क्या मैं प्यार के काबिल हूँ?

संस्कारों ने मार दी योग्यता

ओशो
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आपका प्रश्न : मुझे हमेशा लगता है कि मैं प्यार के लायक नहीं हूँ। मुझे लगता है कि इससे मेरे दिल के द्वार बंद रहते हैं। और अब मेरा दिल पीड़ा से गुजर रहा है लेकिन मैं भूल गया हूँ कि द्वार कहाँ है।

ओशो का उत्तर : मानव समाज में हर जगह हर व्यक्ति के खिलाफ यह अपराध किया गया है। तुम्हें लगातार संस्कारित किया गया है और कहा गया है कि तुम अपात्र हो।

क्योंकि इन संस्कारों के कारण मानवता के अधिकांश हिस्से ने किसी भी साहसिक इच्छा को, सितारों के लिए किसी तीर्थयात्रा को छोड़ दिया है वे भी तो उनकी अपात्रता में विश्वास करने लगे हैं। उनके माता पिता उन्हें कह रहे थे, 'तुम अयोग्य हो।' उनके शिक्षक उन्हें कह रहे थे, 'तुम अयोग्य हो।' उनके धर्मगुरु उन्हें कह रहे थे, 'तुम अयोग्य हो।' हर कोई उन पर इस विचार को थोप रहा था कि वे अयोग्य थे। स्वाभाविक रूप से उन्होंने इस विचार को स्वीकार किया।

एक बार जब तुम अयोग्यता का विचार स्वीकार करते हो तो तुम स्वाभाविक रूप से बंद हो जाते हो। तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारे पंख हैं, कि सारा आकाश तुम्हारा है, कि तुम्हें सिर्फ अपने पंखों को खोलना है और सारा आकाश अपने सभी सितारों के साथ तुम्हारा है।

सवाल यह नहीं है कहीं तुम एक दरवाजा खोलना भूल गये हो, कोई द्वार हैं ही नहीं, न कोई दीवारें हैं। यह अयोग्यता का ख्याल बस एक अवधारणा, एक विचार है। तुम विचार से सम्मोहित हो गए हो।

बहुत शुरू से, सभी संस्कृतियों, सभी समाजों ने सम्मोहन का उपयोग किया व्यक्तियों को नष्ट करने के लिए-उनकी स्वतंत्रता, उनकी अद्वितीयता, उनकी प्रतिभा-क्योंकि निहित स्वार्थों को प्रतिभाशालियों की जरूरत नहीं है, अद्वितीय व्यक्तियों की जरूरत नहीं हैं, उन लोगों की जरूरत नहीं है जो आजादी से प्यार करते हैं. उन्हें गुलामों की जरूरत होती है, और गुलाम बनाने के मनोवैज्ञानिक तरीके केवल यह हैं कि तुम्हारे दिमाग में डाल दिया जाए कि तुम जरा भी लायक नहीं हो, कि तुम्हारे पास जो कुछ है उसके भी तुम लायक नहीं हो, तुम्हें इससे अधिक पाने की इच्छा नहीं करना चाहिए। तुम्हारे पास पहले से जो कुछ है वह तुम्हारी योग्यता से बहुत ज्यादा है।

सम्मोहन निरंतर दोहराव की एक साधारण प्रक्रिया है। सिर्फ एक निश्चित विचार दोहराए चले जाना है और यह तुम्हारे अंदर पैठता जाता है, और यह एक मोटी दीवार बनती है, अदृश्य। न कोई दरवाजे, न खिड़कियाँ; वस्तुत: कोई दीवार ही नहीं होती।

जॉर्ज गुरजिएफ ने अपने बचपन के संस्मरणों में लिखा है...वह काकेशस, दुनिया के एक सबसे आदिम भागों में पैदा हुआ था। वह अभी भी उस स्थिति में है जैसे मानवता जब यह शिकार के द्वारा रहती थी, वहाँ पर अभी खेती भी शुरू नहीं की गई है। काकेशस के लोग को बहुत तेज शिकारी हैं और जो भी समाज शिकार के द्वारा जीता है उसका खानाबदोश होना स्वाभाविक है। वे मकान नहीं बना सकते हैं, वे शहर नहीं बना सकते, क्योंकि आप जानवरों पर निर्भर नहीं कर सकते। आज वे यहाँ उपलब्ध हैं, कल वे यहाँ उपलब्ध नहीं हैं। निश्चित रूप से तुम उन्हें मारोगे, और तुम्हारी उपस्थिति की वजह से वे भाग जाएँगे, या तो वे मारे जाएँगे या वे भाग जाएँगे।

गुरजिएफ एक खानाबदोश समाज द्वारा पाला-पोसा गया था, तो वह लगभग किसी और ग्रह से आया था। वह कुछ बातें जानता था जो हम भूल गए हैं। उसे याद था कि उसके बचपन में खानाबदोश अपने बच्चों को सम्मोहित करते थे क्योंकि जब वे शिकार करने जाते थे तो वे उन्हें लगातार साथ नहीं ले जा सकते। वे उन्हें कहीं एक पेड़ के नीचे एक सुरक्षित जगह में छोड़ देते। लेकिन क्या गारंटी है कि वे बच्चे वहीं रहेंगे? उन्हें सम्मोहित किया जाना जरूरी था। तो वे एक छोटी रणनीति का प्रयोग करते, और उन्होंने इसे सदियों से इस्तेमाल किया है।

बहुत शुरू से जब बच्चा बहुत छोटा होता है तभी से, वे उसे एक पेड़ के नीचे बिठाते। फिर वे एक छड़ी से बच्चे के चारों ओर एक घेरा बनाते और उसे बताते, 'तुम इस चक्र से बाहर नहीं जा सकते, अगर तुम इससे बाहर जाओगे तो तुम मर जाओगे।'

अब उन छोटे बच्चों को तुम्हारी तरह विश्वास होता। तुम ईसाई क्यों हो?...क्योंकि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बताया। तुम हिंदू क्यों हो? तुम क्यों जैन हो? तुम क्यों मुसलमान हो?...क्योंकि तुम्हारे माता पिता ने तुम्हें बताया।

उन बच्चों का मानना है कि अगर वे चक्र के बाहर जाएँगे तो वे मर जाएँगे। वे इस कंडीशनिंग के साथ बड़े होते हैं। आप उन्हें मनाने की कोशिश करें 'बाहर आओ, मैं तुम्हें एक मिठाई दूँगा।' वे नहीं आ सकते, क्योंकि मृत्यु...! यहाँ तक कि कभी-कभी अगर वे कोशिश करते हैं, उन्हें लगता है मानो एक अदृश्य दीवार उन्हें रोकती है, उन्हें घेरे में वापस धक्का दे देती है। वह दीवार उनके दिमाग में ही मौजूद है, वहाँ कोई दीवार नहीं है, वहाँ कुछ नहीं है। वह व्यक्ति जिसने उन्हें घेरे में डाल दिया है जब तक नहीं आता और घेरा मिटा नहीं देता, बच्चे को बाहर नहीं ले जाता, तब तक बच्चा अंदर रहता है।

बच्चे की उम्र बढ़ती रहती है, लेकिन यह विचार अवचेतन में रहता है। तो एक बूढ़ा आदमी भी, अगर उसके पिता उसे चारों ओर एक घेरा बना देते हैं तो इससे बाहर नहीं निकल सकता। तो यह न केवल बच्चे का सवाल है, बूढ़ा आदमी भी अपने अवचेतन में अपने बचपन को वहन करता है। यह एक बच्चे का सवाल नहीं है, खानाबदोश के पूरे समूह ने निकटवर्ती पेड़ के नीचे अपने बच्चों को रख दिया है, और सभी बच्चे पूरे दिन वहाँ बैठे हैं। अपने माता-पिता के वापस आने के समय तक, यह एक ऐसी कंडीशनिंग बन गई है कि कुछ भी हो जाए, बच्चा चक्र नहीं छोड़ेगा।

बिलकुल इसी तरह के घेरे तुम्हारे चारों ओर तुम्हारे समाज द्वारा तैयार किए जा रहे हैं। बेशक वे और अधिक परिष्कृत हैं। तुम्हारे धर्म कुछ भी नहीं महज एक घेरा है, लेकिन बहुत परिष्कृत। तुम्हारे चर्च, तुम्हारे मंदिर, तुम्हारे पवित्र पुस्तक, लेकिन एक सम्मोहक घेरे के अलावा कुछ भी नहीं है।

एक बात समझने की है कि व्यक्ति कई घेरों द्वारा घिरा हुआ है जो केवल तुम्हारे मन में हैं। उनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, लेकिन वे लगभग असली के रूप में कार्य करते हैं।

यह केवल एक कंडीशनिंग है कि तुम अयोग्य हो। कोई भी अयोग्य नहीं है। अस्तित्व अयोग्य लोगों का उत्पादन नहीं करता है। अस्तित्व मूर्ख नहीं है। अगर अस्तित्व इतने सारे अयोग्य लोगों का उत्पादन करता है, तो पूरी जिम्मेवारी अस्तित्व की हो जाती है। तो यह निश्चित रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अस्तित्व बुद्धिमान नहीं है, कि इसके पीछे कोई बुद्धि नहीं है, कि यह एक मूर्ख, भौतिकवादी, आकस्मिक घटना है और इसमें कोई चेतना नहीं है। यह हमारी पूरी लड़ाई है, हमारा पूरा संघर्ष है, यह साबित करना कि अस्तित्व बुद्धिमान है, कि अस्तित्व बेहद सचेत है।

यह वही है जो अस्तित्व गौतम बुद्ध बनाता है, वह अयोग्य लोगों को नहीं बना सकता। तुम अयोग्य नहीं हो। तो कोई द्वार खोजने का सवाल ही नहीं है, केवल एक समझ चाहिए कि अयोग्यता एक झूठी धारणा है जो तुम पर उनके द्वारा आरोपित की गई है जो तुम्हें पूरे जीवन के लिए गुलाम बनाना चाहते हैं।

तुम इसे बस अभी छोड़ सकते हो। अस्तित्व तुम्हें वही सूरज देता है जो गौतम बुद्ध को, वही चाँद देता है जो जरथुस्त्र को, वही हवा जो महावीर को, वही बारिश जो जीसस को। कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई भेद-भाव की जानकारी नहीं है। अस्तित्व के लिए, गौतम बुद्ध, जरथुस्त्र, लाओत्सु, बोधिधर्म, कबीर, नानक या तुम सब एक ही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि गौतम बुद्ध ने अयोग्य होने के विचार को स्वीकार नहीं किया है, वह विचार खारिज कर दिया।

तो अयोग्यता का विचार छोड़ दो, यह एक विचार है। और इसे छोड़ने के साथ, तुम आकाश के नीचे हो। द्वार का कोई सवाल नहीं है, सब कुछ खुला है, सभी दिशाएँ खुली हैं। कि तुम हो, यह पर्याप्त है साबित करने के लिए कि अस्तित्व को तुम्हारी जरूरत है, वह तुमसे प्यार करता है, तुम्हारा पोषण करता है, तुम्हारा सम्मान करता है।

अयोग्यता के विचार को सामाजिक परजीवी द्वारा बनाया है। इस विचार को गिरा दो। अस्तित्व के लिए आभारी होओ...क्योंकि यह केवल योग्य लोगों को बनाता है, वह कभी उसे नहीं बनाता जो बेकार है। वह केवल उन्हीं लोगों को बनाता है जिनकी जरूरत है।

मेरा जोर है कि हर संन्यासी अपना सम्मान करे और अस्तित्व के प्रति आभारी महसूस करे कि वह समय और स्थान के इस अवसर पर यहाँ है।

साभार : ओशो, बियांड एनलाइटनमेंट
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

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