Shri Krishna 2 June Episode 31 : कंस ने श्रीकृष्‍ण की हत्या करने के लिए आयोजित किया धनुषयज्ञ

अनिरुद्ध जोशी
मंगलवार, 2 जून 2020 (22:09 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 2 जून के 31वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 31 ) में  रामानंद सागर जी महारास का अर्थ बताते हैं और बताते हैं कि आगे चलकर अब श्रीकृष्ण की राजनैतिक लीलाओं और महान यादव वीरों का आततायी कंस से लोहा लेने का समय आ रहा है।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा

 
उधर कंस अपने शयनकश में सोया रहता है तो वह स्वप्न देखता है कि उसके चारों और भयंकर राक्षस हाथ में फरसा, तलवार, त्रिशूल आदि लिए भयंकर नृत्य करके उसे मारने को आतुर हैं। तभी एक राक्षस उसके सिर पर तेल डालता है और दूसरा उसकी गर्दन काट देता है। घबराकर उसकी आंख खुल जाती है। वह नींद से जागृत हो जाता है। वह भयभीत होकर पलंग से नीचे उतरकर कांपने लगता है। तभी उसे विष्णु भगवान नजर आते हैं। वह दोनों हाथों से अपनी आंखें बंद कर लेता है और चीखता है सैनिक सैनिक। सैनिक उसके पास पहुंचते हैं तो वह कहता है जाओ चाणूर को बुलाओ। मुष्ठिक को बुलाओ। कल प्रात: दरबार में हमारे समस्त सेनानायक उपस्थित हो।
 
 
प्रात: दरबार में बाणासुर कहता हैं कि महाराज कंस हमने आपके इस भयानक स्वप्न का विवरण भी सुन लिया और मथुरा के महापंडित सत्यकजी की धारणा भी कि ये स्वप्न किसी बहुत बड़े विनाश का सूचक है। लेकिन इन दोनों ही बातों से न तो हम भयभीत हुए और ना ही चिंतित हुए। परंतु हमें चिंता हो रही है तो केवल आपकी इस दशा को देखकर। शेर की तरह दहाड़ने वाला कंस आज हमें स्वयं डरा हुआ दिखाई दे रहा है। इसी बात ने हमें चिंता में डाल दिया मित्र, क्योंकि युद्ध नीति कहती है कि शत्रु को जीतने का सबसे पहला गुर ये होता है कि उसे पहले भयभीत कर दो। इससे उसकी शक्ति आधी रह जाती है। इसलिए सबसे पहला काम तो ये करिये मित्र ‍कि अपने हृदय से इस डर को, इस भय को निकाल दीजिए।
 
यह सुनकर कंस कहता है कि इस डर को कैसे अपने हृदय से निकाल दूं मित्र, क्योंकि मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूं कि तुम्हारा ये त्रिलोक विजयी कंस उस बच्चे के सामने आज तक हारता चला आ रहा है। उसके सामने हमें अपनी हर चाल में मात खानी पड़ रही है। उसने हमारे परम शक्तिशाली योद्धाओं का एक-एक करके संहार किया। वह चाहता तो अब तक हमारा भी संहार अवश्य कर सकता था। पर ऐसा नहीं किया उसने। हमने पहले भी कहा था कि ऐसा लगता है कि वो हमारी हंसी उड़ा रहा है। हमारे साथ खिलवाड़ कर रहा है या फिर हमारा एक-एक अंग काटकर हमें तड़पा-तड़पा कर मारना चाहता है। यह ऐसा ही खेल है जैसे एक शेर किसी हिरण को मारने से पहले उसे थोड़ा-थोड़ा भागने दे। फिर उसकी एक टांग काट ले और फिर दूसरी और अंत में हिरण खुद ही थक-हारकर लेट जाए और कह दे लो भैया अब खालो मुझे। एक बालक के हाथों मरने से तो अच्छा है कि मैं स्वयं ही आत्महत्या कर लूं।
 
कंस की ये बातें सुनकर सभी दरबारी भी भयभीत हो जाते हैं, लेकिन बाणासुर कसमसाकर कहता है आत्महत्या कायरों का कार्य है मित्र, कंस जैसे वीरों का नहीं। फिर बाणासुर और चाणूर उसका हौसला बढ़ाते हैं। चाणूर कहता है ‍कि जीत के लिए बुद्धि के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। कंस कहता है कि वो ज्ञानी और वो विद्वान कहां है जो हमें इसका उपाय बताए। तब चाणूर कहता है कि यहीं आपके सामने महाराज। सत्यक जैसे महापंडीत की ओर हाथ करके चाणूर कहता है कि इनके ज्ञान और इनकी विद्या का उपयोग करना चाहिए महाराज। इसलिए आज मैंने इन्हें यहां सभा में बुलाया है। इन्हें यदि सपनों के शुभ-अशुभ फल की जानकारी है तो यह ये भी जानते हैं कि इस विपत्ति का निवारण क्या है।
 
यह सुनकर कंस महापंडित सत्यक से पूछता है कि क्या आपके पास ऐसा कोई उपाय है जिसके द्वारा आने वाली विपत्ति का निवारण हो सके? तब सत्यक कहता है कि परमगुरु शुक्राचार्य के शिष्य के रहते आपको किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए। इस परिस्थिति में गुरुदेव ने एक ही उपाय बताया है। राजन! आप महेश्वर का यज्ञ करो जो समस्त अरिष्टों का नाश करने वाला है। इस महेश्वर यज्ञ का नाम है धनुषयज्ञ। भगवान भूतनाथ के धनुष द्वारा ये यज्ञ संपन्न होता है। जो दु:स्वप्नों का विनाश और शत्रुभय का निवारण करता है। यदि ये यज्ञ सफल हो जाए तो भगवान शंकर प्रत्यक्ष होकर ऐसा वर देते हैं जिससे जरा और मृत्यु दोनों का निवारण हो जाता है।
 
यह सुकर कंस कहता है कि शंकर का दिया हुआ धनुष कहां है? यह सुनकर सत्यक कहता है कि आपको शायद महाराज उग्रसेन ने नहीं बताया होगा। वह धनुष कई पीढ़ियों से मथुरा के राजकुल के पास है और वो आपको गुप्त कोष में मिलेगा। यह धनुष महादेवजी ने नंदी को, नंदी ने परशुराम को और परशुराम ने आपके पूर्वजों को दिया था। ऐसे दो ही धनुष थे। एक त्रैता में श्रीराम के द्वारा तोड़ा गया था और दूसरा आपके राजकुल के पास है जिससे त्रिपुरासुर का वध किया गया था। यदि उस धनुष की निर्विघ्न पूजा करेंगे तो आपका कभी अनिष्ट नहीं होगा।
 
यह सुनकर कंस आश्चर्य करने लगता है और प्रसन्न हो जाता है। तब बणासुर पूछता है इस 'यदि' शब्द का प्रयोग क्यों कर रहे हैं आप? क्या उसकी पूजा निर्विघ्न होने में आपको कोई शंका है? इस पर महापंडित सत्यक कहता है कि नहीं महाराज क्योंकि यह धनुष इतना कठोर है कि महाबली शेषनाग, सूर्य और स्वयं कार्तीकेय भी नहीं झुका सकते, फिर भी गुरुदेव ने कहा था कि यज्ञ के बीच में ये धनुष टूट जाएगा तो यजमान का नाश हो जाएगा।
 
यह सुनकर कंस और बाणासुर भयभीत हो जाते हैं। फिर सत्यक कहते हैं कि परंतु उन्होंने यह भी कहा था कि नारायण के सिवाय इस धनुष को कोई और तोड़ नहीं सकेगा। यह सुनकर कंस और बाणासुर प्रसन्न हो जाते हैं। तब सत्यक कहता है कि इसलिए मुझे यज्ञ की सफलता में कोई शंका नहीं। महाराज आप इस यज्ञ का अनुष्ठान दृढ़ता पूर्वक करें। अपकी विजयी होगी।
 
यह सुनकर कंस और बाणासुर प्रसन्न होकर हंसने लगते हैं। बाणासुर कहता है कि मैं तो कहता हूं कि उसी स्थान पर कृष्ण को भी बुलाइये। एक ही स्थान और एक ही समय पर दोनों ही कार्य सिद्ध हो जाएंगे। आपकी सिद्धि और शत्रु की मृत्यु। यह सुनकर कंस खुश होकर कहता है कि परंतु उसे किस बहाने से बुलाएंगे?
 
बाणासुर कहता है यज्ञ के बहाने। आप जो महान यज्ञ करने जा रहे हैं उसे एक महान उत्सव का रंग दे दीजिये और अपने आसपास के राजाओं को भी न्योता दे दीजिये। मथुरा की जनता इस धार्मिक कार्य को देखकर प्रसन्न हो जाएगी। और, अपने राज्य के वीर योद्धाओं को भी वहां पर बुलाइये ताकि वो अपनी अपनी वीरता का प्रदर्शन कर सकें और इसी बहाने कृष्‍ण को भी वहां पर बुलाइये कि गोकुल में उसने कालिया नाग का दमन कर और गोवर्धन पर्वत उठाकर जो उसने वीरता का प्रदर्शन किया है उसी के लिए सारी प्रजा के समक्ष उसे सम्मानित किया जाएगा।
 
यह सुनकर चाणूर कहता है कि वाह क्या चाल है। बस एक बार वह हमारे जाल में आ जाए तो उत्सव के द्वार पर खड़ा हमारा हाथी कवंलयापिड़ उसे कुचल देगा अथवा हम उसे अखाड़े में मल्ल युद्ध के लिए चुनौति देंगे और मल्ल युद्ध में हमारे पहलवान उसके शरीर का खंड-खंड कर देंगे। यह सनुकर कंस हंसते हुए कहता है ये हुई चाल। एक बार वह स्वयं ही हमारे सामने आ जाए तो हमारी खड़ग का एक ही वार उसके शीश को धड़ से अलग कर देगा। फिर कंस कहता है कि परंतु वह हमारे न्योते पर वह आयेगा नहीं। तब बाणासुर कहता है कि न्योता उसकी ओर से जाए जिसकी बात वह टाल न सके। कंस कहता है अर्थात। 
 
यह सुनकर बाणासुर कहता है वसुदेव और देवकी की ओर से न्योता भेजिये। कंस कहता है कि देवकी ऐसा कभी नहीं करेगी। तब बाणासुर कहता है कि उसका सर उड़ा दीजिए। चाणूर कहता है नहीं इससे जनता भड़क जाएगी। सब खेल बिगड़ जाएगा। मेरे विचार से तो एक अक्रूरजी ही ये कार्य सिद्ध कर सकते हैं। कंस कहता है अक्रूर? तब चाणूर कहता है कि वह यादवकुल का सरदार है और सब उसकी बात मानते हैं। यदि उसे कोई बड़ा प्रलोभन देकर भेजा जाए तो वह ये कार्य कर सकता है। तब कंस कहता है चाणूर यह असंभव है वह बड़ा देशभक्त है। तुम्हें मालूम नहीं कि उसने भरे दरबार में हमारे खिलाफ तलवार खड़ी कर दी थी। वह महाराज शूरसेन को ही अपना स्वामी मानता है। 
 
तब चाणूर कहता है, महाराज लोभ तो हर प्राणी में होता है अंतर केवल मात्रा का है। उसे ऐसा प्रलोभन दिया जाए जिसे वह इनकार न कर सके। उसे हमारे आधीन राज्य में से किसी एक देश का राज्य दे दीजिये।... यह बात कंस को समझ में आ जाती है। फिर चाणूर कहता है कि वह राजभक्त जरूरी है लेकिन समझदार राजनीतिज्ञ और महत्वकांक्षी भी है और मेरी सूचना के अनुसार कुछ दिन पूर्व ही वह गोकुल गया था कृष्‍ण से मिलने ही। वही उसे बहला-फुसला कर यहां ला सकता है। यह सुनकर बाणासुर कहता है कि और यदि वह न माना तो? तब चाणूर कहता है कि यदि भेद नीति से काम ना चले तो दंड नीति का प्रयोग किया जाएगा। यह सुनकर कंस कहता है चाणूर तुम्हारी बात में वजन है। अक्रूर को बुलाया जाए। जय श्रीकृष्णा।
 
तब चाणूर मिलने जाते हैं अक्रूरजी के पास और कहते हैं कि आपको महाराज में बुलाया है। तब अक्रूरजी पूछते हैं कि अक्रूरजी से मिलने की क्या आवश्यकता पड़ गई महाराज को। इस पर चाणूर कहता है कि यह तो मुझे नहीं पता लेकिन हो सकता है कि सभी यादवों को एकजुट करने की उनकी मंशा हो ताकी राज्य में शांति कायम रहे। यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं कि यदि महाराज ऐसा सोचने लगे हैं तो यह तो बहुत अच्‍छी बात है।
 
फिर महाराज कंस से मिलने अक्रूरजी उनके महल में पहुंच जाते हैं। कंस कहता है कि आपने सही सुना अक्रूरजी हम सभी यादवों को एकजुट करना चाहते हैं। विराजिये। दोनों अपने अपने स्थान पर बैठ जाते हैं। फिर कंस कहता है कि अक्रूरजी हम मथुरा को सारे भरतखंड की राजधानी बनाने का सपना देख रहे हैं और यह तभी पूरा होगा जब हम सभी एकजुट होकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करें। इस सपने को साकार करने के लिए मैं आप जैसे राजभक्त का साथ चाहता हूं। आप वीर यादव जाती के एक परमवीर सरदार हैं। उसका हमें आदर करना चाहिए और इसीलिए हमने निश्चय किया है कि आपको मथुरा राज्य के अंतर्गत एक प्रदेश का राजा घोषित किया जाए। यह सुनकर अक्रूरजी सोच में पड़ जाते हैं। तब कंस कहता है कि और ये घोषणा अगले महीने मथुरा में होने वाले एक महान उत्सव में घोषित करेंगे।
 
अक्रूरजी कहते हैं उत्सव? कंस कहता है कि हां हमने विद्वान आचार्यों के कहने पर एक महान माहेश्वर यज्ञ करने का निश्‍चय किया है। जिसमें उस दिव्य धनुष की पूजा होगी जो स्वयं परशुराम ने हमारे पूर्वजों को प्रदान किया था। यह सुनकर अक्रूरजी आश्चर्य करने लगते हैं। फिर कंस कहता है कि इस उत्सव में देश विदेश के राजाओं को बुलाया जाएगा और उन सबके सामने हम आपको उस प्रदेश का राजा घोषित करेंगे। हमारा तो ये भी विचार है कि उसी प्रजा के सामने आपका राज तिलक किया जाए। जिससे दूसरे सरदारों का उत्साह भी बढ़े और जो यादव हमसे किसी कारण वह दूर चले गए हैं वे वापस लौट जाएं और हम सभी की सामूहिक शक्ति से राज्य की शक्ति और समृद्धि बढ़ें।
 
यह सब सुनने के बाद अक्रूरजी कहते हैं कि आपकी सभी बाते सही हैं लेकिन आपने जो मुझे देश का राजा घोषित करने की बात कही है ये उचित नहीं है महाराज। मैं इस सम्मान के योग्य नहीं हूं। यह सुनकर कंस कहता है कि ये आपकी विनम्रता है अक्रूरजी। अन्यथा आप जैसे राजभक्त के लिए बड़े से बड़ा सम्मान भी कम है। यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं कि एक सच्चा राजभक्त अपने जीवन में केवल एक देश और एक राजा का वफादार रहे और जहां तक मेरा सवाल है तो मेरे जीवन में तो मेरे राजा एक ही है, महाराज शूरसेन। और, जीवनभर वही मेरे स्वामी रहेंगे। एक सच्चे सेवक की तरह मेरा यही धर्म है।
 
यह सुनकर कंस कहता है कि महाराज शूरसेन राज्य से विरक्त हो चुके हैं। उन्होंने तो अपने महल को मंदिर बना रखा और वे स्वयं एक संन्यासी की भांति रहते हैं। जिन्हें पूजा-पाठ से ही समय नहीं मिलता वे राज्य का कठिन काम कैसे कर सकते हैं? उसके लिए तो आप जैसे कर्मठ और वीर योद्धाओं की आवश्यकता है। यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं कि यदि वे धर्म कर्म में रत हैं तो उनकी जगह उनके पुत्र कुमार वसुदेवजी हैं। वो वीर भी हैं और कर्मठ भी। जिस मेल-मिलाप की आप बात कर रहे हैं उस मेल-मिलाप की नीति का उन्होंने सदा से समर्थन किया है। आप उन्हीं की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाइये, इसी में सबका कल्याण है।
 
यह सुनकर कंस कहता है कि अवश्‍य हम उनकी ओर हाथ बढ़ाएंगे। परंतु उनके और हमारे बीच एक कांटा है। यदि वह कांटा कोई जड़ से निकालकर फेंक दे तो हम उनसे केवल मित्रता ही नहीं, मथुरा का युवराज भी घोषित कर सकते हैं। अक्रूरजी यदि आपको अपने स्वामी का हित सचमुच प्यारा है तो ये काम आप भी कर सकते हैं। बस उस कांटे को निकाल दीजिये। उसी क्षण आपके स्वामी के सारे दुख दूर हो जाएंगे। उन्हें कारागार से निकालकर युवराज के सिंहासन पर बैठा दिया जाएगा। अक्रूरजी यदि आप उन्हें सचमुच अपना राजा मानते हैं तो राजभक्ति दिखाने का ये सुनहरा अवसर हम आपको प्रदान करते हैं।
 
अक्रूरजी कहते हैं कि इस सुनहरे अवसर का बहुत-बहुत धन्यवाद महाराज। आपने एक बात नहीं बताई की वह जहरीला कांटा कौन है। जिसे उखाड़ने का शुभ कार्य आप मुझे सौंप रहे हैं? तब कंस थोड़ा रुककर कहता है, देवकी और वसुदेव का आठवां पुत्र कृष्ण।
 
यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं कृष्ण! कौन कृष्ण? देवी देवकी और वसुदेवजी की आठवीं संतान तो एक कन्या थीं। तब कंस क्रोधित होकर कहता है कि नहीं वो उनकी आठवीं संतान नहीं थी। वो बाहर से लाई गई थी। वास्तव में उनकी आठवीं संतान एक बालक था जिसे वसुदेव रातोरात नंददेव के घर छोड़ आया था। ये वही कृष्ण है।
 
यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं कि ये बात सच है इसका क्या प्रमाण है? तब कंस कहता है कि देवर्षि नारद का वचन। नारद स्वयं ये रहस्य मुझे बताकर गया है और नारद जैसा देवता कभी झूठ नहीं बोल सकता। यह सुनकर अक्रूरजी हंसने लगते हैं और कहते हैं महाराज कंस आपने देवी देवताओं को मानना कब से शुरू कर दिया है। फिर अक्रूरजी थोड़ा क्रोधित होकर कहते हैं कि जिस बात को आपने स्वयं नहीं देखा, आपके पहरेदारों ने नहीं देखा और आपके विश्वासपात्रों ने नहीं देखा और जिस बात का आपके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है। ऐसी सुनी-सुनाई बात पर विश्वास करके आप महाराज नंद के भोले-भाले और निर्दोष बालक की हत्या का पाप मुझसे करवाना चाहते हैं।
 
यह सुनकर कंस कहता है कि नहीं अक्रूरजी नहीं। हम आपके द्वारा किसी की भी हत्या नहीं करवाना चाहते। आपने तो हमारी पूरी योजना सुनी ही नहीं। हम तो केवल इतना चाहते हैं कि आप गोकुल जाकर कृष्ण को हमारी ओर से न्योता दें और आप स्वयं उसे साथ लेकर आएं। यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं मगर क्यूं? तब कंस कहता है क्योंकि उस उत्सव में हम अपने राज्य के प्रमुख-प्रमुख वीरों का सम्मान करना चाहते हैं। हमने सुना है कि इस वीर बालक ने कालिया जैसे नाग को परास्त करके जमुना से भगा दिया था। ऐसे वीर बालक का हम सम्मान करना चाहते हैं अक्रूरजी।
 
यह सुनकर क्रोधित होकर अक्रूरजी कहते हैं, नहीं महाराज कंस, नहीं। आप सम्मान नहीं करना चाहते। बल्कि इस बहाने उसे बुलाकर उसकी हत्या करना चाहते हैं आप। तब कंस कहता हैं कि इसे हत्या नहीं राजनीति की भाषा में शत्रुदमन कहते हैं। लेकिन अक्रूरजी कहते हैं कि जो वीर होते हैं वे शत्रु को धोखे से नहीं मारते। वे उसे सामने बुलाकर उससे युद्ध करके या तो वीरगति को प्राप्त होते हैं या विजयी होते हैं।
 
यह सुनकर कंस क्रोधित होकर कहता है कि नीति से या अनीति से, किसी भी प्रकार से उसे मारना है। अपने प्राणों की रक्षा करना ही मनुष्य का धर्म है। जब अक्रूरजी कहते हैं कि ऐसा जघन्य पाप में मैं आपका साथ नहीं दे सकता हूं तब कंस अक्रूरजी को धमकाता है लेकिन अक्रूरजी नहीं डरते हैं और कहते हैं कि यदि वह कुमार वसुदेव की आठवीं संतान है तो उनकी आठवीं संतान की रक्षा करना मेरा धर्म है क्योंकि कुमार वसुदेव मेरे स्वामी हैं। मुझे आज्ञा दीजिये महाराज प्रणाम। यह कहकर अक्रूरजी वहां से चले जाते हैं। जय श्रीकृष्णा।
 
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