Shri Krishna 19 July Episode 78 : नारद बताते हैं रुक्मिणी का हाल, श्रीकृष्ण दूर करते हैं चिंता

अनिरुद्ध जोशी
रविवार, 19 जुलाई 2020 (22:10 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 19 जुलाई के 78वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 78 ) में कुंती और पांडवों के अज्ञातवास में भीम द्वारा राक्षस का वध करने के बाद श्रीकृष्ण इस घटना को देखकर भीम को आशीर्वाद देते हैं। तभी वहां पर नारदमुनी पधार जाते हैं। अब आगे...
 
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श्रीकृष्ण यह सब देख रहे होते हैं तभी वहां नारदमुनी पहुंच जाते हैं। श्रीकृष्ण उन्हें वहां आदर से बिठाकर कहते हैं कहिये क्या आज्ञा है। तब नारदजी कहते हैं- आज्ञा नहीं प्रभु मैं तो माता लक्ष्मी के लिए प्रार्थना करना चाहता हूं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- लक्ष्मी के लिए कहिये उनके लिए क्या कहना चाहते हैं?
 
तब नारदमुनी कहते हैं प्रभु आप तो जानते ही हैं कि माता लक्ष्मी ने आपकी सेवा के लिए धरती पर माता रुक्मणी के रूप में अवतार लिया है। श्रीकृष्ण कहते हैं हां ये मैं जानता हूं। तब नारदजी कहते हैं- तब तो आप ये भी जानते होंगे कि इन दिनों वे बहुत चिंतित है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं चिंतित क्यूं क्या बात है?...नारदजी बताते हैं कि उनके पिता विदर्भ नरेश महाराज भीष्मक ने यह निश्चय किया है कि अब उनका स्वयंवर नहीं होगा। वास्तव में यह निश्चय उन्होंने अपने बड़े पुत्र राजकुमार रुक्मी के डर से किया है। क्योंकि रुक्मी अपनी बहन का विवाह शिशुपाल से करना चाहता है और वह जानता है कि यदि स्वयंवर में आप आए तो राजकुमारी आपका ही वरण करेंगी। प्रभु! वहां सब जानते हैं कि रुक्मणी का मन श्रीकृष्ण प्रेम में पागल है। उसके माता-पिता और सारे भाई यही चाहते हैं कि जहां रुक्मणी चाहे वहीं उसका विवाह हो परंतु राजकुमार रुक्मी के आगे कोई बोल नहीं सकता। आप तो जानते ही हैं प्रभु रुक्मी को परशुराम से ब्रह्मास्त्र प्राप्त हुआ था इसलिए सब उससे डरते हैं। इसलिए देवी रुक्मणी का मन विचलित है। वह सोच रही है कि इस समय आपने उनका उद्धार नहीं किया तो वे अपने प्राण त्याग देंगी भगवन।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं इसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हम समय पर पहुंच जाएंगे नारदजी, उनकी चिंता आप ना करें। यह सुनकर नारदजी रोते हुए कहते हैं भगवन भक्त को आपकी चिंता लगी ही रहती हैं। मुझे याद है देवी लक्ष्मी जब माता सीता के रूप में आई थीं तो उस समय उन्होंने दुख ही दुख देखे थे। इसलिए प्रार्थना करता हूं भगवन की इस जन्म में उन्हें दुखी मत होने देना भगवन।...यह सुनकर श्रीकृष्ण भावुक होकर कहते हैं- नारदजी आपको सिर्फ सीता माता का ही दुख ध्यान में आया। आपने ये नहीं सोचा कि उस जन्म में हमने भी कोई सुख नहीं पाया। हम तो उनसे भी अधिक दुखी रहे। वह जब अयोध्या छोड़कर चली गई तो हम राजा होते हुए भी उसी हाल में रहे जिस हाल में वो वन में रहती थी। हमने भी समस्त सुखों का त्याग कर दिया था। संसारी लोग भले ही यह न जानते हों परंतु आप तो भलिभांति जानते हैं। फिर आपने हमें ये उलाहना क्यों दिया?
 
यह सुनकर नारदजी क्षमा मांगते हैं और कहते हैं- ये उलाहना नहीं प्रभु। देवी रुक्मणी की पीड़ा मुझसे देखी नहीं गई इसलिए आपके पास चला आया प्रभु। मेरी आपसे बस इतनी ही प्रार्थना है कि अब देरी ना करें प्रभु, वर्ना अनर्थ हो जाएगा। इन दिनों देवी का चित्त बहुत विचलित हो गया है इसलिए आप देरी ना करें। 
 
उधर, देवी रुक्मणी माता दुर्गा की मूर्ति के समक्ष पूजा और प्रार्थना करके उनसे सहायता की मांग करती हैं। मेरा मार्ग प्रशस्त्र करो मां। तुम तो जानती हो कि मैंने मन से अपने आपको श्रीकृष्ण की सेवा में सपर्पित कर दिया है। परंतु मेरे पिता और मेरे भाई मेरा हाथ किसी ओर के हाथ में देना चाहते हैं। इधर जाऊं तो प्रेम को लाज लगती है और उधर जाऊं तो कुल की मर्यादा को कलंक लगता है। मेरा मार्ग प्रशस्त्र करो मां। मेरी सहायता करो मां या धर्मराज से कह दो कि मेरी मृत्यु के द्वार खोल दें। मेरे प्रण की लाज रखना तेरे हाथ में है रक्षा करो मां। माता दुर्गा की मूर्ति से एक फूल रुक्मणी के आंचल में गिर जाता है। तब रुक्मणी कहती हैं- तेरा धन्यवाद हो माता। तेरा कोटि-कोटि धन्यवाद हो।

इसके बाद महाराज भीष्मक एक सभा में अपने परिवार के सभी सदस्यों से इस बात की सहमति जानना चाहते हैं कि रुक्मणी का विवाह कृष्ण से किया जाए या नहीं। रुक्मणी के भाई रुक्मी को छोड़कर सभी श्रीकृष्ण से विवाह करने की सहमति देते हैं क्योंकि सभी को यह पता रहता है कि रुक्मणी श्रीकृष्‍ण को चाहती है। लेकिन रुक्मी इस बात के लिए सभी पर जोर देता है कि रुक्मणी का विवाह मैं अपने मित्र शिशुपाल से ही करूंगा और जो भी मेरा विरोध करेगा उसे मेरे धनुष का सामना करना होगा। रुक्मी कहता है कि यदि पुरोहित भेजना चाहते हो तो शिशुपाल के घर भेजो उसे निमंत्रण देने के लिए।
 
बाद मैं रुक्मणी और उनकी मां के बीच इसको लेकर चर्चा होती है। दोनों एक-दूसरे के गले लगकर रोती हैं। रुक्मणी की मां कहती है तेरे पिता, मैं और तेरे चारों भाई तो श्रीकृष्‍ण से ही विवाह करना चाहते हैं परंतु तेरे बड़े भाई तेरा विवाह शिशुपाल से करना चाहते हैं और इसके लिए वह अपने पिता और भाइयों से भी युद्ध करने के लिए तैयार है। यह सुनकर रुक्मणी कहती है कि उनसे कहिये की वे अपना एक बाण मेरी छाती में मार दें तो चारों ओर शांति हो जाएगी, क्योंकि मैं उन्हें छोड़कर किसी ओर से विवाह नहीं कर सकती। इसके बाद रुक्मणी श्रीकृष्ण की याद में खोकर विरह गीत गाती हैं। 
 
इसके बाद रुक्मी अपने सेनापति को एक पत्र लिखकर देता है और कहता है कि जाओ शिशुपाल और जरासंध को विवाह का निमंत्रण दो और जरासंध को भी इसकी सूचना देकर कहो कि इस विवाह में श्रीकृष्ण और यादवों की सेना इसमें विघ्न डाल सकती तो आप सभी अपनी-अपनी सेना लेकर बारात में आएं। जरासंध यह पत्र प्राप्त करके कहता है कि हमें ये रिश्ता स्वीकार है शिशुपाल, हम अवश्य बारात लेकर जाएंगे और विदर्भ को अपनी सेना से घेर कर सुरक्षित कर लेंगे। जय श्रीकृष्णा। 
 
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