तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं ------फ़ैज़
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आए--------------फ़ैज़
यूँ तो हिलता ही नहीं घर से किसी वक़्त 'अदम'
शाम के वक़्त न मालूम किधर जाता है ------------'अदम'
आइये कोई नेक काम करें
आज मौसम बड़ा गुलाबी है ------'अदम'
रात बाक़ी थी जब वो बिछड़े थे
कट गई उम्र रात बाक़ी है --------ख़ुमार
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी यारब कई दिए होते ----------ग़ालिब
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें के हो गए नाचार जी से हम -------मोमिन
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता --------मोमिन
तेरे कूंचे इस बहाने मुझे दिन से रात करना
कभी इससे बात करना, कभी उससे बात करना----मसहफ़ी
मसहफ़ी हम तो ये समझे थे के होगा कोई ज़ख़्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला --------मसहफ़ी
हम हुए तुम हुए के मीर हुए
उसकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए--------मीर तक़ी मीर
कम से कम दो दिल तो होते इश्क़ में
एक रखते एक खोते इश्क़ में -----------मीर
इस राह पर भी चल न सके हम किसी के साथ
आवारगी भी की है तो शाइस्तगी के साथ ----------अख़्तर नज़मी
तुम्हारे पाँव के कांटे निकाल दूँ आओ
मगर ये राह में किसके लिए बिछाएथे --------अख़्तर नज़मी
चेहरे से हो सके तो उदासी भी पोंछ लो
नज़मी तुम अपनी आँख के आँसू तो पी गए ---अख़तर नज़मी
ख़ुशी का रंग पैमाने में रखिए
तो फिर ग़म कौन से ख़ाने में रखिए ---अख़्तर नज़मी
ये रंग मीर का, मोमिन का, दाग़ का भी नहीं
तुम्हारा जिस्म ग़ज़ल किसकी गुनगुनाता है --------अख़्तर नज़मी
क्या बात है उसने मेरी तस्वीर के टुकड़े
घर में ही छुपा रक्खे हैं बाहर नहीं फेंके -------अख़्तर नज़मी
बच्चे उदास बैठे हैं पिंजरे के आस-पास
जैसे समझ रहे हों परिन्दों की गुफ़्तगू -------अख़्तर नज़मी
अपने घर में अगर सुकूँ होता
बैठते क्यों किसी के घर जाकर -------अख़्तर नज़मी
कुछ हवा तेज़ थी खुली थी किताब
एक पिछला वरक़ पलट आया ------गोपी चन्द नारंग
कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब ऎ साक़ी
ख़ुम आएगा, सुराही आएगी, तब जाम आएगा ----शाद अज़ीमआबादी
दिल अपनी तलब में सादिक़ था, घबराके सू-ए-मतलूब गया
दरया से ये मोती निकला था, दरया ही में जा के डूब गया----शाद
इससे बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जाएँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं ----जिगर
हाथ रख कर मेरे सीने पे जिगर थाम लिया
आज तो तुमने ये गिरता हुआ घर थाम लिया ----अमीर मीनाई
सब्र-ए-अय्यूब किया, गिरया-ए-याक़ूब किया
हमने क्या-क्या न तेरे वास्ते महबूब किया -------मजनू
तलाक़ दे तो रहे हो ग़ुरूर-ओ-क़हर के साथ
मेरा शबाब भी लौटा दो मुझको महर के साथ ----नामालूम
न मुसल्ले की ज़रूरत है न मिमबर दरकार
जिस जगह याद करें तुझको वही है मस्जिद ----शाद अज़ीमाबादी
तेरी निगाह भी इस दौर की ज़कात हुई
जो मुस्तहिक़ है उसी तक नहीं पहुँचती है
तुम्हारे शहर में मय्यत को भी कांधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं -----मुनव्वर राना
अजीब होते हैं आदाब-ए-रुख़सत-ए-महफ़िल
के उठ के वो भी चला जिसका घर न था कोई
किसी गली में खुला दिल का दर न था कोई
तमाम शहर में अपना ही घर न था कोई-------अज़ीज़ अंसारी