हिन्दू धर्म का 'जीवन एक चक्र है' यह सिद्धांत सही है?

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
दुनिया में दो तरह के धर्म है विश्‍वास प्रधान और कर्म प्रधान। हिन्दू धर्म इन दोनों के बीच एक तीसरा मार्ग है। दरअस्ल जीवन बहुत ही स्पष्ट है लेकिन देखने में विरोधाभासी लगता है। विश्वास प्रधान धर्म मानते हैं कि मरने के बाद ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत होना है जहां वह न्याय करेगा और पाप एवं पुण्य के हिसाब से उसे स्वर्ग या नरक जाना होगा। जो धर्म आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते उनके लिए मरने के बाद सबकुछ वहीं खत्म हो जाता है, लेकिन हिन्दू धर्म के अनुसार यह दोनों की बातें सही नहीं है। यहां यह उल्लेखनीय है कि हिन्दू धर्म वेदों पर आधारित धर्म है पुराण पर नहीं।
 
हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन एक चक्र है। अब यह चक्र कैसा और क्यों है इसे समझना जरूरी है। और क्या सच में ही जीवन एक चक्र है यह भी समझना जरूरी है। आशा है कि चक्र का अर्थ तो सभी जानते ही होंगे। उक्त बात को समझने के पहले यह तय कर लें कि हिन्दू धर्म के धर्मग्रंथ वेद हैं, वेदों का सार उपनिषद है और उपनिषदों का सार गीता है। अब यदि इससे बाहर कुछ भी अन्य लिखा है तो वह हिन्दू धर्म का आधिकारिक वक्तव्य नहीं है, क्योंकि हर तर्क या तथ्य को अन्य तर्क और तथ्य से काटा जा सकता है।
 
ब्रह्मांड के चक्र को समझे : यदि आप ब्रह्मांड के ग्रह-नक्षत्र जिसमें धरती भी शामिल है को देखेंगे तो सभी किसी न किसी तारे का चक्कर लगा रहे हैं। सूर्य जैसे तारों को छोड़ दें तो सभी ग्रह अपनी धुरी पर घूम भी रहे हैं। प्रत्येक ग्रह अपनी धुरी पर जब घुमता है तो उस मान से ही दिन और रात होते हैं। जैसे धरती 24 घंटे में अपनी धुरी पर घुम जाती है तो उस मान से उसके एक गोलार्ध पर दिन और दूसरे पर रात होती है। इसी तरह वह अपनी धुरी पर घूमते हुए 365 में सूर्य का एक चक्कर पूर्ण कर लेती है। इसी तरह मंगल 687 दिन में सूर्य का एक चक्कर पूर्ण करता है अर्थात करीब 23 माह का एक वर्ष। उसका एक दिन 24 घंटे से ज्यादा का होता है।
 
इसी तरह 224.7 दिन में एक चक्कर पूर्ण करता है जबकि वह अपनी धूरी पर घुमकर एक चक्कर 243 दिन में पूर्ण करता है, इसका मतलब यह कि उसका एक दिन उसके एक साल से बड़ा होता है। यदि हम बृहस्पति की बात करें यह सौर मंडल में सबसे बड़ा ग्रह होने के बावजूद यह केवल 9 घंटे 55 मिनट में अपनी धूरी पर घुम जाता है मतलब कि इका दिन और रात मात्र 9 घंटे 55 मिनट का ही होता है, जबकि इसका एक वर्ष धरती के 11.86 साल के बराबर होता है। बस हम यही आपको बताना चाहते हैं कि इसी तरह समय चक्र का ज्ञान प्रत्येक ग्रह पर भिन्न है तो जीवन भी भिन्न होगा और जीवन चक्र भी।
अब समझे चक्र को : जब दिन निकलता है तो व्यक्ति उठ जाता है और जब रात होती है तो व्यक्ति सो जाता है। यह सामान्य-सी प्रक्रिया है। लेकिन इसके उल्टा भी होता है। कुछ प्राणी रात में जागते हैं और दिन में सो जाता है। सोने और जागने के बीच एक क्रिया निरंतर चलती रहती है जिसे हम नींद में चलती है तो स्वप्न कहते हैं और जाग्रत अवस्था में चलती है तो दिव्या स्वप्न या कल्पना कहते हैं।

यह दोनों ही क्रियाएं व्यक्ति के विचार और भाव से पैदा होती है। प्रत्येक मनुष्य धरती और ब्रह्मांड की प्रकृति से जुड़ा हुआ है। उसके प्रभाव से बाहर रहकर वह न तो विचार कर सकता है और न ही भाव कर सकता है। आपके भाव और‍ विचार आपकी शारीरिक प्रकृति के वात, पित्त और कफ के अधीन होकर जो देखा, सुना और महसूस किया जा रहा है उसी के आधार पर निर्मित होते हैं। 
 
अब हमारे पास चार क्रियाएं हो गई:- जाग्रत, स्वप्न और दिव्या स्वप्न। एक चौथी क्रिया है सुषुप्ति यह जाग्रति का विलोम है। इस अवस्था में न तो स्वप्न होते हैं और न दिव्या स्वप्न। हम उस दौरान गहरी नींद की अवस्था में होते हैं। नींद क्या है? सूर्य उदय और अस्त के साथ यह जाग्रति और सुषुप्ति में निरंतर चलने वाली एक शारीरिक क्रिया है। आपका शरीर, मन और मस्तिष्क उपरोक्त तरह की अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, कल्पना, विचार) को एक के बाद एक भोगता रहता है। यह चक्र चलता रहता है।
 
नोट : एक और अवस्था होती है जिसे तुरिय अवस्था कहते हैं उसके बारे में अगले पन्ने पर जानेंगे।
 
जन्म, मृत्यु और जन्म : जन्म और मृत्यु तो शरीर की होती है और फिर नया शरीर मिल जाता है, लेकिन यह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति निरंतर चलती रहती है। जन्म के बाद जाग्रण और जाग्रण के बाद मृत्य के बीच और उसके बार भी जीवन का निरंतर चक्र चलता रहता है। प्रत्येक आत्मा मृत्यु के बाद भी सोना, जागना, स्वप्न देखना और गहरी नींद अर्थात सुषुप्ति में हो जाना चलता रहा है। इस चक्र से मुक्त होना ही मोक्ष है।
 
मरने के बाद व्यक्ति फिर से यहीं जन्म लेकर वही सभी कार्य करता है जो वह कर चुका है। और, जन्म लेने के बाद व्यक्ति फिर से वही सभी कार्य करता है जो कि वह कर चुका है। प्रत्येक आत्मा जो किसी भी तरह का शरीर धारण किए है वह अपने भाव, विचार और कर्म की गति के अनुसार अपना भविष्य निर्मित करके अपना जीवन चक्र चलाती रहती है।
पुनश्च : ब्रह्मांड में सभी ग्रह सूर्य का चक्कर लगा रहे हैं। सभी ग्रह-नक्षत्र मिलकर किसी महासूर्य का चक्कर लगा रहे हैं। सभी ग्रहों पर सूर्य उदय और अस्त होता हुआ दिखाई देता है। इस मान से सभी का दै‍निक समय चक्र अलग-अलग है। धरती अपनी धूरी पर घूमते हुए वह सूर्य का चक्कर लगा रही है। धरती के अपनी धूरी पर घुमने के कारण दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है।

इस बीच मुख्यत: दो संधि होती है, रात और दिन के बीच एवं दिन और रात के बीच। धरती पर मनुष्य, प्राणी और पौधे सभी इस चक्र से बंधे हुए हैं। धरती पर दिन और रात होते हैं तो व्यक्ति के सोता और जागता है। उसी तरह उसके भीत संधि होती है स्वपन्न और सुषुप्ति की। मनुष्य आत्मा जाग्रत, स्वपन्न और सुषुप्ति के चक्र से बंधा है। इससे मुक्ति होना ही मोक्ष है। वेद और उपनिषद कहते हैं कि जीवन एक चक्र है और इससे मुक्त होकर परम जाग्रत अवस्था में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। गीता में इसे स्थितप्रज्ञ बुद्धि कहा गया है।
 
पंचकोश : वेदों में सृष्टि और जीवन के चक्र को पंचकोश के माध्यम से समझाया गया है। पंचकोश के नाम:- 1.अन्नमय, 2.प्राणमय, 3.मनोमय, 4.विज्ञानमन और 5.आनंदमय। अब यह पंचकोश किस तरह चक्ररूप में कार्य करते हैं यह समझने के पहले पंचकोश क्या है यह समझना भी जरूरी है।
 
पंचकोष क्या है इसे सरल भाषा में समझें:- 
1.अन्नमय को जड़ जगत कहते हैं अर्थात आपको जो भी दिखाई दे रहा है वह जगत, जिसमें आपका शरीर और पत्थर भी शामिल है। इसे पृथ्वी तत्व कहते हैं। यह स्पष्ट तौर से आंख से दिखाई देना वाला जगत परिवर्तनशील है। 
 
2.प्राणमय को प्राण और प्राणी जगत कहते हैं अर्थात इस जड़ जगत में दूसरा जो दृश्य हमें दिखाई देता है वह जीवित प्राणियों का समूह है जो कि चलायमान नजर आते हैं। यह वायु ही सभी प्राणियों के जिंदा रहने का आधार है। यह वायुतत्व है। वायुतत्व दिखाई तो नहीं देता लेकिन महसूस होता है। प्राणों में जीने वाले प्राकृतिक भावनाओं के वशिभूत रहकर अपना जीवन यापन करते हैं। ऐसे प्राणी या मनुष्य जिनमें प्राण ज्यादा सक्रिय हैं उनमें क्रोध, सेक्स, भूख, ईर्ष्या और नींद ही प्राधान गुण होते हैं। 
 
3.मनोमय को मानसिक जगत कहते हैं। अर्थात जो ‍भी जीवित प्राणी है उनके भीतर मन की शक्ति विद्यमान है। पशु, पक्षियों आदि में यह मन कम रूप में सक्रिय है जबकि मनुष्यों में ज्यादा। मनुष्य को मनुष्य इसीलिए कहते हैं कि उसमें मन ज्यादा सक्रिय तत्व है। ऐसे लोग जो अच्छे और बुरे विचारों का विश्लेषण करते रहते हैं या ज्यादा सोचते हैं वे प्राण की बाजाय अपने मन में ज्यादा सक्रिय रहते हैं।
 
4.विज्ञानमय को बुद्धि या बोध का जगत कहते हैं। बुद्धि का संबंध विचार या भाव से नहीं है। आपका शरीर जड़ है, उसमें वायु और पंचतत्वों के सक्रिय रहने से प्राण तत्व विद्यमान है और उस प्राण तत्व में मन की सत्ता होने से वह मनोमय है और मनोमय के भीतर या उसके चारों और यदि बुद्धि की सक्रियता अधिक है और आप अपनी बुद्धि से ज्यादा काम लेते हैं तो आप विवेकवान हैं अर्थात आपकी चेतना या आत्मा विज्ञानमयकोश में स्थित है।
 
5.आनंदमयकोश में स्थित चेतना या आत्मा को प्रज्ञावान कहा जाता है। बुद्धि या विवेक से बढ़कर प्रज्ञा होती है। सद् चित्त और आनंद में स्थित आत्मा के भीतर न तो किसी भी प्रकार के भाव होते हैं और न विचार। ऐसे व्यक्ति जाग्रत, स्वपन्न और सुषु‍प्ति अवस्था को छोड़कर तुरिय अवस्था में स्थित हो जाता है। 
 
अब इसे ऐसे समझे : एक आप (आत्म) है, दूसरा आपका शरीर है। इस शरीर को सक्रिय रखने के लिए इसके चारों और प्राणतत्व मौजूद है। प्राणतत्व को सक्रिय रखने के लिए इसके चारों और मन तत्व मौजदू है। मन तत्व को सक्रिय रखने के लिए इसके चारों और बुद्धि तत्व सक्रिय है। बुद्धि तत्व को सक्रिय रखने के लिए आप खुद आर्थात आनंदस्वरूप हैं, लेकिन आपको आपकी क्षमता और उपस्थित का ज्ञान नहीं हैं इसलिए आप खुद को शरीर और मन से ज्यादा कुछ भी नहीं समझते।
 
अब चक्र को समझें : आप सबसे उपर हैं। आपकी चेतना (होश का स्तर) नीचे गिरती है तो पहले शरीर (जड़ में) खुद को व्यक्त करता है। जड़ से उपर उठकर प्राण, प्राण से उपर उठकर मन में खुद को पाकर अभिव्यक्त करता है। यहां तक का चक्र तो स्वत: ही प्राकृतिक है, लेकिन प्रयास द्वारा उसे खुद को उपर उठाकर विज्ञानमय मन में स्थित होना चाहिए और फिर सप्रयास आनंदमयकोश में स्थित होकर खुद को प्राप्त कर लेना चाहिए लेकिन ऐसा होता नहीं और व्यक्त की उम्र पूर्ण हो जाती है। तब वह दूसरा जन्म लेकर फिर से उसी चक्र में फंस जाता है।
 
निष्कर्ष : आनंदमयकोश में स्थित होना या ध्यान के द्वारा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के चक्र को तोड़ते हुए तुरिय अवस्था में स्थित हो जाना ही जन्म-मरण से मुक्ति का उपाय है।
 
ओशो कहते हैं:- देह का परकोटा बाहरी परकोटा है तुम्‍हारे नगर का, जैसे बड़ी दीवाल होती है, पुराने नगरों के चारों और—किले की दीवले। फिर मन का परकोटा है—और एक दीवाल। और फिर भावनाओं का परकोटा सबसे अंतरंग है—और एक दीवाल। और इन तीन दीवालों के पीछे तुम हो चौथे। जिसको जानने वालों ने तुरिया कहा है। तुरिया का अर्थ होता है चौथा। और जब तुम चौथे को पहचान लोगे; तुरिय को पहचान लोगे, इतने जाग जाओगे कि जान लोगे—न मैं देह हूं, न मैं मन हूं, न मैं ह्रदय हूं। मैं तो केवल चैतन्‍य हूं। सिर्फ बुद्धत्‍व हूं—उस क्षण तुम पुरूष हुए।
 
स्‍त्री भी पुरूष हो सकती है। और तुम्‍हारे 'तथाकथित' पुरूष भी पुरूष हो सकते है। स्‍त्री और पुरूष से इसका कुछ लेना देना नहीं है। स्‍त्री का देह का परकोटा भिन्‍न है। यह परकोटे की बात है। घर यूं बनाओ या यूं बनाओ। घर का स्‍थापत्‍य भिन्‍न हो सकता है। द्वार-दरवाजे भिन्‍न हो सकते है। घर के भीतर के रंग-रौनक भिन्‍न हो सकती है। घर के भीतर की साज-सजावट भिन्‍न हो सकती है। मगर घर के भीतर रहने वाला जो मालिक है, वह एक ही है। वह न तो स्‍त्री है, न पुरूष तुम्‍हारे अर्थों में। स्‍त्री और पुरूष दोनों के भीतर जो बसा हुआ चैतन्‍य है, वही वस्‍तुत: पुरूष है।
 
संदर्भ : उपनिषद 

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