अपरिग्रह के बारे में महावीर स्वामी के उपदेश-
चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि।
अन्नं वा अणुजाणाइ एव्रं दुक्खाण मुच्चइ॥
परिग्रह पर महावीर स्वामी कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसका दुःख से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता।
सवत्थुवहिणा बुद्धा संरक्खणपरिग्गहे।
अवि अप्पणो वि देहम्मि नाऽऽयरंति ममाइयं॥
ज्ञानी लोग कपड़ा, पात्र आदि किसी भी चीज में ममता नहीं रखते, यहाँ तक कि शरीर में भी नहीं।
धणधन्नपेसवग्गेसु परिग्गह विवज्जणं।
सव्वारंभ-परिच्चाओ निम्ममत्तं सुदुक्करं॥
धन-धान्य, नौकर-चाकर आदि के परिग्रह का त्याग करना चाहिए। सभी प्रकार की प्रवृत्तियों को छोड़ना और ममता से रहित होकर रहना बड़ा कठिन है।
जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई।
दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निट्ठियं॥
ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। 'जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।' पहले केवल दो मासा सोने की जरूरत थी, बाद में वह बढ़ते-बढ़ते करोड़ों तक पहुँच गई, फिर भी पूरी न पड़ी!