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Uttarakhand Forest Fire : जंगल की आग में धधक रहा है उत्तराखंड, अब तक 1,844 घटनाएं, 3,000 हेक्टेयर क्षेत्र हुआ भस्म, मानव आबादी पर भी खतरा

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एन. पांडेय

, रविवार, 1 मई 2022 (23:35 IST)
देहरादून। उत्तराखंड के जंगलों में अब तक 1,844 वनाग्नि की घटनाएं हो चुकी हैं। इसमें कुल करीब 3,000 हेक्टेयर तक जंगल या तो भस्मीभूत हो गए या प्रभावित हो चुके हैं। गढ़वाल में 3 व्यक्ति आग की चपेट में आकर घायल हुए जबकि कुमाऊं मंडल में भी 2 व्यक्ति घायल हुए, एक की मौत हो चुकी है। राज्य में फायर सीजन के दौरान सबसे ज्यादा आग की घटनाएं 27 अप्रैल को हुई हैं। इस दिन कुल 227 आग लगने की घटना हुई। इसमें 561 हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुए। अप्रैल महीने की आखिरी 5 दिनों में भी आग लगने की घटनाएं काफी ज्यादा रहीं। 
 
100 से ज्यादा घटनाएं : महीने के 26 अप्रैल से लेकर 29 अप्रैल तक आग की 100 से ज्यादा घटनाएं हुईं और हर दिन करीब 150 हेक्टेयर से ज्यादा जंगलों में आग फैली। मुख्य वन संरक्षक फायर फाइटिंग निशांत वर्मा ने माना कि तापमान में अधिकतम बढ़ोतरी और बारिश न होने से आग की घटनाएं बढ़ीं। इससे आबादी वाले क्षेत्र समेत वन्यजीव पार्कों तक भी आग की लपटों ने कहर ढाया। गत मंगलवार रात्रि को चमोली जिले के कर्णप्रयाग में जंगल की आग राजकीय इंटर कॉलेज केदारूखाल तक पहुंच गई। इसके चलते तीन क्लासरूम और उनमें रखा फर्नीचर जलकर राख हो गए। 
 
बुधवार को पिथौरागढ़ से धारचूला तक जंगल जलते रहे। धारचूला में जंगलों की आग गांव तक पहुंच गई। ग्रामीणों की शिकायत के बाद वन महकमा हरकत में आ पाया। नैनीताल जिले में अल्मोड़ा-हल्द्वानी हाईवे पर गरमपानी के पाडली क्षेत्र की पहाड़ी पर लगी आग से पत्थर गिरते रहने के कारण हाईवे पर आवाजाही तीन घंटे बाधित रही। 
 
उत्तरकाशी जिला मुख्यालय सहित गंगा घाटी, यमुना घाटी और टोंस घाटी के निकट के जंगलों में लगी आग विकराल हो गई है। टिहरी जिले के विभिन्न जगहों पर जंगल आग से सुलग रहे है। आग के चलते आस-पास के क्षेत्रों में धुंध छाई है और क्षेत्रवासियों को उमस का सामना करना पड़ रहा है। कोटद्वार के पास देर रात दुगड्डा ब्लॉग के अंतर्गत प्राथमिक विद्यालय चंडाखाल तक पहुंची आग ने विद्यालय भवन में रखे सामान को खाक कर दिया, वहीं ग्रामीणों की सूझबूझ के चलते लैंसडाउन तहसील के अंतर्गत सेंधा खाल पटवारी चौकी आग की चपेट में आने से बच गई।
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दमकल कर्मियों के प्रयास : रविवार को हरिद्वार में मेला अस्पताल के पीछे जंगल में आग लगने से अफरा-तफरी मच गई। दरअसल, आग तेजी से चिकित्सालय के ऑक्सीजन जनरेशन प्लांट की तरफ बढ़ने लगी, जिससे अस्पतालकर्मियों के हाथ पांव फूल गए। सूचना पर मायापुर फायर स्टेशन की टीम आनन-फानन में मौके पर पहुंची और आग बुझाने में जुट गई। फायर यूनिट घनसाली ने बीती 24 अप्रैल को बौर गांव में जंगल की आग से लकड़ी के बने 3 मकानों में लगी आग को फायर टेंडर से 6 होज पाइप को लगाकर पम्पिंग कर पूर्ण रूप से बुझाकर आग को गांव के अन्य घरों में फैलने से रोक दिया। 
 
ब्लैक कार्बन की मात्रा बढ़ी : भयावह हो रही आग की घटनाओं से पहाड़ की आबोहवा में प्रदूषण भी बढ़ रहा है। आग के फैलते धुएं ने कई शहरों की विजिबिलिटी को कम कर डाला है। आग के धुएं से ब्लैक कार्बन की मात्रा में आश्चर्यजनक ढंग से 12 से 13 गुना वृद्धि होने का अनुमान लगाया जा रहा है। ब्लैक कार्बन से ग्लेशियरों को भारी नुकसान की संभावना बनी रहती है। 
 
जैव विविधता के लिए खतरा : जैव विविधता को भी इससे संकट खड़ा होता है। ब्लैक कार्बन से पेड़-पौधों को नुकसान पहुंचने के साथ ही मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी कम होगी। यदि आग पर काबू पाया नहीं गया, तो इसकी मात्रा बढ़ती जाएगी। ब्लैक कार्बन प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से स्वास्थ्य सहित जल, जंगल और जमीन  को भारी क्षति पहुंचती है। 
 
दुर्लभ प्रजातियां आग में भस्म : कुमाऊं विश्वविद्यालय के वनस्पति विभाग के प्रोफेसर डॉ. ललित तिवारी के अनुसार जहां तमाम दुर्लभ वनस्पतियों को एस आग ने भस्म किया है। आग की घटनाओं से जंगलों के खतरे को भांप वन्यजीव भी शहरों के समीप आ रहे हैं। इनमे तेंदुआ बाघ और अन्य हिंसक प्रकृति के जानवर तो तमाम गांवों के लिए खतरा बन गए हैं। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जब हिंसक जानवरों के बढ़ते आतंक से संबंधित कोइ घटना सामने नही आती। उत्तरकाशी जिले के जिला हेडक्वार्टर से 5 किलोमाटर दूर भैल्युड़ा गांव के ऊपर मौजूद जंगल धधक रहे हैं जबकि तेंदुए गांव के खेत में दखाई देने से गांववाले दहशत में हैं।
 
पर्यटन पर भी असर : आग की बढ़ती घटनाओं से पहाड़ों की नैसर्गिक वादियों में छाई धुंध और बढ़ रहे तापमान का असर पर्यटन पर भी पड रहा है। अप्रैल के पहले और दूसरी हफ्ते में जिस तरह की भीड़ पर्यटन स्थलों पर दिखी तीसरे हफ्ते ऐसी भीड़ पर्यटन केन्द्रों से नदारद दिखी। इसका कारण कारोबारियों में से कुछ आग की घटनाओं को भी मानते हैं। पुराने जमाने मे तो जंगल मे आग लगते ही ग्रामीण ही सबसे पहले आग बुझाने आते थे, क्योंकि उस जमाने गांव की समूची आर्थिकी जंगलों पर ही निर्भर थी। 
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कानून के कारण दूर हुए ग्रामीण : जंगलों से घास, लकड़ी, जलाऊ, इमारती, खेती बाड़ी, खेत-खलियान, हवा, पानी, सिंचाई के लिए, पीने के लिए, पशुओं के लिए चारा पत्तियों से लेकर कृषि से संबंधित हल तागड, टोकरी से लेकर बोझ उठाने के लिए रिंगाल, मकान के लिए पत्थर गारे, मिट्टी, मकान की छत के लिए पटाल से लेकर कड़ी तख़्ते, लेपने पोतने के लिए मिट्टी से लेकर लाल मिट्टी, कमेडू, खाने के लिए जँगली फल फूल सभी कुछ तो जंगलों से ही मिलता था, लेकिन सरकारों द्वारा थोपे गए तमाम कानूनों के चलते ग्रामीणों और जंगलों की दूरी बढ़ने लगी। 
 
माफियाओं का राज : जंगलों पर जंगलात वालों के ही अधिकार रह गए हैं। उनकी मर्जी से आप एक रिंगाल भी जंगल से काट कर नहीं ला सकते जबकि खनन माफिया, लक्कड़ माफिया, जड़ी बूटी माफिया, वन्य जीव तस्कर और भू-माफिया इन कानूनों की परवाह तक नहीं करते। ऐसे में ग्रामीणों का जंगलों से लगाव घटने के कारण ही आग को काबू करना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है।

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