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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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साहस के पर मत काटो

- ओशो रजनीश

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लोग मेरे पास आते हैं- वे सिगरेट पीना छोड़ना चाहते हैं और वे हजारों बार कोशिश कर चुके होते हैं। और फिर कुछ घंटों के बाद, तलब इतनी उठती है, उनका पूरा शरीर, उनका पूरा स्नायु-तंत्र निकोटिन की माँग करने लगता है। फिर वे सारी धार्मिक शिक्षाओं को भूल जाते हैं कि 'सिगरेट पीओगे तो नर्क में गिरोगे।' वे तैयार हो जाते हैं, क्योंकि कौन जानता है कि नर्क है भी अथवा नहीं? पर अभी तो वे इस नर्क में नहीं रह सकते; सिगरेट के अलावा किसी और चीज के बारे में वे सोच भी नहीं सकते।

मैंने लोगों से कहा, 'धूम्रपान बंद मत करो। धूम्रपान करो लेकिन होशपूर्वक, प्रेम से, गरिमा से; जितना इसका आनंद ले सको, लो। जब तुम अपने फेफड़े बर्बाद कर ही रहे हो, क्यों न जितना संभव हो उतनी सुंदरता से, उतनी शान से करो। और फिर ये तुम्हारे फेफड़े हैं, किसी और को इससे क्या लेना-देना है। और मैं तुमसे वायदा करता हूँ कि नर्क तुम्हारे लिए नहीं है क्योंकि तुम किसी और को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो, तुम स्वयं को ही नुकसान पहुँचा रहे हो; और तुमने इसकी कीमत चुकाई है। तुम कोई सिगरेट की चोरी नहीं कर रहे हो, तुम उसकी कीमत चुका रहे हो। तुम्हें भला क्यों नर्क जाना होगा? तुम तो पहले से ही कष्ट उठा रहे हो। किसी को टीबी है और डॉक्टर कह रहा है, 'धूम्रपान बंद कर दो वरना निश्चित रूप से तुम्हें कैंसर हो जाएगा, तुम कैंसर की तैयारी कर रहे हो।' इससे अधिक नर्क और क्या होगा?

लेकिन जब तुमने धूम्रपान करने का निर्णय कर ही लिया है और तुम स्वयं इसे रोक नहीं पा रहे हो तब क्यों न इसे सुंदर ढंग से, होश से, धार्मिकता से ही करो। वे मुझे सुनते जाते हैं और सोचते जाते हैं, 'इस आदमी को तो पागल होना चाहिए। यह कह क्या रहा है- धार्मिकता से!'

और मैं उन्हें बताता हूँ कि सिगरेट के पैकेट को धीरे-धीरे कैसे होशपूर्वक जेब से बाहर निकालो। पैकेट को होश के साथ खोलो, फिर सिगरेट को होश के साथ बाहर निकालो- देखो, उसे चारों तरफ से निहारो। यह इतनी सुंदर चीज है! तुम सिगरेट को इतना प्रेम करते हो, तुम्हें सिगरेट को थोड़ा समय, थोड़ा ध्यान तो देना ही चाहिए। फिर इसे जलाओ; बाहर-भीतर आते-जाते धुएँ को देखो। जब धुआँ तुम्हारे भीतर जाए, सजग रहो। तुम एक महान कार्य कर रहे हो : शुद्ध हवा मुफ्त में उपलब्ध है; इसे दूषित करने के लिए तुम पैसा खर्च कर रहे हो, परिश्रम से कमाया हुआ पैसा। इसका पूरा आनंद लो।

धुएँ की गर्मी, धुएँ का भीतर जाना, खाँसी- सबके प्रति सजग रहो! सुंदर-सुंदर छल्ले बनाओ, ये सब छल्ले सीधे स्वर्ग की ओर जाते हैं। फिर भला तुम कैसे नर्क जा सकते हो; तुम्हारा धुआँ तो स्वर्ग जा रहा है, तो तुम कैसे नर्क जा सकते हो? इसका आनंद लो। और मैंने उन्हें मजबूर किया कि 'इसे मेरे सामने करो ताकि मैं देख सकूँ।'

वे कहते जाते, 'यह सब करना इतना अटपटा, इतना मूढ़तापूर्ण लगता है, जो आप कह रहे हैं।'

मैंने उनको कहा, 'यही एकमात्र उपाय है, अगर तुम इसकी तलब से मुक्त होना चाहते हो।'

और वे ऐसा करते, और मुझसे कहते, 'यह हैरानी की बात है, कि पहली बार मैं साक्षी था। मैं धूम्रपान नहीं कर रहा था- शायद मन या शरीर कर रहा था, लेकिन मैं तो मात्र देखने वाला था।'

मैंने उनसे कहा, 'तुम्हें अब कुंजी मिल गई है। अब सजग रहना और जितना चाहो उतना धूम्रपान करना क्योंकि जितना ज्यादा तुम धूम्रपन करोगे, उतने ही ज्यादा सजग तुम होते चले जाओगे। दिन, रात में, आधी रात में, जब तुम्हारी नींद खुले तब धूम्रपान करना। इस अवसर को मत गँवाओ, धूम्रपान करो। डॉक्टर की, पत्नी की चिंता मत करो; किसी की भी चिंता मत करो। बस एक बात का ध्यान रखना कि सजग रहना। इसे एक कला बना लेना।'

और सैकड़ों लोगों ने यह अनुभव किया कि उनकी तलब चली गई। सिगरेट चली गई, सिगार पीने की आदत छूट गई। धूम्रपान की इच्छा तक... पीछे मुड़कर देखने पर, उन्हें भरोसा भी नहीं आता कि वे इतने बंधन में थे। और इस कारागृह से बाहर आने की एकमात्र कुंजी थी- सजगता, जागरूकता।

जागरूकता तुम्हारे पास है, बस कुल बात इतनी है कि तुमने कभी इसका उपयोग नहीं किया है। इसलिए आज से ही इसका उपयोग करो ताकि यह तीक्ष्ण से तीक्ष्ण होती चली जाए। इसका उपयोग न करने से इस पर धूल जमा हुई है।

किसी भी कृत्य में-उठने में, बैठने में, चलने में, खाने में, पीने में, सोने में- जो कुछ भी तुम करो, इस बात का स्मरण रखकर करो कि साथ-साथ जागरूकता की, होश की अंतर्धारा भी तुम्हारे साथ-साथ चलती रहे। और तुम्हारे जीवन में एक धार्मिक सुगंध आनी प्रारंभ हो जाएगी। और सभी प्रकार की जागरूकता, अमूर्च्छा ठीक है और सभी प्रकार की मूर्च्छा गलत है।

दूसरा प्रश्न : मेरा मन मुझे चेतावनी देता है कि यदि मैं समाज के साथ मिलकर नहीं चलता हूँ तो वह मेरी मदद करना बंद कर देगा। और मेरे भीतर के अपराध भाव को प्रकट कर देना कि मैं होश के मार्ग पर चलना चुन रहा हूँ। मेरा मन सत्य के साथ होने तथा सत्य के साथ होने वाले खतरों के तर्क भी प्रस्तुत करता है, लेकिन मुझे लगता है मुझमें ही इसका सामना करने का साहस नहीं है।

पहली तो बात हर किसी में साहस है। तुम्हें बचपन से ही इसका उपयोग करने नहीं दिया जाता। सारा समाज तुम्हें कायर बना देना चाहता है। समाज को कायरों की बहुत जरूरत है, क्योंकि समाज की उत्सुकता तुम्हें गुलाम बनाने में है।

माता-पिता चाहते हैं कि तुम आज्ञाकारी बनो। तुम्हारा साहस शायद तुम्हें आज्ञाकारी न होने दे। तुम्हारे शिक्षक चाहते हैं कि तुम उनकी हर बात बिना प्रश्न उठाए स्वीकार कर लो; और फिर अगर तुममें साहस होगा तो तुम प्रश्न भी पूछ सकते हो। तुम्हारे पंडित पुरोहित चाहते हैं कि तुम उन पर भरोसा और विश्वास करो लेकिन तुम्हारा साहस संदेह निर्मित कर सकता है सभी निहित स्वार्थ साहस के, जो कि तुम्हारे व्यक्तित्व का स्वाभाविक अंग है, विरोध में है।

कोई भी जन्म से कायर नहीं होता, कायर निर्मित किए जाते हैं।

हर बच्चा साहसी होता है। मुझे आज तक कोई एक भी ऐसा बच्चा नहीं मिला है, जो साहसी न हो। क्या हो जाता है? यह गुण कहाँ खो जाता है? वही बच्चा, जब वह विश्वविद्यालय से बाहर आता है, कायर होता है। तुम्हारी सारी शिक्षा, तुम्हारा सभी धर्म, तुम्हारा पूरा समाज, तुम्हारे सभी संबंध- पति नहीं चाहता कि पत्नी में साहस हो; न ही पत्नी चाहती है कि पति में साहस हो। हर कोई हर किसी पर शासन करना चाहता है। स्वाभाविक है कि दूसरे व्यक्ति को कायर बन दिया जाए।

यह एक बड़ी ही विचित्र बात है कि स्त्री पहले तो अपने पति के साहस को नष्ट कर देगी और फिर वह उससे प्यार न कर सकेगी, क्योंकि स्त्री साहस को प्रेम करती है।

हमने जीवन को बहुत जटिल बना दिया है। और हम बहुत मुर्च्छित ढंग से जी रहे हैं। कोई भी पत्नी नहीं चाहती कि उसका पति कायर हो, पर हर स्त्री अपने पति को कायर बनाकर ही मानती है। फिर वह दुविधा की हालत में आ जाती है : वह चाहती है कि उसका पति हीरो हो, लेकिन हीरो वह घर के बाहर ही हो, घर के भीतर नहीं। लेकिन यह संभव नहीं है। घर के भीतर तो उसे एक चूहे की भाँति काम करना है और घर के बाहर उसे शेर बनकर रहना है। और लोग इंतजाम कर रहे हैं और हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की राम-कहानी जानता है, क्योंकि सभी एक-सी ही कहानी है।

माता-पिता आज्ञाकारी बच्चे से बड़े प्रसन्न रहते हैं। मैं कभी भी आज्ञाकारी बालक नहीं रहा- और मेरा परिवार संयुक्त परिवार, एक बड़ा परिवार था; चाचा-चाची, बुआ, बहुत सारे लोग एक ही छत के नीचे, एक ही घर में रहते थे। और जब कभी भी अतिथि या कोई विशिष्ट व्यक्ति घर में आते तो मेरे घरवाले मुझे घर से बाहर भेजने की कोशिश करते। वे मुझसे कहते, 'कहीं भी चले जाओ!' घर में दूसरे बच्चे जो आज्ञाकारी थे- मेरे भाई, मेरी बहनें- उनका परिचय कराते, और मैं ठीक उसी समय स्वयं अपना परिचय देने अतिथि के सामने पहुँच जाता : मैं कहता, 'ये लोग भूल गए; मैं घर में सबसे बड़ा हूँ... और इन लोगों और मेरे बीच में एक इशारे की भाषा है।' और मेरे पिता इधर-उधर देखते, 'कि अब क्या किया जाए?'

मैं कहता, 'इशारे की भाषा यह है कि जब कभी भी मुझे अपना परिचय कराने की आवश्यकता आ जाती है, ये लोग मुझे घर से बाहर भेज देते हैं। इसका मतलब है कि निश्चित ही कोई आ रहा है, कोई खास व्यक्ति और फिर स्वाभाविक है कि मुझे ठीक समय पर बीच में आना ही पड़ता है, अपना परिचय देने के लिए। इन लोगों में इतना साहस भी नहीं कि मेरा परिचय भी करा सकें।'

उनकी समस्या क्या थी? उनकी समस्या यह थी कि घर में हर व्यक्ति अज्ञाकारी था। वे कहते, 'रात है', और बच्चे भी कहते, 'हाँ रात है।' और मैं देखता कि रात नहीं दिन है। अब दो ही रास्ते होते : या तो अपनी स्वयं की बुद्धि की सुनी जाए, या आज्ञाकारी बालक के रूप में सम्मानित हो लिया जाए।

साभार : ओशो उपनिषद
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

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