विक्रमादित्य ने सशरीर पाताल लोक जाकर उनसे भेंट करने की ठान ली। उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया। जब वे उपस्थित हुए, तो उन्होंने उनसे पाताल लोक ले चलने को कहा।
बेताल उन्हें जब पाताल लोक लाए, तो उन्होंने पाताल लोक के बारे में दी गई सारी जानकारी सही पाई। सारा लोक साफ-सुथरा तथा सुनियोजित था। हीरे-जवाहरात से पूरा लोक जगमगा रहा था। जब शेषनाग को खबर मिली कि मृत्युलोक से कोई सशरीर आया है तो वे उनसे मिले।
राजा विक्रमादित्य ने पूरे आदर तथा नम्रता से उन्हें अपने आने का प्रयोजन बताया तथा अपना परिचय दिया। उनके व्यवहार से शेषनाग इतने प्रसन्न हो गए कि उन्होंने चलते वक्त उन्हें चार चमत्कारी रत्न उपहार में दिए। पहले रत्न से मुंहमांगा धन प्राप्त किया जा सकता था।
दूसरा रत्न मांगने पर हर तरह के वस्त्र तथा आभूषण दे सकता था। तीसरे रत्न से हर तरह के रथ, अश्व तथा पालकी की प्राप्ति हो सकती थी। चौथा रत्न धर्म-कार्य तथा यश की प्राप्ति करना सकता था। काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेताल स्मरण करने पर उपस्थित हुए तथा विक्रम को उनके नगर की सीमा पर पहुंचाकर अदृश्य हो गए।
चारों रत्न लेकर अपने नगर में प्रविष्ट हुए ही थे कि उनका अभिवादन एक परिचित ब्राह्मण ने किया।
उन्होंने राजा से उनकी पाताल लोक की यात्रा तथा रत्न प्राप्त करने की बात जानकर कहा कि राजा की हर उपलब्धि में उनकी प्रजा की सहभागिता है। राजा विक्रमादित्य ने उसका अभिप्राय समझकर उससे अपनी इच्छा से एक रत्न ले लेने को कहा।
ब्राह्मण असमंजस में पड़ गया और बोला कि अपने परिवार के हर सदस्य से विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला करेगा।
जब वह घर पहुंचा और अपनी पत्नी, बेटे तथा बेटी को सारी बात बताई, तो तीनों ने तीन अलग तरह के रत्नों में अपनी रुचि जताई। ब्राह्मण फिर भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका और इसी मानसिक दशा में राजा के पास पहुंच गया।
विक्रम ने हंसकर उसे चारों के चारों रत्न उपहार में दिए ।