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क्या है इस जंग की जड़

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

30 अगस्त को मिनोट वायुसेना बेस से एक पायलट ने बी-52 लड़ाकू विमान से लॉस एंजिल्स से बार्क्सडेल वायुसेना बेस तक परमाणु बमों से लैस क्रूज मिसाइलों के साथ उड़ान भरी। इसे पेंटागन की लापरवाही कहें या 9/11 के पूर्व उन लोगों को दी गई चेतावनी जो उनके खिलाफ है। अगर बटन दब जाता तो अमेरिका में ही 10 हिरोशिमा पैदा हो जाते। निश्चित ही इतनी बड़ी लापरवाही नहीं हो सकती। क्या यह 11 सितम्बर के पहले कैसेट जारी करने जैसी ही चेतावनी नहीं है?

मीडिया जानती है कि 9/11 को अमेरिकी अखबारों ने बुश के भाषण के उस अंश को दबाया था, जिसमें उन्होंने 'क्रूसेड' शब्द का इस्तेमाल किया था। बाद में इस बात पर जोर दिया गया कि दरअसल यह लड़ाई सभ्य और असभ्य समाज के बीच है।

आतंकियों द्वारा 9/11 को न्यूयॉर्क में तीन हजार निर्दोष लोगों को मार देना निश्चित ही बर्बर और असभ्य होने की निशानी है, लेकिन अफगानिस्तान की लाखों जनता को बेघर कर दर-बदर कर देना और इराक में निर्दोषों को मार देना, सद्दाम को फाँसी देना, क्या यह सब सभ्यता की निशानी है?

कौन तय करेगा कि यह क्रूसेड है, जिहाद है, आतंक के खिलाफ लड़ाई है या कि सभ्य और असभ्य समाज के बीच जंग है? जबकि इस सबसे अलग कम्युनिष्ट मानते हैं कि यह पूँजी और साम्राज्यवाद के खिलाफ जंग है। आखिर क्या है इस जंग की जड़?

दरअसल इस समस्या को समझने के लिए शुरुआत शीतयुद्ध और उसके बाद सोवियत संघ के विघटन से करनी होगी। इसके और भी पीछे जाते है तो अँग्रेजों का वह काल जब मुसलमानों से सत्ता छीनी जा रही थी। ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं हुआ। उसी दौरान अरब राष्ट्रों में पश्चिम के खिलाफ असंतोष पनपा और वह ईरान तथा सऊदी अरब के नेतृत्व में एक जुट होने लगे।

और भी पीछे जाते हैं तो 11वीं शताब्दी के अंत में शुरू हुई यरुशलम पर कब्जे के लिए लड़ाई 200 साल तक चलती रही, ‍जबकि इसराइल और अरब के तमाम मुल्कों में ईसाई, यहूदी और मुसलमान अपने-अपने इलाकों और धार्मिक वर्चस्व के लिए जंग करते रहे। इस जंग का स्वरूप बदलता रहा और आज इसने यरुशलम से निकलकर व्यापक रूप धारण कर लिया है।

अगर 1096-99 में ईसाई फौज यरुशलम को तबाह कर ईसाई साम्राज्य की स्थापना नहीं करती तो शायद इसे प्रथम धर्मयुद्ध (क्रूसेड) नहीं कहा जाता। जबकि यरुशलम में मुसलमान और यहूदी अपने-अपने इलाकों में रहते थे। इस कत्लेआम ने मुसलमानों को सोचने पर मजबूर कर दिया।

जैंगी के नेतृत्व में मुसलमान दमिश्क में एकजुट हुए और पहली दफा अरबी भाषा के शब्द जिहाद का इस्तेमाल किया गया। जबकि उस दौर में इसका अर्थ संघर्ष हुआ करता था।

1144 में दूसरा धर्मयुद्ध फ्रांस के राजा लुई और जैंगी के गुलाम नूरुद्‍दीन के बीच हुआ। इसमें ईसाइयों को पराजय का सामना करना पड़ा। 1191 में तीसरे धर्मयुद्ध की कमान उस काल के पोप ने इंग्लैड के राजा रिचर्ड प्रथम को सौंप दी जबकि यरुशलम पर सलाउद्दीन ने कब्जा कर रखा था। इस युद्ध में भी ईसाइयों को बुरे दिन देखना पड़े। इन युद्धों ने यहूदियों को दर-बदर कर दिया।

निश्चित ही हम सीधे-सीधे भले ही इसे चौथा धर्मयुद्ध कहने से बचें क्योंकि हम एक ऐसे सभ्य समाज में रह रहे हैं जो लगभग पूरी तरह पाखंडी है। हम ग्लोबल होते युग में हैं इसलिए इसे पूँजी और साम्यवाद के बीच की लड़ाई या फिर इसे कहें सांस्कृतिक संघर्ष। दरअसल अब सब कुछ घालमेल हो चला है और यह एक लम्बी बहस का मुद्दा भी हो चला है। इस सब के बावजूद वर्तमान संघर्ष को अतीत के आइने में झाँककर देखने की जरूरत है।

यरूशलम क्यों : दरअसल यह पवित्र शहर यहूदियों, मुसलमानों और ईसाइयों के लिए बहुत महत्व रखता है। यहीं पर तीनों धर्मों के पवित्र टेंपल हैं और तीनों ही धर्म के लोग इस पर अपना अधिकार चाहते हैं। इस शहर ने कई लड़ाइयाँ झेली हैं। इस शहर की जमीन में दफन हैं कई सुनहरें और काले शिलालेख।

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