वो मदद आज भी नहीं भूला...

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- मिथिलेश कुमार

वे एक प्रतिष्‍ठित विश्‍वविद्यालय में स्‍नातकोत्तर स्‍तर के व्‍यावसायिक पाठ्यक्रम की विभागाध्‍यक्षा हैं। 30 साल के करियर में लोग उन्‍हें अनुशासनप्रिय विभागाध्‍यक्षा के रूप में ज्‍यादा जानते हैं। उन्‍होंने अपना करियर उस दौर में शुरू किया था जब मीडिया में महिलाओं की दखल न के बराबर थी। आज वे एक वरिष्‍ठ पद पर हैं और स्‍वभावत: अनुशासनप्रिय भी। उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि छात्र उनसे अपनी बात कहने में घबराते थे, उन्‍हें लगता था कि कहीं वे उनकी बात सुनकर रुष्‍ट न हो जाएँ।

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मैं अपने दोस्‍तों के समूह में भी किसी मुद्दे पर अनावश्‍यक नहीं बोलता था, जिसके लिए मुझे कई बार प्रशंसा मिली और उलाहना भी। मैं समझ नहीं पाता था कि मुझे ऐसा ही रहना चाहिए या अपने इस स्‍वभाव में कुछ बदलाव करना चाहिए। मैं अपने दो वर्षीय पाठ्यक्रम के दौरान कभी ज्‍यादा नहीं बोल सका। शायद यह मेरे अर्न्‍तमुखी स्‍वभाव के कारण रहा और खासकर अपनी विभागाध्‍यक्ष के सामने।

लेकिन एक बार उनके सामने कुछ कहने का ऐसा मौका आया कि मैं स्‍वयं सोच में पड़ गया कि क्‍या करें? हुआ यूँ कि मुझे तीसरे सेमेस्‍टर के परीक्षा फार्म के साथ फीस भरनी थी और मेरे पिताजी अंतिम तिथि तक किसी कारणवश फीस भेजने में असमर्थ थे और उस दिन मैं यह सोच रहा था कि विलंब शुल्‍क के साथ फीस भरनी पड़ी तो आर्थिक बोझ बढ़ जाएगा। क्‍या करूँ? किससे मदद माँगू?

मैंने अपने दोस्‍तों से भी मदद माँगी, लेकिन कोई भी इस स्‍थिति में नहीं था। यह शहर भी मेरे लिए अनजाना था, मैं इसी उधेड़बुन में रहा कि अपने विभागाध्‍यक्षा को कैसे अपनी परेशानी बताऊँ? क्‍या वे मेरी परेशानी समझ पाएँगीं? क्‍योंकि हमारे मन में उनकी एक ऐसी छवि थी कि वे किसी से सीधे मुँह बात तक नहीं करतीं।

मुझे देख्‍ाते ही शायद उनका यही जवाब होता- आपको पहले से पता है कि फीस जमा करने की अंतिम तिथि तय है तो आपको पहले से इसकी व्‍यवस्‍था कर लेनी चाहिए थी। इस संभावित उत्तर की आशा के बावजूद मरता क्‍या न करता की स्‍िथति में उन्‍हें अपनी समस्‍या बताना ज्‍यादा मुफीद जान पड़ा। उस समय लंच टाइम था और मैं अकेला क्‍लासरूम में बैठा यही सोच रहा था कि विभाग के एक कर्मचारी ने मुझे सूचित किया कि आपको विभागाध्‍यक्षा ने बुलाया है। मैं थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गया कि आखिर क्‍या बात हो गई?

मैंने जैसे ही उनके कक्ष में प्रवेश किया, उन्‍होंने मुझे बैठने का इशारा किया और सीधा सवाल पूछा- आपकी कक्षा के 15 छात्रों में सिर्फ आपका परीक्षा फार्म अब तक जमा नहीं हो पाया है, क्‍यों? जो बात मैं उनसे कहने की सोच रहा था वह उन्‍होंने स्‍वयं ही पूछ ली। जब मैंने उन्‍हें अपनी परेशानी बताई तो पहली बार उन्‍होंने मेरी पारिवारिक स्‍थिति के बारे में पूछा और फीस जमा न कर पाने का कारण जानकर तुरंत ही अपने खादी के झोले से पर्स निकाला और तत्‍काल परीक्षा फीस की राशि मुझे दी।

मैं उस समय उनकी एक ऐसी छवि देख रहा था जो मेरे और मेरे साथियों के लिए अनभिज्ञ थी। मैंने उनका आभार माना, तुरंत जाकर फीस जमा की और उनके बताए अनुसार शेष फीस विलंब से भुगतान करने का आवेदन दिया। उनकी इस दरियादिली पर मेरी आँखों में आँसू आ गए और अब उनके प्रति मेरी धारणा पूरी तरह बदल गई है।

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