अशोक गहलोत का सरल व्यक्तित्व और चुनाव से पहले कई जनहितैषी घोषणाओं के बावजूद राजस्थान की सत्ता कांग्रेस के 'हाथ' से फिसल गई।
क्या राजस्थान में नरेन्द्र मोदी का जादू चला या लोग सत्ताधारी कांग्रेस के शासन से तंग आ गए थे। दूसरी ओर यदि मोदी का जादू नहीं चला तो फिर ऐसे क्या कारण थे कि कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा । आखिर ऐसे क्या प्रमुख कारण रहे, जिनके चलते कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। आइए देखते हैं....
एंटी-इनकम्बेंसी : कई लोक-लुभावन घोषणाओं के बावजूद कांग्रेस की नाव सत्ता विरोधी लहर में डूब गई। राजस्थान की जनता वैसे भी किसी को दूसरा मौका नहीं देती। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने राज्य की जनता को कई तोहफे दिए।
जयपुर में मेट्रो परियोजना का उद्घाटन, नि:शुल्क दवाएं, बुजुर्गों को पेंशन और छात्र-छात्राओं को साइकल और लैपटॉप बांटे गए, सरकारी कर्मचारियों को ध्यान में रखते हुए छठा वेतन आयोग भी लागू किया गया है, लेकिन ये सारी चीजें सत्ता विरोधी लहर को नहीं रोक पाईं।
अकेले पड़े गेहलोत : राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अशोक गहलोत का कार्यकाल तो अच्छा रहा लेकिन उनकी पैरवी करने वाला कोई नहीं दिखता इसलिए वे सफल मुख्यमंत्री की तरह नहीं दिखे।
केन्द्र में ताकतवर सीपी जोशी को गहलोत बिलकुल रास नहीं आते। दूसरी ओर जातिगत समीकरणों को भी वे अपने पक्ष में करने में नाकाम रहे। साफ और सरल छवि होने के बावजूद उनका चेहरा नहीं चला।
दागियों ने बिगाड़ा खेल : महिपाल मदेरणा, मलखान सिंह विश्नोई और बाबूलाल नागर पर लगे यौन शोषण के आरोपों के कारण भी उन्हें लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ी। बावजूद इसके गहलोत ने विधानसभा चुनाव में इनके परिजनों को टिकट दिए। इसका असर चुनाव परिणाम पर देखने को मिला, जो कांग्रेस के पक्ष में नहीं गया।
भ्रष्टाचार : भाजपा ने आक्रामक अंदाज में केन्द्र सरकार के भ्रष्टाचार से जुड़े मुद्दे चुनावी सभाओं में उठाए। इनमें कॉमनवेल्थ घोटाला, कोयला घोटाला, 2जी घोटाला, आदर्श घोटाला आदि प्रमुख रूप से छाए रहे। इतना ही नहीं भाजपा ने अशोक गहलोत पर खनन घोटाले के आरोप लगा दिए।
महंगाई : कांग्रेस को जिस मुद्दे ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया वह है महंगाई। कांग्रेस जनता को महंगाई के मुद्दे पर समझाने में नाकाम रही, दूसरी ओर महंगाई से बुरी तरह त्रस्त जनता ने अपने गुस्से का इजहार पोलिंग बूथ पर जाकर किया।
विकास का मुद्दा : विकास के मुद्दे पर भी राजस्थान की कांग्रेस सरकार बैकफुट पर रही, वहीं दूसरी ओर भाजपा ने यहां के लोगों को गुजरात का विकास मॉडल बताकर उसकी उम्मीदें बढ़ाईं और भगवा पार्टी उसे वोटों में बदलने में सफल रही।
नहीं चले स्टार प्रचारक : भाजपा की तरफ से जहां नरेन्द्र मोदी चारों ओर छाए रहे, वहीं कांग्रेस के स्टार प्रचारक राहुल गांधी और यूपीए की मुखिया सोनिया गांधी अपना खास असर नहीं छोड़ पाईं। उनकी सभाएं तो हुईं, भीड़ भी जुटी, लेकिन भीड़ वोटों में नहीं बदल पाई।
एकजुटता का अभाव : पूरे चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी में एकजुटता और समन्वय की कमी साफ-साफ दिखाई दी। यही कारण रहा कि कई जगह बागी पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार के सामने खम ठोंककर खड़े हो गए, जिसका खामियाजा पार्टी को उठाना पड़ा।
युवाओं से दूरी : सत्तारुढ़ कांग्रेस पार्टी राज्य के युवा वोटर को अपने पक्ष में करने में नाकाम रही। इस चुनाव में इस वर्ग ने परिवर्तन की लहर पर सवार होकर बदलाव में अहम भूमिका निभाई। राज्य में रिकॉर्ड मतदान भी इसी ओर इशारा कर रहा है।
जातीय समीकरण : अशोक गहलोत इस बार जातीय समीकरणों को अपने पक्ष में नहीं कर सके। राज्य की सत्ता में अहम भूमिका निभाने वाले जाट समुदाय ने इस बार कांग्रेस से दूरी बना ली, इसी के चलते कई सीटों पर कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा। इसके साथ ही मीणा जाति के वोट भी किरोड़ीलाल मीणा की राजपा ने बांट दिए। इसका भी नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा ।