पांडवों की जन्म-कथा, जानिए महाभारत की सबसे विचित्र कहानी

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पांचों पांडवों का जन्म पिता के होते हुए भी अनोखे रूप में हुआ। एक बार राजा पांडु अपनी दोनों पत्नियों कुंंती  तथा माद्री के साथ आखेट के लिए वन में गए। वहां उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दिखाई दिया । पांडु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुए मृग ने पांडु को शाप दिया, “राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जाएगी।”

इस शाप से पांडु अत्यन्त दुःखी हुए और अपनी रानियों से बोले, “हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूंगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ” उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, “नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिए।” पांडु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।
 
इसी दौरान राजा पांडु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिए जाते हुए देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, “राजन्! कोई भी निःसंतान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।”
 
ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पांडु अपनी पत्नी से बोले, “हे कुंती! मेरा जन्म लेना ही व्यर्थ हो रहा है क्योंकि संतानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिए मेरी सहायता कर सकती हो?” कुंती बोली, “हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मंत्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूं। आप आज्ञा दीजिए मैं किस देवता को बुलाऊं।” इस पर पांडु ने धर्म को आमंत्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुंती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। 
 
कालान्तर में पांडु ने कुंती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इंद्रदेव को आमंत्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इंद्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पांडु की आज्ञा से कुंती ने माद्री को उस मंत्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनी कुमारों को आमंत्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।
 
एक दिन राजा पांडु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पांडु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन में प्रवृत हुए ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिए कुंती हस्तिनापुर लौट आई।

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