अद्‍भुत गुरु का अद्वितीय शिष्य

‘‘महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है?’’ - नरेंद्र

प्रियंका पांडेय
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‘ ‘हाँ, मैं ईश्वर को ठीक वैसे ही देख सकता हूँ, जैसे मैं तुम्हें देख सकता हूँ। कोई भी ईश्वर को वैसे ही देख सकता है, जैसे मैं तुम्हें देख सकता हूँ... पर कौन उन्हें देखना चाहता है? लोग अपने बीवी-बच्चों के लिए आँसू बहाते हैं... अपनी जमीन-जायदाद की चिंता करते हैं... पर ईश्वर के लिए कौन रोता है? जो भी उनके लिए भक्तिभाव से रोएगा, ईश्वर उसे अवश्य दिखेंगे... ।’ ’ - स्वामी परमहंस

कुछ ऐसा ही था एक गुरु का उसके शिष्य से पहला वार्तालाप जिसने उनके शिष्य को बहुत सादगी से उसके जीवन का उद्देश्य समझा दिया।

यह गुरु थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्य थे नरेंद्र नाथ। इस गुरु-शिष्य संबंध का प्रारंभ इन दोनों की इस एक मुलाकात से हुआ था, जिसने नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बनने के लिए अग्रसर किया।

गुरु की लीला नरेंद्र को समझ आने लगी । अपने गुरु के समक्ष सिर झुकाते हुए उन्होंने कहा ‘‘मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं? मुझे अब माँ से कुछ भी नहीं चाहिए।
शिष्य ऐसा था जो हर तथ्य को वास्तविकता की कसौटी पर कसने के लिए अपने गुरु से कौतुहल की पराकाष्ठा तक वाद-विवाद करता था। वहीं गुरु भी कुछ ऐसे थे, जिन्होंने हमेशा ही धैर्य व प्रेम से अपने‍शिष्य के हर प्रश्न का, हर जिज्ञासा का निवारण किया। सामाजिक जीवन की उथल-पुथल से विचलित व उद्विग्न शिष्य को भक्ति व परम ज्ञान के अथाह संसार की राह दिखाई।

भारतीय दर्शन के इस अद्‍भुत गुरु-शिष्य संबंध का यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसने इस परंपरा की पवित्रता की पराकाष्ठा को छुआ है। शायद यही वजह है कि अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के केवल पाँच वर्षों के मार्गदर्शन ने एक अतृप्त व अधैर्यवान शिष्य को एक ऐसे गंभीर व परम ज्ञानी व्यक्तित्व में बदल दिया, जिसने पूरे विश्व में भारतीय दर्शन की उत्कृष्टता का डंका बजाया।

अध्ययन के दौरान नरेंद्र अकसर बेहद विचलित हो जाते थे। एक ओर ईश्वर की प्राप्ति का महान उद्देश्य था, वहीं दूसरी ओर उस परिवार की चिंता, जिसका एकमात्र आसरा वे खुद थे। अपनी विधवा माँ भुवनेश्वरी देवी और दो बहनों को त्याग कर संन्यास अपनाने के इरादे से आए नरेंद्र को अपनी परिवार की चिंता रह-रहकर सताती थी। चिंता भी वाजिब थी। वे परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से ऐसे कैसे मुख मोड़ लेते?

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उनकी इस चिंता का केवल एक हल था, जो केवल उनके गुरु के ही पास था। इसलिए एक दिन नरेंद्र ने अपने गुरु से प्रार्थना की कि वे उसे भी काली माँ के दर्शन कराएँ जिससे वह माता से अपने परिवार का संरक्षण माँग ले। गुरु ने उसे माता के मंदिर भेजा और नरेंद्र को माँ काली के दर्शन हुए। माँ के सामने नरेंद्र के मुँह से निकला ‘ ‘ हे माँ, मुझे ज्ञान और भक्ति दो ।’ ’ लौटकर आने पर गुरु ने पूछा कि ‘ ‘ नरेंद्र, क्या तुमने माँ काली से अपने परिवार के लिए भोजन माँगा? ’ ’ नरेंद्र ने कहा ‘ ‘नहीं गुरुदेव, मैंने उनसे ज्ञान और भक्ति माँगी ।’ ’ इस पर गुरुदेव ने उन्हें डाँटते हुए कहा कि ‘ ‘मूर्ख, फिर से जा और अपने परिवार के लिए भोजन माँग ।’ ’ नरेंद्र तीन बार गया और तीनों बार उसने ज्ञान और भक्ति ही माँगी।


शायद अब अपने गुरु की लीला नरेंद्र को समझ में आ चुकी थी। उसने अपने गुरु के समक्ष सिर झुकाते हुए कहा कि ‘ ‘मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं? मुझे अब माँ से कुछ भी नहीं चाहिए ।’ ’ इस पर गुरु ने नरेंद्र को आश्वस्त किया कि ‘ ‘ आगे बढ़ो मेरे पुत्र, आज से तुम्हारे परिवार को मूलभूत आवश्यकताओं की कमी नहीं होगी। यह मेरा वचन है ।’ ’
अब नरेंद्र पूरी तरह से विवेकानंद हो चुका था। संसार की मोह माया से बहुत दूर, परम ज्ञान के प्रकाश को फैलाने का सारा जिम्मा अपने बलिष्ठ कंधों पर लिए, नरेंद्र अपने गुरु का स्वप्न पूरा करने के उद्देश्य से अनजाने पथ पर निकल चुका था।

अगस्त, 1886 में गुरु के देहावसान के पश्चात सबकुछ पूरी तरह से बदल गया था। नरेंद्र अब मात्र नरेंद्र नहीं रह गया और न ही उसके सहचर पहले जैसे रहे। अब नरेंद्र पूरी तरह से विवेकानंद हो चुका था। संसार की मोह माया से बहुत दूर, परम ज्ञान के प्रकाश को फैलाने का सारा जिम्मा अपने बलिष्ठ कंधों पर लिए, नरेंद्र अपने गुरु का स्वप्न पूरा करने के उद्देश्य से अनजाने पथ पर निकल चुका था।

कुछ समय तक अपने सहचरों के साथ देश-भ्रमण करने के पश्चात् विवेकानंद की राह बिलकुल अलग हो चुकी थी। देश के कोने-कोने में वेदान्त की गरिमा फैलाने के बाद अब विवेकानंद का ध्येय अमेरिका में भारतीय दर्शन और अद्वैतवाद का प्रचार था। 1893 में शिकागो की अंतरराष्ट्रीय धर्म परिषद में स्वामी विवेकानंद ने योग और वेदांत पर अपना व्याख्यान दिया, जिसने पश्चिमी सभ्यता को पूरब के उत्कृष्ट दर्शन से न केवल अवगत कराया बल्कि हेय समझी जाने वाली भारतीय परंपरा की उत्कृष्टता का पूरे विश्व में डंका बजाया। शिकागो सम्मेलन में ‘अमेरिका के मेरे भाइयों और बहनों...’ का उनका संबोधन आज भी भारतीय दर्शन की उत्कृष्टता और पवित्रता का परिचायक माना जाता है।

अपने गुरु के स्वप्न को यथार्थ में बदलने वाले इस शिष्य ने भारत लौटकर उनके नाम पर रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जो आज भी गुरु-शिष्य के इस पावन संबंध को जीवंत किए हुए है...।
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