अज़ीज़ अंसारी
हाथ मुझसे मिला के महफ़िल में
तुम कहाँ खो गए ख़ुदा जाने
चूमती हूँ मैं इन लबों से कभी
और कभी अपनी आँख से उसको
मैं उसी लम्स के तसव्वुर में
ग़र्क़ ऎसी हुई के उठ न सकी
आज तक बिस्तरे-अलालत से
तुम को मालूम भी नहीं होगा
आते रहते हैं कुछ हकीम यहाँ
सब दवाएँ ही दे के जाते हैं
और कुछ मशवरे भी देते हैं
चाहते हैं वो नब्ज़ भी देखें
उनके सब मशवरे क़ुबूल मगर
वो दवाएँ भी दे तो सकते हैं
पर मेरी नब्ज़ छू नहीं सकते
हाथ मुझ से मिला के महफ़िल में
तुम कहाँ खो गए ख़ुदा जाने