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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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ओशो- बच्चों को रोने से न रोकें....

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मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे के रोने की जो कला है, वह उसके तनाव से मुक्त होने की व्यवस्था है और बच्चे पर बहुत तनाव है। बच्चे को भूख लगी है और मां दूर है या काम में उलझी है। बच्चे को भी क्रोध आता है। और अगर बच्चा रो ले, तो उसका क्रोध बह जाता है और बच्चा हलका हो जाता है, लेकिन मां उसे रोने नहीं देगी।

मनसविद्‍ कहते हैं कि उसे रोने देना; उसे प्रेम देना, लेकिन उसके रोने को रोकने की कोशिश मत करना। हम क्या करेंगे? बच्चे को खिलौना पकड़ा देंगे कि मत रोओ। बच्चे का मन डाइवर्ट हो जाएगा। वह खिलौना पकड़ लेगा, लेकिन रोने की जो प्रक्रिया भीतर चल रही थी, वह रुक गई और जो आंसू बहने चाहिए थे, वे अटक गए और जो हृदय हलका हो जाता बोझ से, वह हलका नहीं हो पाया। वह खिलौने से खेल लेगा, लेकिन यह जो रोना रुक गया, इसका क्या होगा? यह विष इकट्ठा हो रहा है।

मनसविद्‍ कहते हैं कि बच्चा इतना विष इकट्ठा कर लेता है, वही उसकी जिंदगी में दु:ख का कारण है। और वह उदास रहेगा। आप इतने उदास दिख रहे हैं, आपको पता नहीं कि यह उदासी हो सकता था न होती; अगर आप हृदयपूर्वक जीवन में रोए होते, तो ये आंसू आपकी पूरी जिंदगी पर न छाते; ये निकल गए होते। और सब तरह का रोना थैराप्यूटिक है। हृदय हलका हो जाता है।

रोने में सिर्फ आंसू ही नहीं बहते, भीतर का शोक, भीतर का क्रोध, भीतर का हर्ष, भीतर के मनोवेश भी आंसुओं के सहारे बाहर निकल जाते हैं। और भीतर कुछ इकट्ठा नहीं होता है। तो स्क्रीम थैरेपी के लोग कहते हैं कि जब भी कोई आदमी मानसिक रूप से बीमार हो, तो उसे इतने गहरे में रोने की आवश्यकता है कि उसका रोआं-रोआं, उसके हृदय का कण-कण, श्वास-श्वास, धड़कन-धड़कन रोने में सम्मिलित हो जाए; एक ऐसे चीत्कार की जरूरत है, जो उसके पूरे प्राणों से निकले, जिसमें वह चीत्कार ही बन जाए।

हजारों मानसिक रोगी ठीक हुए हैं चीत्कार से। और एक चीत्कार भी उनके न मालूम कितने रोगों से उन्हें मुक्त कर जाती है। लेकिन उस चीत्कार को पैदा करवाना बड़ी कठिन बात है। क्योंकि आप इतना दबाए हैं कि आप अगर रोते भी हैं तो रोना भी आपका झूठा होता है। उसमें आपके पूरे प्राण सम्मिलित नहीं होते। आपका रोना भी बनावटी होता है। ऊपर-ऊपर रो लेते हैं।

आंख से आंसू बह जाते हैं, हृदय से नहीं आते। लेकिन चीत्कार ऐसी चाहिए, जो आपकी नाभि से उठे और आपका पूरा शरीर उसमें समाविष्ट हो जाए। आप भूल ही जाएं कि आप चीत्कार से अलग हैं; आप एक चीत्कार ही हो जाएं। तो कोई तीन महीने लगते हैं मनोवैज्ञानिकों को आपको रुलाना सिखाने के लिए। तीन महीने निरंतर प्रयोग करके आपको गहरा किया जाता है।

करते क्या हैं इस थैरेपी वाले लोग? आपको छाती के बल लेटा देते हैं जमीन पर। आपसे कहते हैं कि जमीन पर लेटे रहें और जो भी दु:ख मन में आता हो, उसे रोकें मत, उसे निकालें। रोने का मन हो रोएं; चिल्लाने का मन हो चिल्लाएं।

तीन महीने तक ऐसा बच्चे की भांति आदमी लेटा रहता है जमीन पर रोज घंटे, दो घंटे। एक दिन, किसी दिन वह घड़ी आ जाती है कि उसके हाथ-पैर कंपने लगते हैं विद्युत के प्रवाह से। वह आदमी आंख बंद कर लेता है, वह आदमी जैसे होश में नहीं रह जाता, और एक भयंकर चीत्कार उठनी शुरू होती है। कभी-कभी घंटों चीत्कार चलती है। आदमी बिलकुल पागल मालूम पड़ता है, लेकिन उस चीत्कार के बाद उसकी जो-जो मानसिक तकलीफें थीं, वे सब तिरोहित हो जाती हैं।

यह जो ध्यान का प्रयोग मैं आपको कहा हूं, ये आपके जब तक मनावेग-रोने के, हंसने के, नाचने के, चिल्लाने के, चीखने के, पागल होने के- इनका निरसन नहो जाए, तब तक आप ध्यान में जा नहीं सकते। यही तो बाधाएं हैं।

आप शांत होने की कोशिश कर रहे हैं और आपके भीतर वेग भरे हुए हैं, जो बाहर निकलना चाहते हैं। आपकी हालत ऐसी है, जैसे केतली चढ़ी है चाय की। ढक्कन बंद है। ढक्कन पर पत्थर रखे हैं। केतली का मुंह भी बंद किया हुआ है और नीचे से आग भी जल रही है। वह जो भाप इकट्ठी हो रही है, वह फोड़ देगी केतली को। विस्फोट होगा। दस-पांच लोगों की हत्या भी हो सकती है। इस भाप को निकल जाने दें। इस भाप के निकलते ही आप नए हो जाएंगे और तब ध्यान की तरफ प्रयोग शुरू हो सकता है।

साभार :गीता दर्शन
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

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