पश्चिम में एक नया आंदोलन चलता है, इकॉलॉजी- कि प्रकृति को नष्ट मत करो, अब और नष्ट मत करो। हालांकि हमने कोशिश की थी हल करने की। हमने डीडीटी छिड़का, मच्छर मर जाएँ। मच्छर ही नहीं मरते, मच्छरों के हटते ही वह जो जीवन की श्रृंखला है उसमें कुछ टूट जाता है। मच्छर किसी श्रृंखला के हिस्से थे। वे कुछ काम कर रहे थे।
हमने जंगल काट डाले। सोचा कि जमीन चाहिए, मकान बनाने हैं। लेकिन जंगल काटने से जंगल ही नहीं कटते, वर्षा होनी बंद हो गई। क्योंकि वे वृक्ष बादलों को भी निमंत्रण देते थे, बुलाते थे। अब बादल नहीं आते, क्योंकि वृक्ष ही न रहे जो पुकारें। उन वृक्षों की मौजूदगी के कारण ही बादल बरसते थे; अब बरसते भी नहीं अब ऐसे ही गुजर जाते हैं।
हमने जंगल काट डाले, कभी हमने सोचा भी नहीं कि जंगल के वृक्षों से बादल का कुछ लेना-देना होगा। यह तो बाद में पता चला जब हमने जंगल साफ कर लिए। अब वृक्षारोपण करो। जिन्होंने वृक्ष कटवा दिए वही कहते हैं, अब वृक्षारोपण करो। अब वृक्ष लगाओ, अन्यथा बादल न आएँगे। हमने तो सोचा था अच्छा ही कर रहे हैं; जंगल कट जाएँ, बस्ती बस जाए।
हमने आदमी के जीवन की अवधि को बढ़ा लिया, मृत्यु-दर कम हो गई। अब हम कहते हैं, बर्थ-कंट्रोल करो। पहले हमने मृत्यु-दर कम कर ली, अब हम मुश्किल में पड़े हैं, क्योंकि संख्या बढ़ गई है। अब आदमी बढ़ते जाते हैं, पृथ्वी छोटी पड़ती जाती है। अब ऐसा लगता है अगर यह संख्या बढ़ती रही तो इस सदी के पूरे होते-होते आदमी अपने हाथ से खत्म हो जाएगा।
तो जिन्होंने दवाएँ ईजाद की हैं और जिन्होंने आदमी की उम्र बढ़ा दी है, पच्चीस-तीस साल की औसत उम्र को खींचकर अस्सी साल तक पहुंचा दिया- इन्होंने हित किया? अहित किया? बहुत कठिन है तय करना। क्योंकि अब बच्चे पैदा न हों, इसकी फिकर करनी पड़ रही है। लाख उपाय करोगे तो भी झंझट मिटने वाली नहीं है। अब अगर बच्चों को तुम रोक दोगे तो तुम्हें पता नहीं है कि इसका परिणाम क्या होगा।
मेरे देखे, अगर एक स्त्री को बच्चे पैदा न हों तो उस स्त्री में कुछ मर जाएगा। उसकी 'माँ' कभी पैदा न हो पाएगी। वह कठोर और क्रूर हो जाएगी। उसमें हिंसा भर जाएगी। बच्चे जुड़े हैं। जैसे वृक्ष बादल से जुडे हैं, ऐसे बच्चे माँँ से जुड़े हैं- और भी गहराई से जुड़े हैं। फिर क्या परिणाम होंगे, माँ को किस तरह की बीमारियाँ होंगी, कहना मुश्किल है।
इंग्लैंड में एकदवा ईजाद हुई, जिससे कि स्त्रियों को बच्चे बिना दर्द के पैदा हो सकते हैं। उसका खूब प्रयोग हुआ। लेकिन जितने बच्चे उस दवा को लेने से पैदा हुए- सब अपंग, कुरूप, टेढ़े-म़ेढे...। मुकदमा चला अदालत में। लेकिन तब तक तो भूल हो गई थी; अनेक स्त्रियाँ ले चुकी थीं। बिना दर्द के बच्चे पैदा हो गए, लेकिन बिना दर्द के बच्चे बिल्कुल बेकार पैदा हो गए, किसी काम के पैदा न हुए। तब कुछ खयाल में आया कि शायद स्त्री को जो प्रसव-पीड़ा होती है, वह भी बच्चे के जीवन के लिए जरूरी है। अगर एकदम आसानी से बच्चा पैदा हो जाए तो कुछ गड़बड़ हो जाती है। शायद वह संघर्षण, वह स्त्री के शरीर से बाहर आने की चेष्टा और पीडा, स्त्री को और बच्चे को- शुभ प्रारंभ है।
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पीड़ा भी शुभ प्रारंभ हो सकती है। अगर फूल ही फूल रह जाएँ जगत में और काँटे बिल्कुल न बचें, तो लोग बिल्कुल दुर्बल हो जाएँगे; उनकी रीढ़ टूट जाएगी; बिना रीढ़ के हो जाएँगे। जीवन ऐसा जुड़ा है कि कहना मुश्किल है कि किस बात का क्या परिणाम होगा! कौन सी बात कहाँ ले जाएगी! मकड़ी का जाला, एक तरफ से हिलाओ, सारा जाला हिलने लगता है।
आदमी बुद्धि से कहीं पहुँचा नहीं। बुद्धि के नाम से जिसको हम प्रगति कहते हैं, वह हुई नहीं। वहम है। भ्रांति है। आदमी पहले से ज्यादा सुखी नहीं हुआ है, ज्यादा दुखी हो गया है। आज भी जंगल में बसा आदिवासी तुमसे ज्यादा सुखी है।
हालाँकि तुम उसे देखकर कहोगे- 'बेचारा! झोपड़े में रहता है या वृक्ष के नीचे रहता है। यह कोई रहने का ढंग है? भोजन भी दोनों जून ठीक से नहीं मिल पाता, यह भी कोई बात है? कपड़े-लत्ते भी नहीं हैं, नंगा बैठा है! दरिद्र, दीन, दया के योग्य। सेवा करो, इसको शिक्षित करो। मकान बनवाओ। कपड़े दो। इसकी नग्नता हटाओ। इसकी भूख मिटाओ।'
तुम्हारी नग्नता और भूख मिट गई, तुम्हारे पास कपड़े हैं, तुम्हारे पास मकान हैं- लेकिन सुख बढ़ा? आनंद बढ़ा? तुम ज्यादा शांत हुए? तुम ज्यादा प्रफुल्लित हुए? तुम्हारे जीवन में नृत्य आया? तुम गा सकते हो, नाच सकते हो? या कि कुम्हला गए और सड़ गए? तो कौन सी चीज गति दे रही है और कौन सी चीज सिर्फ गति का धोखा दे रही है, कहना मुश्किल है। लेकिन पूरब के मनीषियों का यह सारभूत निश्चय है, यह अत्यंत निश्चय किया हुआ दृष्टिकोण है, दर्शन है कि जब तक बुद्धि से तुम चलोगे तब तक तुम कहीं न कहीं उलझाव खड़ा करते रहोगे।
छोड़ो बुद्धि को! जो इस विराट को चलाता है, तुम उसके साथ सम्मिलित हो जाओ। तुम अलग-थलग न चलो। यह अलग-थलग चलने की तुम्हारी चेष्टा तुम्हें दुख में ले जा रही है। आदमी कुछ अलग नहीं है। जैसे पशु हैं, पक्षी हैं, पौधे हैं, चाँद-तारे हैं, ऐसा ही आदमी है- इस विराट का अंग। लेकिन आदमी अपने को अंग नहीं मानता।
आदमी कहता है- 'मेरे पास बुद्धि है। पशु-पक्षियों के पास तो बुद्धि नहीं। ये तो बेचारे विवश हैं। मेरे पास बुद्धि है। मैं बुद्धि का उपयोग करूँगा और मैं जीवन को ज्यादा आनंद की दिशा में ले चलूँगा।' लेकिन कहां आदमी ले जा पाया! जितना आदमी सभ्य होता है, उतना ही दुखी होता चला जाता है। जितनी शिक्षा बढ़ती, उतनी पीड़ा बढ़ती चली जाती है। जितनी जानकारी और बुद्धि का संग्रह होता है, उतना ही हम पाते हैं किभीतर कुछ खाली और रिक्त होता चला जाता है!
इस धारणा को ही छोड़ दो किहम अलग-थलग हैं। हम इकट्ठे हैं। सब जुड़ा है। हम संयुक्त हैं। इस संयुक्तता में लीन हो जाओ।
साभार : अष्टावक्र गीता से सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन