देने वाला कृतज्ञता अनुभव करे

ओशो
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उनके प्रति कृतज्ञता की अनुभूति करो, जिन्होंने तुमसे कुछ ग्रहण किया है। उनका साहस और विश्वास तो देखो। वे लेने से इंकार भी कर सकते थे। उनका परोपकार तो देखो। उन्होंने तुम्हें अपने ऊपर बरसने दिया है, ठीक पानी से भरे बादल की तरह।

जब कोई बादल पानी से लबालब भरकर बरसता है तो क्या तुम्हारे ख्याल से वह ढूँढ़ता फिरता है कि बारिश में भीगने लायक कौन है? क्या वह बादल ब्राह्मण के खेत में ज्यादा और गरीब शूद्र के खेत में कम पानी बरसाता है? नहीं, उसे इसकी परवाह नहीं होती। वह तो प्यासी धरती का कृतज्ञ भर होता है, जो उसे आनंद के साथ ग्रहण करती है। चारों तरफ वह आनंद हरी-भरी वनस्पतियों में, फूलों और सुगंध में व्यक्त होता है। अचानक सूखी धरती नहीं रहती, वह रस और जीवन से परिपूर्ण हो उठती है।

प्यासी धरती एक परोपकार ही तो करती है एक बादल का बोझ हलका करके। वह बादल को मुक्त कर देती है, ताकि वह बहती हुई हवा के साथ आसानी के साथ किसी भी दिशा में उड़ सके। लेकिन किसी धर्म ने इसके बारे में कभी नहीं सोचा। धर्मों की चिंता तो धन और सत्ता के साथ जुड़ी रही है, जो उन्हें अमीर लोगों से ही मिल सकते हैं। वे धनी लोगों को दान करने के बारे में समझाने की भरसक कोशिश करते रहे हैं... पर घुमा-फिरा कर।

एक बौद्ध शास्त्र में परोपकार की चर्चा पढ़ते हुए मुझे अचरज हुआ कि धार्मिक समझे जाने वाले लोगों के दिमाग में कितनी चालाकी भरी होती है। मुझे नहीं लगता कि ये बातें स्वयं गौतम बुद्ध ने कहीं होंगी, क्योंकि अनका संग्रह तो उनकी मृत्यु के बाद हुआ है। यह शास्त्र सबसे पहले परोपकार के सौंदर्य की चर्चा करता है, उसकी अच्छाई की चर्चा करता है, उस पुरस्कार की चर्चा करता है, जो परोपकारी को दूसरी दुनिया में मिलता है। अंत में वह कहता है कि लेकिन अगर देना है तो केवल उनको दो जो उसकी पात्रता रखते हैं। फिर वह पात्र व्यक्ति को परिभाषित करता है और वह परिभाषा ऐसी है कि केवल एक बौद्ध भिक्षु ही उसमें फिट हो सकता है।

हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों का भी यही रवैया है। इनमें से कोई स्वीकार करने के परोपकार के बारे में नहीं सोचता। क्योंकि उन्हें स्वयं अपने बारे में कोई दिलचस्पी नहीं है। वे तो धन के बारे में चिंतित हैं कि उसे कैसे प्राप्त किया जाए, लोगों को दान के लिए कैसे पटाया जाए, उन्हें कैसे यकीन दिलाया जाए कि वे जो कुछ दे रहे हैं, उसमें बेहतर धंधा है। क्योंकि वे जो देंगे, उसमें भी ज्यादा उन्हें दूसरी दुनिया में पाने का आश्वासन होगा।

यह कैसा परोपकार हुआ? यह परोपकार नहीं है। परोपकार शर्तों पर नहीं होता। वह कोई शर्त नहीं जानता। वह तो सहज रूप से देने का नाम है और उस कृतज्ञता का नाम है कि उस अस्वीकार नहीं किया गया और उसे ग्रहण किया गया।

संदर्भ : दि मसीहा पुस्तक से
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

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