वाराणसी में एकछत्र कांग्रेस राज का सूपड़ा साफ

संदीप श्रीवास्तव
आजादी के बाद से हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा प्रदेश कहे जाने वाले उत्तरप्रदेश में शिव की नगरी कही जाने वाली काशी ने प्रदेश से लेकर देश की राजनीति व सरकारों में हिस्सेदारी के लिए प्रतिनिधि दिए।
 
काशी के बीते समय पर नजर डालें तो आजादी के बाद लगभग 22 वर्षों तक कांग्रेस का राज रहा लेकिन जब कांग्रेस का राज उखड़ा तो फिर दुबारा वापस नहीं आ पाया, जबकि वर्ष 1991 भाजपा के लिए स्वर्णिम काल रहा और यहां की 14 में से 9 सीटों पर वह अपना भगवा ध्वज फहराने में कामयाब रही किंतु कांग्रेस के हाथों कुछ नहीं लगा। फिर 2002 व 2007 के चुनाव में भाजपा की बढ़त भी बिखर गई। इस चुनाव में यहां की 14 सीटें भाजपा, सपा व बसपा में वितरित हो गईं। इसी चुनाव में अपना दल के हाथ भी 1 सीट लग गई।
 
2007 के बाद 14 विधानसभा सीटों वाली काशी का भारत निर्वाचन आयोग द्वारा परिसीमन करने के बाद राजनीतिक परिवेश व समीकरण ही बदल गया और काशी जनपद से कटकर अलग हुए चंदौली व भदोही जिले में यहां की आंशिक सीटें चली गईं व बनारस में बचीं 8 सीटें। परिसीमन के बाद हुए 2012 के विधानसभा चुनाव में बनारस की 8 सीटों में से 3 भाजपा, 2 बसपा व 1-1 सपा, कांग्रेस व अपना दल के खाते में गईं।
 
अब इस बार के 17वें विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दल मजबूती से सत्ता कायम करने के लिए रात-दिन एक किए हुए हैं। सपा-कांग्रेस मिलकर वापस आने की जुगाड़ में है तो भाजपा सभी आठों सीटों को अपने कब्जे में करने की जुगत लगा रही है। चुनाव के इस त्रिकोणात्मक मुकाबले में कौन कहां पर टिकता है, इसका पता 11 मार्च को ही लगेगा। तब तक सभी अपने खयाली पुलाव पकाने में लगे रहेंगे।

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