- डॉ. रामकृष्ण डी. तिवारी
श्राद्ध पक्ष ईश्वर द्वारा प्रदान किया गया एक अत्यंत ही अनुपम समय है। इस दौरान हम अपने पितरों की सेवा कर अपना लोक एवं परलोक सुधार सकते हैं, साथ ही आजकल जो कुछ तथाकथित ज्योतिष आचार्यों ने कालसर्प, पितृदोष या पितृ ऋण से संबंधित जो डर लोगों के मन में बैठाया है, उससे बिना किसी प्रपंच के छुटकारा पाया जा सकता है।
शास्त्रों में इसका वर्णन मिलता है कि भाद्रपद महीने के कृष्ण पक्ष के 15 दिन+पूर्णिमा श्राद्ध पक्ष या महालय श्राद्ध कहलाते हैं। इन दिनों में हमारे पितरों/ पूर्वजों को मृत्युलोक में विचरण करने की अनुमति प्राप्त रहती है। इस समय वे हमारे बहुत निकट रहते हैं। इस समय उनके निमित्त किया गया कार्य उन्हें तत्काल प्रभावित करता है।
जिन पितरों और पूर्वजों ने हमारे कल्याण के लिए कठोर परिश्रम किया, हमारे सपनों व सुख-सुविधाओं को पूरा करने में अपना जीवन बिता दिया उन सबका श्रद्धा से स्मरण करना चाहिए और वे जिस भी योनि में हो, उस योनि में उन्हें कोई दुख न हो। उन्हें सुख और शांति प्राप्त हो, इस हेतु पिंडदान एवं तर्पण करना चाहिए।
यहां हम केवल तर्पण कार्य की चर्चा कर रहे हैं, क्योंकि सर्वपितृ अमावस्या में तर्पण का अत्यधिक महत्व होता है। वैसे तो शास्त्रों में प्रतिदिन तर्पण करने का विधान मिलता है, किंतु यह संभव न हो तो सर्वपितृ अमावस्या में तो तर्पण निश्चित ही किया जाना चाहिए। तर्पण का महत्व एवं फल बताते हुए कहा गया है कि-
'एकैकस्यति लैर्मिश्रांस्त्रीं स्त्रीत दधाज्जलाप्ललीन यावज्जीवकृतम् पापं तत्क्षणादेव नश्यति।'
अर्थात् एक-एक पितर को तिल मिश्रित जल की तीन-तीन अंजुलियां प्रदान करें। इस प्रकार तर्पण करने से जन्म से आरंभ कर तर्पण के दिन तक किए गए पाप उसी समय नष्ट हो जाते हैं।
संध्योपासना में सूर्यार्घ्य से राक्षस भस्म होते हैं और तर्पण से समस्त ब्रह्मांड का कल्याण होता है। तर्पण को पितृयज्ञ भी कहा गया है।
तर्पण प्रयोग : जिन व्यक्तियों के पास पर्याप्त समय है जिन्हें संस्कृत का ज्ञान है तथा जिनके पास तर्पणादि से संबंधित ग्रंथ उपलब्ध हैं उन्हें शास्त्रोक्त मंत्र का उच्चारण कर तर्पण करना चाहिए। इसके अलावा जो श्रद्धा से अपने पितरों के निमित्त कुछ करना चाहते हैं जिनके पास उपरोक्त चीजों का अभाव है, वे व्यक्ति निम्न पद्धति से देव ऋषि, मनुष्य व पितृ तर्पण कर पूरा-पूरा लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
तर्पण में प्रशस्त पात्र व सामग्री : सोना-चांदी, कांसा या तांबे का पात्र पितरों के तर्पण में प्रशस्त माना गया है।
सामग्री में जौ, तिल, दूध, शुद्ध जल, चावल, पुष्प, तुलसी दल व दूर्वा प्रयोग में लाई जाती है। तर्पण में कुशा (पवित्री) का प्रयोग अनिवार्य है। दो कुशा से बनाई हुई पवित्री (अंगूठी) दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली में बनाई हुई पवित्र अंगूठी तथा तीन कुशाओं से मिलाकर बनाई गई पवित्री बाईं अनामिका में धारण करें।
दोनों पवित्रियां देवकार्य, ऋषिकर्म तथा पितृ कार्य में अत्यंत आवश्यक होती है। दोनों पवित्रियां प्रतिदिन आवश्यक नहीं है। सोलह श्राद्ध में प्रतिदिन तर्पण करने से सभी पितरों से आशीर्वाद मिलता है अत: प्रतिदिन का एक निश्चित समय का चयन करके तर्पण करना चाहिए।
सर्वप्रथम तर्पण में उपयोग आने वाली समस्त सामग्री को एक शुद्ध एवं स्वच्छ स्थान पर एकत्रित कर रख लें। प्रात: 12 बजे के पूर्व स्नानादि से निवृत्त हो स्वच्छ वस्त्र (धोती, रेशमी लुंगी या सोला) आदि पर कुशा या रेशमी आसन पर बैठकर तर्पण कार्य प्रारंभ करें।
सर्वप्रथम गायत्री मंत्र से शिखा बांधकर जिनकी शिखा (चोटी) नहीं है, वे शिखा के स्थान पर कुशा रखें। दाहिनी अनामिका के मध्य में दो कुशों की तथा बाईं अनामिका में तीन कुशों से बनी हुई पवित्री धारण करें। कुशा के अभाव में सोने की अंगूठी भी प्रयोग में लाई जा सकती है।
इसके पश्चात पूर्व की ओर मुंह कर तांबे के पात्र में शुद्ध जल डालकर समस्त सामग्री डाल दें। हाथ जोड़कर देव, ऋषि व अपने ज्ञात-अज्ञात पितृ देवों का स्मरण कर उनका आवाहन करें।
सर्वपितृ अमावस्या तर्पण में अंजलि तीन भागों में दी जाती है।
(1) देव ऋषि तर्पण
(2) मनुष्य तर्पण
(3) पितृ तर्पण। यहां पर आपको मंत्र उच्चारण के बिना तर्पण करना है।
(1) देव ऋषि तर्पण : इसमें पूर्व की ओर मुंह करें। सव्य जनेऊ अर्थात बाएं कंधे से लटकती हुई दाएं हाथ के नीचे आती हुई जनेऊ। तर्पण पात्र सामने रखें। दाहिना घुटना जमीन पर लगाएं। अब दोनों हाथों से तर्पण पात्र में से जल लेकर देवतीर्थ से 16+10 अंजलि प्रदान करें। देवतीर्थ अंगुलियों के अग्रभाग में होता है अर्थात अंजलि भरकर अंगुलियों के अग्रभाग से छोड़ें।
(2) दिव्य मनुष्य तर्पण : मनुष्य तर्पण में उत्तर दिशा की ओर मुंह करें। जनेऊ कंठी की तरह गले में डाल लें। सीधे बैठें। कोई भी घुटना जमीन से नहीं लगाएं। प्राजापत्य तीर्थ से 14 (चौदह) अंजलि दें। जब जल को कनिष्ठिका अंगुली के मूल भाग से छोड़ा जाता है, तब उसे प्राजापत्य, प्रजापति या कार्य तीर्थ कहा जाता है।
3) पितृ तर्पण : इसमें दक्षिण दिशा की ओर मुंह कर अपसव्य हो जाएं अर्थात जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखकर बाएं हाथ के नीचे ले आएं। बायां घुटना जमीन पर लगाकर बैठें। इसके बाद पितृतीर्थ से 21+42+21 जल अंजलि प्रदान करें। पितृतीर्थ तर्जनी अंगुली के मुख और अंगूठे के बीच के स्थान को कहते हैं। सभी अंजुली दाएं हाथ से छोड़नी है।
जिनके पास जनेऊ नहीं है उन्हें उत्तरीय (गमछे) के द्वारा तर्पण करना चाहिए।
अंत में पूर्व की ओर मुंह करके शुद्ध जल से सूर्य को अर्घ्य प्रदान करें। दसों दिशाओं और उनके देवताओं का वंदन करने के बाद पितरों से सुख एवं समृद्धि की प्रार्थना करें तथा सर्वपितृ अमावस्या तर्पण कार्य में किसी भी प्रकार की गलती व चूक के लिए क्षमा-याचना करें। फिर निम्न मंत्र बोलकर समस्त तर्पण कार्य भगवान को समर्पित करें।
अनेन यथाशक्ति कृतेन देवर्णिम मनुष्य पितृ तर्पणा रव्येन
कर्मणा भगवान पितृस्वरूपी जनार्दन वासुदेव:
प्रियतांन मम्। ॐ तत्सत् ब्रह्मार्पण मस्तु।।