वह दिन कब आएगा...

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- ‍ निहारिका झा

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एक दिन पहले से ही पूरे घर में उत्सव-सा माहौल था। मैं पूरी तैयारियों में जुटी थी। अगले दिन रक्षाबंधन जो था। भाई चेन्नई से कई सालों बाद लौट रहा था। जाहिर है, रक्षाबंधन की खुशी और भी दुगुनी हो गई थी। माँ के साथ मैं भी मिठाइयाँ बनाने में व्यस्त थी। भाई मुझसे उम्र में छोटा है, लेकिन मुझे आज भी याद है, जब भी कोई परेशानी आती, एक बड़े भाई की तरह वह मुझे समझाने की कोशिश करता। था तो छोटा, लेकिन उसकी बातों में बड़ा तर्क होता था।

उसकी प्रतिभा ही थी ‍‍कि हजारों के बीच प्रतियोगिता में भी वह प्रथम आया और एक बड़ी कंपनी में उसे नौकरी मिल गई। इतनी व्यस्तता कि चार सालों से वह घर भी नहीं आ पाया। मम्मी-पापा भी उसे देखने को तरस गए हैं, लेकिन जैसे ही खबर मिली कि वह इस राखी पर घर आ रहा है, मानो घर के सारे लोगों में जान आ गई हो। घर का लाडला इतने सालों बाद वापस जो आ रहा था।

  करीब आधे घंटे बाद फोन घनघनाने की आवाज आई। दौड़कर मैंने फोन उठाया, छोटे की आवाज थी। बड़े ही उदास स्वर में उसने कहा, 'दीदी मैं नहीं आ पाऊँगा। फिर जरूरी काम निकल आया है।'       
मैं भी तो इतने सालों तक बिना राखी बाँधे उसके आने की राह ही देख रही थी। उसके पसंद के मोतीचूर के लड्डू पापा ने खास ऑर्डर देकर बनवाए हैं। बड़े ही चाव से खाता है वह। माँ भी कहाँ पीछे रहने वाली थीं। उन्होंने तो मानो सालभर का नमकीन एक दिन में बनाकर रख दिया था। मैं उन्हें मना कर रही थी कि बेचारा दो दिन के लिए ही तो आ रहा है। इतने सारे पकवान कैसे खा पाएगा। खैर, मैं मना भी कर रही थी, लेकिन मेरी भी यही इच्‍छा थी कि दो दिनों में ही अपने सारे अरमान पूरे कर लूँ।

सुबह हुई और पूरे घर में एक अजीब-सी खुशी और संतोष सबके चेहरे पर दिख रहा था। काम करते-करते भी हमारी नजर बार-बार घड़ी की ओर ही जा रही थी। नहीं पूछकर भी सब यही पूछने की कोशिश कर रहे थे कि छोटा कब तक आएगा। करीब आधे घंटे बाद फोन घनघनाने की आवाज आई। दौड़कर मैंने फोन उठाया, छोटे की आवाज थी। बड़े ही उदास स्वर में उसने कहा, 'दीदी मैं नहीं आ पाऊँगा। फिर जरूरी काम निकल आया है।'

घर में फिर वही उदासी और आँखों में फिर वही इंतजार तैरने लगा।

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