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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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नज़्म : 'ज़ख़्म और मरहम'

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शायर - मेहबूब राही

तुम आखिर मेरी क्या हो = सच हो या एक सपना हो
जानी अन्जानी सी हो = या एक कहानी सी हो

मैं भूल चुका हूँ सबकुछ = वह बीती पुरानी बातें
वह प्यारी सुहानी बातें = जानी अनजानी बातें

ज़ुल्फ़ों में जीने के दिन = आँखों से पीने के दिन
घड़ियाँ वो मसर्रत वाली = प्यार और मोहब्बत वाली

ऎसे में अचानक फिर तुम = हालात के मोड़ पे मुझसे
क्यों आकर टकराई हो = ज़ख़्म पुराने मेरे

फिर से ताज़ा करती हो = क्यों मुझको तुम्हारी आँखें
रह रह कर बहकाती हैं = क्यों फिर से तुम्हारी ज़ुल्फ़ें साँसों को महकाती हैं

क्यों फूल सा बदन तुम्हारा = ख़ुशबू सी बिखराता है
क्यों देख के तुम को फिर से = बीता वक़्त याद आता है

क्यों याद दिलाती हो तुम = मेरे वह दिन और रातें
वह सपनों की बारातें = वह ख़ुशियों की सोग़ातें

मैं सब कुछ भूल चुका हूँ = जब आ ही चुकी हो तो फिर
वह ज़ख़्म पुराने मेरे = जो फिर से सुलग उठ्ठे हैं

मैं फिर से तड़प रहा हूँ = उन ज़ख़्मों पर तुम अपनी
चाहत का मरहम रख दो = वह सुख मुझको लौटा दो

बरसों से जिसके लिए मैं = दिन रात तरस रहा हूँ

चाहत को मेरी जो तुमने = पहले की तरह ठुकराया
हरगिज़ न मैं सह पाऊँगा = बे मौत ही मर जाऊँगा

पेशकश : अज़ीज़ अंसारी

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