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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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मुनव्वर राना की ग़ज़लें (1)

हमें फॉलो करें मुनव्वर राना की ग़ज़लें (1)
Aziz AnsariWD
1. कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है

न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में
वही जो दूध उबलने के बाद आती है

नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है

ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें* हैं-------- आश्रम
क़लन्दरी* यहाँ पलने के बाद आती है-------फक्कड़पन

गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है
शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
खिज़ाँ तो फूलने-फलने के बाद आती है

2. मिट्टी में मिला दे के जुदा हो नहीं सकता
अब इससे ज़्यादा मैं तेरा हो नहीं सकता

दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँख़ें
रोशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता

बस तू मेरी आवाज़ से आवाज़ मिलादे
फिर देख के इस शहर में क्या हो नहीं सकता

ऎ मौत मुझे तूने मुसीबत से निकाला
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता

इस ख़ाक बदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी
क्या इतना करम बादे सबा हो नहीं सकता

पेशानी को सजदे भी अता कर मेरे मौला
आँखों से तो ये क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता

दरबार में जाना मरा दुश्वार बहुत है
जो शख़्स क़लन्दर हो गदा हो नहीं सकता

दहलीज़-----चौखट, सय्याद-----शिकारी
बादेसबा----सुबह की पूर्वा हवा,
सजदा---- सिर झुका कर माथा टिकाना
क़लन्दर ------मस्तमौला, अपनी मरज़ी का मालिक
गदा-------भिकारी--- दर-दर माँगने वाला

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