आदिवासी अंचल का गल उत्सव

पीठ में लोहे का हुक, सौ फुट की ऊँचाई पर लटका व्यक्ति

श्रुति अग्रवाल
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आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हम आपको मालवा अंचल के आदिवासी क्षेत्र का एक अजीब रिवाज दिखाने जा रहे हैं। यह रिवाज अब परंपरा का रूप ले चुका है।
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इसे देखने के बाद आप कुछ डर जाएँगे, थोड़ा सहम भी जाएँगे लेकिन आदिवासी इसे मेघनाथ महाराज को अपनी श्रद्धा व्यक्त करने का तरीका कहते हैं। जी हाँ, यह है गल उत्सव। होली के त्योहार के समय मनाए जाने वाले इस उत्सव की शुरुआत होती है मन्नत माँगने से।

  यह रस्म कब शुरू हुई और क्यों? इस बारे में कोई नहीं जानता लेकिन आदिवासी सदियों से इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं। ये लोग रावण पुत्र मेघनाथ को अपना ईश्वर मानते हैं और उनके सम्मान में ही यह रस्म निभाते हैं।       
यदि मन्नत पूरी हो गई तो अपने ईष्ट के प्रति आभार प्रकट करने के लिए ये अपने शरीर में लोहे के हुक जिसे स्थानीय भाषा में आँकड़े कहा जाता है, लगाकर ऊँचे गल झूले में घूमते हैं। गल में चक्कर लगाने वाले व्यक्ति को पड़ियार कहते हैं।

पड़ियार दावा करते हैं कि उन्हें इस तकलीफदेह रिवाज को निभाने के बाद दर्द का बिलकुल अहसास नहीं होता। ऐसे ही एक पड़ियार भँवरसिंह ने हमें बताया कि पिछले साल उन्होंने यहाँ बेटा होने की मन्नत माँगी थी। सालभर में उनके घर बेटा हो गया अब वे गल में चक्कर लगाकर मेघनाथ भगवान को धन्यवाद दे रहे हैं।

इस रस्म को निभाने से पहले पड़ियार जमकर शराब पीते हैं। वे इतने नशे में होते हैं कि उन्हें पीठ पर लोहे के आँकड़े चुभने, खून रिसने का अहसास ही नहीं होता। ऐसे ही एक पड़ियार परमाल सिंह का कहना है कि वे हर साल इस रस्म को निभाते हैं लेकिन उन्हें कभी दर्द नहीं होता। वैसे भी यह हमारी आस्था है और जहाँ आस्था होती है वहाँ सवाल नहीं होते।

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इस रस्म को निभाने से कुछ दिन पहले से ही पड़ियार की पीठ पर हल्दी लगाई जाती है लेकिन अकसर पड़ियार की पीठ में गहरे घाव हो जाते हैं, उन घावों से खून भी रिसता है। डॉक्टरों का कहना है कि इस तरीके से व्यक्ति को संक्रामक रोग भी हो सकते हैं।

लेकिन पड़ियारों का कहना है कि यह गल उत्सव उनकी परंपरा का अटूट हिस्सा है जिसे वे छोड़ नहीं सकते। आप इस संबंध में क्या सोचते हैं हमें बताइएगा।
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