बेशक ग़ज़ल, शायरी की सबसे मकबूल सिन्फ़ (विधा) है। लेकिन इसकी मकबूलियत में चार चाँद लगाए हैं कुछ शायरों और कुछ ग़ज़ल गायकों ने। ग़ज़ल को अवाम के दिलों की धड़कन बनाने में अहमद फ़राज़ की खिदमत को कभी फरामोश नहीं किया जा सकता।
उनकी ग़ज़लें उनके दिल का दर्द बनकर अवाम के दिलों में समा गई। ग़ज़ल के शौकीन हिन्दुस्तान में हों, पाकिस्तान में हों या फिर दुनिया के किसी हिस्से में। उन सबके चहीते शायर कहलाए अहमद फ़राज़।
अहमद फ़राज़ की पैदाइश 14 जनवरी 1931 (कुछ लोगों ने इनकी पैदाइश का साल 1934 भी बताया है) को नौशेरा (पाकिस्तान) में हुई। पेशावर यूनिवर्सिटी से उन्होंने फारसी और उर्दू में तालीम हासिल की।
शायरी का शौक बचपन से था। बेतबाजी के मुकाबलों में हिस्सा लिया करते थे। इब्तिदाई दौर में इक़बाल के कलाम से मुतास्सिर रहे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता तरक्की पसंद तेहरीक को पसंद करने लगे। अली सरदार जाफरी और फ़ैज़ अहमद फै़ज़ के नक्शे-कदम पर चलते हुए जियाउल हक की हुकूमत के वक्त कुछ गज़लें ऐसी कहीं और मुशायरों में उन्हें पढ़ीं कि इन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। कई साल पाकिस्तान से दूर बरतानिया, कनाडा मुल्कों में गुजारना पड़े।
मैंने उन्हें दिल्ली के एक मुशायरे में देखा और सुना है। वो मुशायरे के शायर नहीं थे। फिर भी अवाम उनकी दिल से इज्ज़त करते थे और उन्हें सुनने के लिए घंटों इंतजार किया करते थे। जितनी अच्छी उनकी शायरी थी, उतनी ही अच्छी उनकी शख्सियत भी थी। देखने में किसी फिल्मी हीरो से कम नहीं लगते थे। वैसे भी वो एक ख़ुबरू पेशावरी पठान थे।
फ़राज़ ने रेडियो पाकिस्तान में सर्विस की और फिर दर्स-व-तदरीस के पेशे से भी जुड़े। उनकी शोहरत के साथ-साथ उनके दराजात में भी तरक्की होती रही। 1976 में पाकिस्तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के डायरेक्टर जनरल और फिर उसी एकेडमी के चेयरमैन भी बने। 2004 में पाकिस्तान हुकूमत ने उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ अवार्ड से नवाजा। लेकिन 2006 में उन्होंने ये अवार्ड इसलिए वापस कर दिया कि वो हुकूमत की पोलिसी से इत्तेफाक नहीं रखते थे।
फ़राज़ को क्रिकेट खेलने का भी शौक था। लेकिन शायरी का शौक उन पर ऐसा ग़ालिब हुआ कि वो दौरे हाज़िर के ग़ालिब बन गए। उनकी शायरी की कई किताबें शाय हो चुकी हैं। ग़ज़लों के साथ ही फ़राज़ ने नज़्में भी लिखी हैं। लेकिन लोग उनकी ग़ज़लों के दीवाने हैं। इन ग़ज़लों के अशआर न सिर्फ पसंद करते हैं बल्कि वो उन्हें याद हैं और महफिलों में उन्हें सुनाकर, उन्हें गुनगुनाकर फ़राज़ को अपनी दाद से नवाजते रहते हैं।
25 अगस्त 2008 को आसमाने-ग़ज़ल का ये रोशन सितारा हमेशा-हमेशा के लिए बुझ गया। साथ ही ग़ज़लों, मुशायरों और महफिलों को भी बेनूर कर गया। फ़राज़ की ही ग़ज़ल का मिसरा है -
' सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते'