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आतंकवाद के खिलाफ अधूरी लड़ाई

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वृजेन्द्रसिंह झाला

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दिन 11 सितंबर 20001। अमेरिका में घड़ी की सूइयाँ धीरे-धीरे सरक रही थीं। जैसे ही घड़ी में 8 बजकर 45 मिनट हुए तेज धमाके के साथ एक विमान वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की एक इमारत से टकरा गया।

इसके 10 मिनट बाद एक और विमान दूसरी इमारत से जा भिड़ा। कुछ ही देर में डब्ल्यूटीसी के 'ट्विन टॉवर' ताश के पत्तों की तरह बिखर गए और इस हादसे में करीब 3000 लोग मौत के आगोश में समा गए। ...और इसके साथ ही 'महाशक्ति' का दर्प भी चूर-चूर हो गया।

यह दुनिया का ऐसा पहला बड़ा आतंकवादी हमला था, जिसने न सिर्फ अमेरिकी चौधराहट को चुनौती दी, बल्कि उसे अंदर तक झकझोरकर रख दिया था। वर्षों से आतंकवाद के दंश से बेहाल भारत जैसे देश की चिंताओं को दरकिनार करने वाला यह 'महाशक्तिमान' राष्ट्र आतंकवाद के फन को कुचलने के लिए एक ही झटके में उठ खड़ा हुआ था। सवाल उठता है कि क्या छह साल की अवधि में अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई को अंजाम तक पहुँचा पाया? शायद नहीं।

आतंकवाद को वैश्विक समस्या निरूपित करने वाले अमेरिका की यह लड़ाई महज स्वार्थ और बदले की भावना की बुनियाद पर लड़ी जा रही है। यह अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के अहम की लड़ाई भी है। अफगा‍निस्तान और इराक पर हमले के बाद आतंकवाद नेस्तनाबूद तो नहीं हुआ बल्कि इसकी जड़ें दूर-दूर तक जरूर फैल गईं।

यह दुनिया का ऐसा पहला बड़ा आतंकवादी हमला था, जिसने न सिर्फ अमेरिकी चौधराहट को चुनौती दी, बल्कि उसे अंदर तक झकझोरकर रख दिया था।
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यदि इस दिशा में ईमानदार कोशिश की गई होती, तो अफगानिस्तान में एक बार फिर तालिबान सिर न उठा रहा होता। अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन अमेरिका की गिरफ्त से बाहर नहीं होता और न ही वह 11 सितंबर के हमले की बरसी पर अमेरिका को तोहफे में धमकीभरा वीडियो टेप भेज रहा होता।

जॉर्ज बुश खुश हो सकते हैं कि उन्होंने इराकी तानाशाह सद्‍दाम को समाप्त कर दिया, मगर क्या इससे इराकवासियों को सुख-शांति नसीब हुई? अमन-चैन इराकियों के लिए दूर की कौड़ी ही साबित हुए। आज इराक सद्‍दाम के शासनकाल से ज्यादा अशांत है।

अमेरिकी हमले के बाद से लेकर अब तक लाखों इराकी 'सुकून' का सपना देखते-देखते हमेशा के लिए सो गए। आज भी कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब इराक में लोग हिंसा की भेंट नहीं चढ़ते हों। सद्‍दाम के शासन का खात्मा जरूर हुआ, लेकिन यह पूरी कवायद इराकियों के लिए बर्बादी की इबारत लिख गई।

अमेरिका की नीयत में खोट इसलिए भी नजर आती है कि अफगानिस्तान से सटे पाकिस्तान के कबाइली इलाकों में लादेन के होने की खबरों के बावजूद उसने आज तक इस इलाके में कार्रवाई नहीं की, जबकि उसकी अगुवाई वाली विदेशी सेनाएँ आज भी अफगानिस्तान में मौजूद हैं। या फिर कहा जा सकता है कि लादेन मर चुका है और अमेरिका उसका हौवा खड़ा कर अपने स्वार्थ सिद्ध कर रहा है।

यदि अमेरिका वाकई आतंकवाद की समस्या को लेकर गंभीर है, तो उसे भारत जैसे देशों की चिंताएँ समझना होंगी। दुनिया के कई देशों में गहरी पैठ बना चुके आतंकवाद का खात्मा तभी संभव होगा, जब इसकी जड़ों में ही मट्‍ठा डाला जाए, ताकि फिर कभी यह अपना फन न फैला सके।

11 सितंबर को एक बार फिर हादसे में मारे गए लोगों की स्मृति में मोमबत्तियाँ जलाई जाएँगी। लोग इकट्‍ठे होंगे। कुछ समय के लिए मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि भी दी जाएगी। मगर जब तक आतंकवाद के स्वरूप को व्यापक परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जाएगा और उसके खात्मे के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास नहीं होंगे, तब तक यह श्रद्धांजलि भी अधूरी रहेगी। और अधूरी रहेगी आतंकवाद के खिलाफ वह लड़ाई भी जिसे अंजाम तक पहुँचाने का दावा जॉर्ज बुश ने किया था।

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