज प्रैक्टिस शुरू हुई। बिना चप्पल, साड़ी घुटने तक मोड़कर वे दौड़तीं। विद्यालय के प्रशिक्षक दत्ता महादम सर और उनके विद्यार्थी यह दृश्य बड़े कौतूहल से देखते। महादम सर ने उन्हें पहला ट्रैकसूट दिया। साथ ही जूते पहनने की सलाह दी। बस उसके बाद चार सौ मीटर, नौ सौ मीटर ऐसे दस-बारह राउंड वे आराम से लगातीं।

1997 में वह दिन आ गया, जब मैराथन स्पर्धा में संगीताबाई का उतरना तय हुआ। हॉफ मैराथन में उन्हें इक्कीस किलोमीटर दूरी तय करनी
संगीता खंडागले ने साबित कर दिया है कि किसी की जिद और इच्छाशक्ति उसे कहाँ पहुँचा सकती है
webdunia
थी। समस्या दूरी की नहीं थी। समस्या यह थी कि उन्हें लिखे हुए संकेत पढ़ते नहीं आता था। सो एक दिन पूर्व, पति महोदय ने रास्ता पैदल चलकर बताया। ठीक वैसे ही उन्होंने स्पर्धा का राउंड पूर्ण किया। पहली बार नंबर नहीं आया पर उसके बाद संगीताबाई की गाड़ी जो दौड़ी कि आज तक रुकने का नाम ही नहीं।

इसी दौरान उन्होंने चौथी तक शिक्षा पूर्ण की। कम से कम लिखना-पढ़ना आ गया। 1998 में राज्य स्पर्धा में भाग लिया। उसके बाद दिल्ली, बंगलोर, गोआ, इम्फाल की राष्ट्रीय स्पर्धा में भाग लेकर विजय प्राप्त की।

हाल ही में उन्होंने मलेशिया में हुई ओपन मास्टर्स स्पर्धा में हिस्सा लिया। आर्थिक रूप समस्या सामने आई। घर के सभी लोगों ने सहयोग दिया। कर्ज लेने का तय हुआ। बाद में उसकी आवश्यकता नहीं रही। क्योंकि किर्लोस्कर ऑइल इंजंस, स्थानीय पार्षद रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं आदि ने आर्थिक मदद कर दी। फिर संगीताबाई ने अपना सपना साकार कर अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा जीत ली। यह सफर निश्चित ही प्रेरणादायी है।

प्रस्तुति : सीमा कुलकर्णी

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi