।।।वेदों में कहा गया है कि नदी के किनारे लगे वृक्ष को जिस तरह सभी तरह के पोषक तत्व मिलते रहते हैं उसी तरह सुख और दुख सभी अवस्था में जो व्यक्ति परमेश्वर (ब्रह्म) को पकड़कर रखता है वह कभी मुर्झाता नहीं है। दुखों को दूर करने की एक ही औषधि है- 'कायम रहना काम पर और पक्का रहना परमेश्वर पर।।'
वैदिक काल में संत को ऋषि-मुनि कहा जाता था। ये सभी ऋषि या मुनि अरण्य या हिमालय में अपने-अपने आश्रम में रहकर तप करते थे। इसे तपोभूमि भी कहा जाता था। संसार से ये संत कटे हुए रहते थे और यम-नियम का पालन करते हुए कठित तप-योग करते थे। कुंभ या चातुर्मास के दौरान ही संत सांसारिक जीवन में आकर समाज के हाल-चाल जानते थे। इस दौरान संत लोगों से कुछ लेते नहीं थे बल्कि उन्हें कुछ देकर ही जाते थे। इसके अलावा जिन लोगों को दीक्षा देना होती उन्हें वे साथ लेकर चले जाते थे।
हमारे ऋषि-मुनियों ने चार आश्रम की स्थापना की- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। ये आश्रम इसलिए स्थापित किए ताकि गृहस्थ और संन्यासी में फर्क किया जा सके, लेकिन आजकल गृहस्थ ही खुद को संन्यासी या संत मानने लगे हैं। वे सभी सुख-सुविधाओं के बीच रहकर उन्हें भोगते हुए खुद को संत या संन्यासी बताते हैं। लोग ऐसे तथाकथित संतों से दीक्षा लेकर उन्हें अपना गुरु मानते हैं। ये ऐसे गुरु घंटाल हैं कि लोगों को देते कुछ नहीं बल्कि लोगों के पास जो है उसे भी छीन लेते हैं। निर्मल बाबा दसवंत के नाम पर छीनते हैं तो आसाराम करोड़ों का दान लेकर।
धार्मिक टीवी चैनलों पर आने वाले तथाकथित साधु, ज्योतिष या भ्रमित करने वाली पुस्तकें लोगों को अनेक मंत्र, देवता आदि के बारे में बताते और डराते रहते हैं किंतु ये सभी भटकाव के रास्ते हैं। भ्रम-द्वंद्व, डर में जीने वाला या भटका हुआ व्यक्ति कभी भी कहीं भी नहीं पहुंच पाता। वह कभी किसी मंत्र या देवता का सहारा लेता है तो कभी किसी दूसरे मंत्र या देवता का। ऐसा व्यक्ति किनारे से दूर होता जाता है और हमेशा द्वंद्व और दुविधा में रहकर जीवन नष्ट कर लेता है।
पिछले कई वर्षों में हिन्दुत्व को लेकर व्यावसायिक संतों, ज्योतिषियों और धर्म के तथाकथित संगठनों और राजनीतिज्ञों ने हिन्दू धर्म के लोगों को पूरी तरह से गफलत में डालने का जाने-अनजाने भरपूर प्रयास किया, जो आज भी जारी है। हिन्दू धर्म की मनमानी व्याख्या और मनमाने नीति-नियमों के चलते खुद को व्यक्ति एक चौराहे पर खड़ा पाता है। समझ में नहीं आता कि इधर जाऊं या उधर।
भ्रमित समाज लक्ष्यहीन हो जाता है। लक्ष्यहीन समाज में मनमाने तरीके से परंपरा का जन्म और विकास होता है, जो कि होता आया है। मनमाने मंदिर बनते हैं, मनमाने देवता जन्म लेते हैं और पूजे जाते हैं। मनमानी पूजा पद्धति, त्योहार, चालीसाएं, प्रार्थनाएं विकसित होती हैं। व्यक्ति पूजा का प्रचलन जोरों से पनपता है। भगवान को छोड़कर संत, कथावाचक या पोंगा-पंडितों को पूजने का प्रचलन बढ़ता है।
वर्तमान दौर में अधिकतर नकली और ढोंगी संतों और कथावाचकों की फौज खड़ी हो गई है। धर्म को पूरी तरह अब व्यापार में बदल दिया गया है। धार्मिक चैनलों को देखकर जरा भी अध्यात्म की अनुभूति नहीं होती। सभी पोंगा-पंडित अपने अपने प्रॉडक्ट लेकर आ जाते हैं। अजीब-अजीब तरह के तर्क देते हैं और धर्म की मनमानी व्याखाएं करते हैं।
इनकी हरकतों से बदनाम होता धर्म...
इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के पहवाने और व्यवहार को देखकर दुख होता है कि इन्होंने धर्म का सत्यानाश कर दिया है। कोई इन्हें रोकने वाला नहीं है, क्योंकि हम लोकतंत्र में जी रहे हैं। इनकी अजीब तरह की हरकतों को देखकर लगता है कि कौन विश्वास करेगा धर्म पर? ये फूहड़ तरीके से नाचते हैं, जैसे कि आसारामजी नाचते थे। आजकल वे जेल में जप करते होंगे।
लाखों ज्योतिषियों की फौज है, जो मनगढ़ंत तरीके से भविष्य बताते हैं। अभी तो टीवी चैनल पर एक लाल किताब का विशेषज्ञ भी बाबा बन बैठा है, जो भविष्य में ज्योतिष का महल खड़ा करना चाहता है। ऐसा महल जिसके नीचे धर्म भी हो। एक भव्य महल यानी अब हिन्दू जनता नए तरीके से भटकेगी और नए तरीके से डरेगी। अधिकतर हिंदुओं का जीवन तो ग्रह-नक्षत्र ही तय करते हैं- भगवान नहीं, ईश्वर नहीं। ग्रह-नक्षत्रों से डरने वालों की एक अलग ही जमात है, ये क्या भक्ति करेगी? ये नए तरीके से समाज को दूषित करेंगे।
तरह-तरह के लक्ष्मी यंत्र, कुबेर यंत्र बेचे जा रहे हैं। कैसा भी दुख हो उसे दूर करने के उपाय बताए जा रहे हैं। हिन्दू धर्म के नाम पर तरह-तरह के अंधविश्वास फैलाए जा रहे हैं और लोगों को हर तरफ से डराकर उनके मन में द्वंद्व और दुविधा डालकर उनसे मोटी रकम ऐंठी जा रही है। इनके प्रचार-प्रसार के चलते जनता पहले की अपेक्षा अब ज्यादा अंधविश्वासी हो चली है। समाज भयभीत रहने लगा है।
सवाल यह उठता है कि क्या इन्हें रोकने के लिए हिन्दू संत समाज के संत कोई कदम क्यों नहीं उठाते? भारत सरकार क्यों नहीं इनके लिए कोई नीति निर्धारण तय करती? अंधविश्वास संबंधी कोई कानून क्यों नहीं पूरे राष्ट्र में लागू किया जा सकता?
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संतों के चमचे : हिन्दू जनता भी भ्रमित है। इसे भोली-भाली जनता कहना उचित नहीं होगा। यह जनता जानते-बूझते हुए भी किसी न किसी बाबा या ज्योतिषी के चक्कर काटती रहती है, क्योंकि इस जनता को धर्म का ज्ञान नहीं है। जीवन में कभी गीता नहीं पढ़ी, वेद नहीं पढ़े। कभी राम-कृष्ण पर भरोसा नहीं किया, तो निश्चित ही जीवन एक भटकाव ही रहेगा। मरने के बाद भी भटकाव।
यह तथाकथित भोली-भाली, लेकिन समझदार जनता हर किसी को अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा लेकर उसका बड़ा-सा फोटो घर में लगाकर उसकी पूजा करती है। भगवान के सारे फोटो तो किसी कोने-कुचाले में वार-त्योहर पर ही साफ होते होंगे। यह जनता अपने तथाकथित गुरु के नाम या फोटोजड़ित लॉकेट गले में पहनती है। यह धर्म का अपमान और पतन ही माना जाएगा।
संभवत: ओशो रजनीश के चेलों ने सबसे पहले गले में लॉकेट पहनना शुरू किया था। अब इसकी लंबी लिस्ट है। श्रीश्री रविशंकर के चेले, आसाराम बापू के चेले, सत्य सांई बाबा के चेले के अलावा हजारों गुरु घंटाल हैं और उनके चेले तो उनसे भी महान हैं। ये चेले कथित रूप से महान गुरु से जुड़कर खुद में भी महानता का बोध पाले बैठे हैं। किसी संत का शिष्य बनना या किसी संत से दीक्षा लेना यह इन तथाकथित चेलों को नहीं मालूम। यह सब हिन्दू धर्म के नियमों के विरुद्ध है।
हिंदू संत कौन : हिन्दू संत बनना बहुत कठिन है, क्योंकि संत संप्रदाय में दीक्षित होने के लिए कई तरह के ध्यान, तप और योग की क्रियाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है तब ही उसे शैव या वैष्णव साधु-संत मत में प्रवेश मिलता है। इस कठिनाई, अकर्मण्यता और व्यापारवाद के चलते ही कई लोग स्वयंभू साधु और संत कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो चले हैं। इन्हीं नकली साधु्ओं के कारण हिन्दू समाज लगातार बदनाम और भ्रमित भी होता रहा है, हालांकि इनमें से कमतर ही सच्चे संत होते हैं।