विवाह के प्रकार और हिंदू धर्मानुसार कौन से विवाह को मिली है मान्यता, जानिए

अनिरुद्ध जोशी
शास्त्रों के अनुसार विवाह आठ प्रकार के होते हैं। विवाह के ये प्रकार हैं- ब्रह्म, दैव, आर्श, प्राजापत्य, असुर, गन्धर्व, राक्षस और पिशाच। उक्त आठ विवाह में से ब्रह्म विवाह को ही मान्यता दी गई है बाकि विवाह को धर्म के सम्मत नहीं माना गया है। हालांकि इसमें देव विवाह को भी प्राचीन काल में मान्यता प्राप्त थी। प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस और पिशाच विवाह को बेहद अशुभ माना जाता है।
 
 
हिन्दू विवाह भोगलिप्सा का साधन नहीं, एक धार्मिक-संस्कार है। संस्कार से अंतःशुद्धि होती है और शुद्ध अंतःकरण में ही दांपत्य जीवन सुखमय व्यतीत हो पाता है। 16 संस्कारों में ब्रह्म विवाह को ही शामिल किया गया है।
 
 
1.ब्रह्म विवाह : दोनों पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या की इच्‍छा‍नुसार विवाह निश्चित कर देना 'ब्रह्म विवाह' कहलाता है। इस विवाह में वैदिक रीति और नियम का पालन किया जाता है। यही उत्तम विवाह है।
 
 
2.देव विवाह : किसी सेवा धार्मिक कार्य या उद्येश्य के हेतु या मूल्य के रूप में अपनी कन्या को किसी विशेष वर को दे देना 'दैव विवाह' कहलाता है। लेकिन इसमें कन्या की इच्छा की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह मध्यम विवाह है।
 
 
3.आर्श विवाह : कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य देकर (सामान्यतः गौदान करके) कन्या से विवाह कर लेना 'अर्श विवाह' कहलाता है। यह मध्यम विवाह है।
 
 
4.प्रजापत्य विवाह:- कन्या की सहमति के बिना माता-पिता द्वारा उसका विवाह अभिजात्य वर्ग (धनवान और प्रतिष्ठित) के वर से कर देना 'प्रजापत्य विवाह' कहलाता है।
 
 
5.गंधर्व विवाह:- इस विवाह का वर्तमान स्वरूप है प्रेम विवाह। परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना 'गंधर्व विवाह' कहलाता है। वर्तमान में यह मात्र यौन आकर्षण और धन तृप्ति हेतु किया जाता है, लेकिन इसका नाम प्रेम विवाह दे दिया जाता है। इसका नया स्वरूप लिव इन रिलेशनशिप भी माना जाता है।
 
 
6. असुर विवाह:- कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) विवाह कर लेना 'असुर विवाह' कहलाता है।
 
 
7.राक्षस विवाह:- कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना 'राक्षस विवाह' कहलाता है।
 
 
8.पैशाच विवाह:- कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक संबंध बना लेना और उससे विवाह करना 'पैशाच विवाह' कहलाता है।
 
 
ब्रह्म विवाह : हिन्दू धर्मानुसार विवाह एक ऐसा कर्म या संस्कार है जिसे बहुत ही सोच-समझ और समझदारी से किए जाने की आवश्यकता है। दूर-दूर तक रिश्तों की छानबिन किए जाने की जरूरत है। जब दोनों ही पक्ष सभी तरह से संतुष्ट हो जाते हैं तभी इस विवाह को किए जाने के लिए शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। इसके बाद वैदिक पंडितों के माध्यम से विशेष व्यवस्था, देवी पूजा, वर वरण तिलक, हरिद्रालेप, द्वार पूजा, मंगलाष्टकं, हस्तपीतकरण, मर्यादाकरण, पाणिग्रहण, ग्रंथिबन्धन, प्रतिज्ञाएं, प्रायश्चित, शिलारोहण, सप्तपदी, शपथ आश्‍वासन आदि रीतियों को पूर्ण किया जाता है।
 
 
दोनों पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह निश्चित कर देना 'ब्रह्म विवाह' कहलाता है। सामान्यतः इस विवाह में वैदिक रीति और नियम का पालन किया जाता है। इस विवाह में कुंली मिलान को उचित रीति से देख लिया जाता है। मांगलिक दोष मात्र 20 प्रतिशत ही बाधक बन सकता है। वह भी तब जब अष्टमेश एवं द्वादशेश दोनों के अष्टम एवं द्वादश भाव में 5 या इससे अधिक अंक पाते हैं। मांगलिक के अलावा यदि अन्य मामलों में कुंडली मिलती है तो विवाह सुनिश्चित कर दिया जाता है। अत: मंगल दोष कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं होती है।
 
 
वर द्वारा मर्यादा स्वीकारोक्ति के बाद कन्या अपना हाथ वर के हाथ में सौंपे और वर अपना हाथ कन्या के हाथ में सौंप दे। इस प्रकार दोनों एक दूसरे का पाणिग्रहण करते हैं। यह क्रिया हाथ से हाथ मिलाने जैसी होती है। मानों एक दूसरे को पकड़कर सहारा दे रहे हों। कन्यादान की तरह यह वर-दान की क्रिया तो नहीं होती, फिर भी उस अवसर पर वर की भावना भी ठीक वैसी होनी चाहिए, जैसी कि कन्या को अपना हाथ सौंपते समय होती है। वर भी यह अनुभव करें कि उसने अपने व्यक्तित्व का अपनी इच्छा, आकांक्षा एवं गतिविधियों के संचालन का केन्द्र इस वधू को बना दिया और अपना हाथ भी सौंप दिया। दोनों एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए एक दूसरे का हाथ जब भावनापूर्वक समाज के सम्मुख पकड़ लें, तो समझना चाहिए कि विवाह का प्रयोजन पूरा हो गया।
 
 
मनुष्य के ऊपर देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण- ये तीन ऋण होते हैं। यज्ञ-यागादि से देवऋण, स्वाध्याय से ऋषिगण तथा उचित रीति से ब्रह्म विवाह करके पितरों के श्राद्ध-तर्पण के योग्य धार्मिक एवं सदाचारी पुत्र उत्पन्न करके पितृऋण का परिशोधन होता है। इस प्रकार पितरों की सेवा तथा सदधर्म का पालन करने की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए संतान उत्पन्न करना विवाह का परम उद्देश्य है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में ब्रह्म विवाह को एक पवित्र-संस्कार के रूप में मान्यता दी गयी है।
 

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