जल बचाने का संदेश देती हैं हमारी भारतीय परंपराएं

डॉ. छाया मंगल मिश्र
भारतीय पर्व और पुराणों में मिलता है जल को बचाने का शुभ संदेश 
 
भारतीय पर्व जो जल, जल बचाने और जलदान का महत्व बताते हैं
 
भारतीय परंपरा में कोई भी ऐसा धार्मिक कार्य नहीं होगा जिसमें जल कलश स्थापित न किया जाता हो। इसी से जल की महत्ता सिद्ध होती है। नदियों को हमारे यहां मां का दर्जा दिया गया है। पुराणों में देवी देवता से लेकर राजा-महाराजा ऋषि मुनि द्वारा सुंदर सरोवर, जलाशय, जल प्रांतर, झरने, कुंए, बावड़ी आदि लोक हित में बनवाने का जिक्र मिलता है। हमारे कई व्रत त्योहार तो जल की महिमा से आपूरित है। मंत्र-श्लोक में भी जल का महत्व मिल जाता है। 
 
अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये।
देवा भवत वाजिन:।
ऋग्वेद (१।२३।१९)
 
 अर्थात्- हे देवों! तुम अपनी उन्नति के लिए जलों के भीतर जो अमृत व औषधि है,उनको जान कर जल के प्रयोग से ज्ञानी बनो। 
 
इस तरह हमारे सांस्कृतिक पर्व अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी निभाते हैं। जरूरत है हमें उनके रहस्यों को समझने की उनके संदेशों को पढ़ पाने की योग्यता विकसित करने की... 
 
आत्मप्रदानं सौम्यत्वमभ्दयश्चैवोपजीवनम्।
 वेदव्यास (महाभारत,सभापर्व ७८।१९)
 
अर्थात्- परहितार्थ आत्मदान, सौम्यत्वं तथा दूसरों को जीवनदान की शिक्षा जल से लेनी चाहिए। 
 
हमारे यहां हर मौसम में हर पर्व जल के महत्व को प्रतिपादित करता है, जल का गुणगान करता है। जल को बचाने का संदेश भी देता है। 
 
आप: सर्वस्य भेषजी:
ऋग्वेद (१०/१३७/६)
अर्थात्-जल सब रोगों की एकमात्र दवा है। 
 
वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि मनुष्य शरीर में यदि जल की कमी आ जाए तो जीवन खतरे में पड़ जाता है। वर्तमान युग में जब जल की कमी की गंभीर चुनौतियां सारा संसार स्वीकार कर रहा है, जल को एक पेय के स्थान पर तत्व के रूप में पहचानना दार्शनिक धरातल पर जरूरी है।  
 
यो व: शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह न:।
उशतीरिव मातर:।।
- यजुर्वेद (३६।१५)
 
अर्थात्- जैसे मां अपनी संतान को दूध पिलाती है, वैसे ही हे जल! जो तुम्हारा कल्याणतम रस है उसे हमें प्रदान करें। 
 
हमारे पुरखे जल, जलदान, जल के लिए प्याऊ खुलवाने का संदेश देते हैं। यहां तक कि पितरों को भी जल अर्पण करने की परंपरा है। तुलसी, पीपल और सूर्य को जल चढ़ाना अब धार्मिक के साथ वैज्ञानिक रूप से भी प्रामाणिक माना जाने लगा है। 
 
1. वैशाख मास में आने वाली एकादशी को प्याऊ खुलवाने से करोड़ों महायज्ञ का फल मिलता है.
 
2. अक्षय तृतीया पर्व में जल कलश दान का विशेष महत्व है। मिट्टी के पात्र में जल भर कर दान का जिक्र पुराणों में मिलता है। इस दिन जल दान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है.
 
3. निर्जला एकादशी व्रत पंचतत्व के एक प्रमुख तत्व जल की महत्ता को निर्धारित करता है। इस व्रत में जल कलश का विधिवत पूजन किया जाता है। निर्जला व्रत में व्रती जल के बिना समय बिताता है। जल उपलब्ध होते हुए भी उसे ग्रहण न करने का संकल्प लेने और समयावधि के पश्चात जल ग्रहण करने से जल की उपयोगिता पता चलती है। व्रत करने वाला जल तत्व की महत्ता समझने लगता है। 
 
4.भगवान शिव की मूर्ति व शिवलिंग पर जल चढ़ाने का महत्व भी समुद्र मंथन की कथा से जुड़ा हुआ है। अग्नि के समान विष पीने के बाद शिव का कंठ एकदम नीला पड़ गया था। विष की ऊष्णता को शांत कर भगवान भोले को शीतलता प्रदान करने के लिए समस्त देवी-देवताओं ने उन्हें जल-अर्पण किया। इसलिए शिव पूजा में जल का विशेष महत्व माना है।
 
शिव स्वयं जल हैं 
शिवपुराण में कहा गया है कि भगवान शिव ही स्वयं जल हैं।
 
संजीवनं समस्तस्य जगतः सलिलात्मकम्‌।
भव इत्युच्यते रूपं भवस्य परमात्मनः ॥
 
अर्थात्‌ जो जल समस्त जगत्‌ के प्राणियों में जीवन का संचार करता है वह जल स्वयं उस परमात्मा शिव का रूप है। इसीलिए जल का अपव्यय नहीं वरन्‌ उसका महत्व समझकर उसकी पूजा करना चाहिए।
 
5.गंगा सप्तमी पर्व मां गंगा का पुनर्जन्म भी माना जाता है अत: इसे गंगा जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। जिस दिन ये धरती पर अवतरित हुईं उस दिन को गंगा दशहरा के रूप में मनाया जाता है। मोक्षदायिनी गंगा में स्नान करने से सरे पाप और दुःख कट जाते हैं पर अब कलयुग में गंगा भी पाप से दूषित होने लगी है। ऐसे में जल का महत्त्व और उसकी शुद्धता का जिम्मा और बढ़ जाता है। 
 
6. भगवान नृसिंह को वैष्‍णव संप्रदाय के लोग संकट के समय रक्षा करने वाले देवता के रूप में पूजते हैं। चूंकि ये क्रोधावतार हैं इसलिए इन्हें जल के सामान शीतल वस्तुओं का अर्पण किया जाता है। प्रतिस्पर्धा, अनजान शत्रुओं से बचने के लिए इन पर बर्फ मिला या उतना ठंडा जल चढ़ाया जा सकता है। 
 
7. वैशाख पूर्णिमा पर दान और पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करने का भी विशेष महत्व होता है। 
 
8. वट सावित्री व्रत में बरगद वृक्ष चारों ओर घूमकर सौभाग्यवती स्त्रियां रक्षा सूत्र बांधकर पति की लंबी आयु की कामना करती हैं। विधि विधान से पूजन पश्चात् वटवृक्ष/बड़ के के वृक्ष की जड़ों में पानी देतीं हैं। धरती पर इनकी जड़ें अपनी पकड़ से पानी को संचित रखतीं हैं व माटी को बांध के रखतीं हैं। कटने नहीं देतीं ऐसे ही पति -पत्नी का रिश्ता जन्मों तक कायम रहता है। 
 
9. इन पर्वों को मानाने के साथ हम प्रार्थना करें कि-
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शं योरभि स्रवन्तु न:।
अथर्ववेद (१।६।१)
सामवेद (३३)
अर्थात्- हमें इच्छित सुख देने के लिए जल कल्याणकारी हों।‌ हमारे पीने के लिए सुखदायी हों। हमें सुख और शांति देते हुए जल प्रवाह बहे।
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