सिंहासन बत्तीसी : नौवीं पुतली मधुमालती की कथा

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राजा भोज हर दिन नई पुतली से राजा विक्रमादित्य की महानता और त्याग के किस्से सुनकर परशान हो चुके थे। लेकिन वे सिंहासन पर बैठने का मोह भी नहीं रोक पा रहे थे। दूसर तरफ उज्जयिनी की जनता अपने पूर्व राजा विक्रमादित्य के त्याग की कहानियां ‍सिंहासन की पुतलियों से सुनने को बड़ी संख्या में हर दिन एकत्र होने लगी।

नौवे दिन जैसे ही राजा भोज सिंहासन की तरफ बढ़ने लगे मधुमालती नामक पुतली जाग्रत हो उठीं और बोली, ठहरो राजन, क्या तुम राजा विक्रम की तरह प्रजा के लिए अपने प्राणों का भी त्याग कर सकते हो, अगर नहीं तो सुनो राजा विक्रमादित्य की कहानी-

एक बार राजा विक्रमादित्य ने राज्य और प्रजा की सुख-समृद्धि के लिए एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। कई दिनों तक यज्ञ चलता रहा। एक दिन राजा मंत्र-पाठ कर रहे, तभी एक ॠषि वहां पधारे। राजा ने उन्हें देखा, पर यज्ञ छोड़कर उठना असम्भव था। उन्होंने मन ही मन ॠषि का अभिवादन किया तथा उन्हें प्रणाम किया।

ॠषि ने भी राज्य का अभिप्राय समझकर उन्हें आशीर्वाद दिया। जब राजा यज्ञ से उठे, तो उन्होंने ॠषि से आने का प्रयोजन पूछा। राजा को मालूम था कि नगर से बाहर कुछ ही दूर पर वन में ॠषि एक गुरुकुल चलाते हैं जहां बच्चे विद्या प्राप्त करने जाते हैं।

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ॠषि ने जवाब दिया कि यज्ञ के पुनीत अवसर पर वे राजा को कोई असुविधा नहीं देते, अगर आठ से बारह साल तक के छ: बच्चों के जीवन का प्रश्न नहीं होता। राजा ने उनसे सब कुछ विस्तार से बताने को कहा। इस पर ॠषि ने बताया कि कुछ बच्चे आश्रम के लिए सूखी लकड़ियां बीनने वन में इधर-उधर घूम रहे थे।

तभी दो राक्षस आए और उन्हें पकड़कर ऊंची पहाड़ी पर ले गए। ॠषि को जब वे उपस्थित नहीं मिले तो उनकी तलाश में वे वन में बेचैनी से भटकने लगे। तभी पहाड़ी के ऊपर से गर्जना जैसी आवाज सुनाई पड़ी जो निश्चित ही उनमें से एक राक्षस की थी। राक्षस ने कहा कि उन बच्चों की जान के बदले उन्हें एक पुरुष की आवश्यकता है जिसकी वे मां काली के सामने बलि देंगे।

जब ॠषि ने बलि के हेतु अपने-आपको उनके हवाले करना चाहा तो उन्होंने असहमति जताई। उन्होंने कहा कि ॠषि बूढे हैं और काली मां ऐसे कमज़ोर बूढ़े की बलि से प्रसन्न नहीं होगी। काली मां की बलि के लिए अत्यंत स्वस्थ क्षत्रिय की आवश्यकता है। राक्षसों ने कहा है कि अगर कोई छल या बल से उन बच्चों को स्वतंत्र कराने की चेष्टा करेगा, तो उन बच्चों को पहाड़ी से लुढ़का कर मार दिया जाएगा। राजा विक्रमादित्य से ॠषि की परेशानी नहीं देखी जा रही थी।

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वे तुरन्त तैयार हुए और ॠषि से बोले- 'आप मुझे उस पहाड़ी तक ले चले। मैं अपने आपको काली के सम्मुख बलि के लिए प्रस्तुत करूंगा। मैं स्वस्थ हूं और क्षत्रिय भी। राक्षसों को कोई आपत्ति नहीं होगी।' ॠषि ने सुना तो हतप्रभ रह गाए।

उन्होंने लाख मनाना चाहा, पर विक्रम ने अपना फैसला नहीं बदला। उन्होंने कहा अगर राजा के जीवित रहते उसके राज्य की प्रजा पर कोई विपत्ति आती है तो राजा को अपने प्राण देकर भी उस विपत्ति को दूर करना चाहिए।

राजा ॠषि को साथ लेकर उस पहाड़ी तक पहुंचे। पहाड़ी के नीचे उन्होंने अपना घोड़ा छोड़ दिया तथा पैदल ही पहाड़ पर चढ़ने लगे। पहाड़ीवाला रास्ता बहुत ही कठिन था, पर उन्होंने कठिनाई की परवाह नहीं की। वे चलते-चलते पहाड़ की चोटी पर पहुंचे। उनके पहुंचते ही राक्षस बोला कि उन्हें बच्चों की रिहाई की शर्त मालूम है या नहीं।

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राजा ने कहा कि वे सब कुछ जानने के बाद ही यहां आए हैं। उन्होंने राक्षसों से बच्चों को छोड़ देने को कहा। एक राक्षस बच्चों को अपनी बांहों में लेकर उड़ा और नीचे उन्हें सुरक्षित पहुंचा आया। दूसरा राक्षस उन्हें लेकर उस जगह आया जहां मां काली की प्रतिमा थी और बलिवेदी बनी हुई थी विक्रमादित्य ने बलिवेदी पर अपना सर बलि हेतु झुका दिया।

वे जरा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने मन ही मन अंतिम समय समझ कर भगवान का स्मरण किया। वह राक्षस खड्ग लेकर उनका सर धर से अलग करने को तैयार हुआ। अचानक उस राक्षस ने खड्ग फैंक दिया और विक्रम को गले लगा लिया। वह जगह एकाएक अद्भुत रोशनी तथा खुशबू से भर गया।

विक्रम ने देखा कि दोनों राक्षसों की जगह इन्द्र तथा पवन देवता खड़े थे। उन दोनों ने राजा विक्रमादित्य की परीक्षा लेने के लिए यह सब किया था। वे देखना चाहते थे कि विक्रम सिर्फ सांसारिक चीज़ों का दान ही कर सकता है या प्राणोत्सर्ग करने की भी क्षमता रखता है। उन्होंने राजा से कहा कि उन्हें यज्ञ करता देख ही उनके मन में इस परीक्षा का भाव जन्मा था। उन्होंने विक्रम को यशस्वी होने का आशीर्वाद दिया तथा कहा कि उनकी कीर्ति सदियों तक चारों ओर फैलेगी।

इतना कहकर मधुमालती चुप हो गई। अगले दिन राजा भोज का रास्ता रोका पुतली प्रभावती ने। पढ़ें अगले अंक में।


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